उस ना-ख़ुदा के ज़ुल्म ओ सितम हाए क्या करूँ; कश्ती मेरी डुबोई है साहिल के आस-पास! *साहिल: किनारा |
जब सिवा मेरे तुम्हारा कोई दीवाना न था, सच कहो कुछ तुम को भी वो कार-ख़ाना याद है; ग़ैर की नज़रों से बच कर सब की मर्ज़ी के ख़िलाफ़, वो तेरा चोरी-छुपे रातों को आना याद है! |
बरसात के आते ही तौबा न रही बाक़ी; बादल जो नज़र आए बदली मेरी नीयत भी! |
नहीं आती तो याद उनकी महीनों तक नहीं आती; मगर जब याद आते हैं तो अक्सर याद आते हैं! |
चुपके चुपके रात दिन आँसू बहाना याद है; हम को अब तक आशिक़ी का वो ज़माना याद है! |
इक बार दिखाकर चले जाओ झलक अपनी, हम जल्वा-ए-पैहम के तलबगार कहाँ हैं। 1. जल्वा-ए-पैहम - लगातार दर्शन 2. तलबगार - ख्वाहिशमंद, मुश्ताक, अभिलाषी |
इक जहाँ है जिसका मुश्ताक-ए-जमाल; सख्त हैरत है, वह क्यों रूपोश है! |
अब वो मिलते भी हैं तो यूँ कि कभी; गोया हमसे कुछ वास्ता न था! |
देखना भी तो उन्हें दूर से देखा करना; शेवा-ए-इश्क़ नहीं हुस्न को रुसवा करना; एक नज़र ही तेरी काफ़ी थी कि आई राहत-ए-जान; कुछ भी दुश्वार न था मुझ को शकेबा करना; उन को यहाँ वादे पे आ लेने दे ऐ अब्र-ए-बहार; जिस तरह चाहना फिर बाद में बरसा करना; शाम हो या कि सहर याद उन्हीं की रख ले; दिन हो या रात हमें ज़िक्र उन्हीं का करना; कुछ समझ में नहीं आता कि ये क्या है 'हसरत'; उन से मिलकर भी न इज़हार-ए-तमन्ना करना। |
मालूम है दुनिया को ये 'हसरत' की हक़ीक़त; ख़ल्वत में वो मय-ख़्वार है जल्वत में नमाज़ी। |