दुनिया तो चाहती है यूँ ही फ़ासले रहें; दुनिया के मश्वरों पे न जा उस गली में चल! |
कोई तो परचम ले कर निकले अपने गरेबान का "जालिब"; चारो जानिब सन्नाटा है, दीवाने याद आते है। |
कुछ और भी हैं काम हमें ऐ ग़म-ए-जानाँ, कब तक कोई उलझी हुई ज़ुल्फ़ों को सँवारे। |
कुछ और भी हैं काम हमें ऐ ग़म-ए-जानाँ; कब तक कोई उलझी हुई ज़ुल्फ़ों को सँवारे। |
और सब भूल गए... और सब भूल गए हर्फ-ए-सदाक़त लिखना; रह गया काम हमारा ही बगावत लिखना; न सिले की न सताइश की तमन्ना हमको; हक में लोगों के हमारी तो है आदत लिखना; हम ने तो भूलके भी शह का कसीदा न लिखा; शायद आया इसी खूबी की बदौलत लिखना; दह्र के ग़म से हुआ रब्त तो हम भूल गए; सर्व-क़ामत की जवानी को क़यामत लिखना; कुछ भी कहते हैं कहें शह के मुसाहिब 'जालिब'; रंग रखना यही अपना, इसी सूरत लिखना। |
ये ठीक है कि... ये ठीक है कि तेरी गली में न आयें हम; लेकिन ये क्या कि शहर तेरा छोड़ जाएँ हम; मुद्दत हुई है कूए बुताँ की तरफ़ गए; आवारगी से दिल को कहाँ तक बचाएँ हम; शायद बकैदे-जीस्त ये साअत न आ सके; तुम दास्ताने-शौक़ सुनो और सुनाएँ हम; उसके बगैर आज बहुत जी उदास है; 'जालिब' चलो कहीं से उसे ढूँढ लायें हम। |
दिल की बात लबों पर लाकर अब तक हम दुःख सहते हैं; हम ने सुना था इस बस्ती में दिल वाले भी रहते हैं; बीत गया सावन का महीना मौसम ने नज़रें बदलीं; लेकिन इन प्यासी आँखों से अब तक आँसू बहते हैं। |
कहाँ क़ातिल बदलते हैं... कहाँ क़ातिल बदलते हैं फ़क़त चेहरे बदलते हैं; अजब अपना सफ़र है फ़ासले भी साथ चलते हैं; बहुत कमजर्फ़ था जो महफ़िलों को कर गया वीराँ; न पूछो हाले चाराँ शाम को जब साए ढलते हैं; वो जिसकी रोशनी कच्चे घरों तक भी पहुँचती है; न वो सूरज निकलता है, न अपने दिन बदलते हैं; कहाँ तक दोस्तों की बेदिली का हम करें मातम; चलो इस बार भी हम ही सरे मक़तल निकलते हैं; हम अहले दर्द ने ये राज़ आखिर पा लिया 'जालिब'; कि दीप ऊँचे मकानों में हमारे खून से जलते हैं। |
कहाँ क़ातिल बदलते हैं... कहाँ क़ातिल बदलते हैं फ़क़त चेहरे बदलते हैं; अजब अपना सफ़र है फ़ासले भी साथ चलते हैं; बहुत कमजर्फ़ था जो महफ़िलों को कर गया वीराँ; न पूछो हाले चाराँ शाम को जब साए ढलते हैं; वो जिसकी रोशनी कच्चे घरों तक भी पहुँचती है; न वो सूरज निकलता है, न अपने दिन बदलते हैं; कहाँ तक दोस्तों की बेदिली का हम करें मातम; चलो इस बार भी हम ही सरे मक़तल निकलते हैं; हम अहले दर्द ने ये राज़ आखिर पा लिया 'जालिब'; कि दीप ऊँचे मकानों में हमारे खून से जलते हैं। |
जुबां पे मोहर लगाना कोई बड़ी बात नहीं; बदल सको तो बदल दो मेरे खयालों को। |