Habib Jalib Hindi Shayari

  • दुनिया तो चाहती है यूँ ही फ़ासले रहें;</br>
दुनिया के मश्वरों पे न जा उस गली में चल!Upload to Facebook
    दुनिया तो चाहती है यूँ ही फ़ासले रहें;
    दुनिया के मश्वरों पे न जा उस गली में चल!
    ~ Habib Jalib
  • कोई तो परचम ले कर निकले अपने गरेबान का `जालिब`;<br/>
चारो जानिब सन्नाटा है, दीवाने याद आते है।Upload to Facebook
    कोई तो परचम ले कर निकले अपने गरेबान का "जालिब";
    चारो जानिब सन्नाटा है, दीवाने याद आते है।
    ~ Habib Jalib
  • कुछ और भी हैं काम हमें ऐ ग़म-ए-जानाँ,
    कब तक कोई उलझी हुई ज़ुल्फ़ों को सँवारे।
    ~ Habib Jalib
  • कुछ और भी हैं काम हमें ऐ ग़म-ए-जानाँ;
    कब तक कोई उलझी हुई ज़ुल्फ़ों को सँवारे।
    ~ Habib Jalib
  • और सब भूल गए...

    और सब भूल गए हर्फ-ए-सदाक़त लिखना;
    रह गया काम हमारा ही बगावत लिखना;

    न सिले की न सताइश की तमन्ना हमको;
    हक में लोगों के हमारी तो है आदत लिखना;

    हम ने तो भूलके भी शह का कसीदा न लिखा;
    शायद आया इसी खूबी की बदौलत लिखना;

    दह्र के ग़म से हुआ रब्त तो हम भूल गए;
    सर्व-क़ामत की जवानी को क़यामत लिखना;

    कुछ भी कहते हैं कहें शह के मुसाहिब 'जालिब';
    रंग रखना यही अपना, इसी सूरत लिखना।
    ~ Habib Jalib
  • ये ठीक है कि...

    ये ठीक है कि तेरी गली में न आयें हम;
    लेकिन ये क्या कि शहर तेरा छोड़ जाएँ हम;

    मुद्दत हुई है कूए बुताँ की तरफ़ गए;
    आवारगी से दिल को कहाँ तक बचाएँ हम;

    शायद बकैदे-जीस्त ये साअत न आ सके;
    तुम दास्ताने-शौक़ सुनो और सुनाएँ हम;

    उसके बगैर आज बहुत जी उदास है;
    'जालिब' चलो कहीं से उसे ढूँढ लायें हम।
    ~ Habib Jalib
  • दिल की बात लबों पर लाकर अब तक हम दुःख सहते हैं;
    हम ने सुना था इस बस्ती में दिल वाले भी रहते हैं;
    बीत गया सावन का महीना मौसम ने नज़रें बदलीं;
    लेकिन इन प्यासी आँखों से अब तक आँसू बहते हैं।
    ~ Habib Jalib
  • कहाँ क़ातिल बदलते हैं...

    कहाँ क़ातिल बदलते हैं फ़क़त चेहरे बदलते हैं;
    अजब अपना सफ़र है फ़ासले भी साथ चलते हैं;

    बहुत कमजर्फ़ था जो महफ़िलों को कर गया वीराँ;
    न पूछो हाले चाराँ शाम को जब साए ढलते हैं;

    वो जिसकी रोशनी कच्चे घरों तक भी पहुँचती है;
    न वो सूरज निकलता है, न अपने दिन बदलते हैं;

    कहाँ तक दोस्तों की बेदिली का हम करें मातम;
    चलो इस बार भी हम ही सरे मक़तल निकलते हैं;

    हम अहले दर्द ने ये राज़ आखिर पा लिया 'जालिब';
    कि दीप ऊँचे मकानों में हमारे खून से जलते हैं।
    ~ Habib Jalib
  • कहाँ क़ातिल बदलते हैं...

    कहाँ क़ातिल बदलते हैं फ़क़त चेहरे बदलते हैं;
    अजब अपना सफ़र है फ़ासले भी साथ चलते हैं;

    बहुत कमजर्फ़ था जो महफ़िलों को कर गया वीराँ;
    न पूछो हाले चाराँ शाम को जब साए ढलते हैं;

    वो जिसकी रोशनी कच्चे घरों तक भी पहुँचती है;
    न वो सूरज निकलता है, न अपने दिन बदलते हैं;

    कहाँ तक दोस्तों की बेदिली का हम करें मातम;
    चलो इस बार भी हम ही सरे मक़तल निकलते हैं;

    हम अहले दर्द ने ये राज़ आखिर पा लिया 'जालिब';
    कि दीप ऊँचे मकानों में हमारे खून से जलते हैं।
    ~ Habib Jalib
  • जुबां पे मोहर लगाना कोई बड़ी बात नहीं;
    बदल सको तो बदल दो मेरे खयालों को।
    ~ Habib Jalib