Iftikhar Arif Hindi Shayari

  • ख़्वाब की तरह बिखर जाने को जी चाहता है;</br>
ऐसी तन्हाई कि मर जाने को जी चाहता है!Upload to Facebook
    ख़्वाब की तरह बिखर जाने को जी चाहता है;
    ऐसी तन्हाई कि मर जाने को जी चाहता है!
    ~ Iftikhar Arif
  • वो क्या मंज़िल जहाँ से रास्ते आगे निकल जाएँ;</br>
सो अब फिर एक सफ़र का सिलसिला करना पड़ेगा!Upload to Facebook
    वो क्या मंज़िल जहाँ से रास्ते आगे निकल जाएँ;
    सो अब फिर एक सफ़र का सिलसिला करना पड़ेगा!
    ~ Iftikhar Arif
  • दुआ को हाथ उठाते हुए लरज़ता हूँ;</br>
कभी दुआ नहीं माँगी थी माँ के होते हुए!</br></br>
*लरज़ता: Waver, Shake, Quiver  Upload to Facebook
    दुआ को हाथ उठाते हुए लरज़ता हूँ;
    कभी दुआ नहीं माँगी थी माँ के होते हुए!

    *लरज़ता: Waver, Shake, Quiver
    ~ Iftikhar Arif
  • तुम से बिछड़ कर ज़िंदा हैं;</br>
जान बहुत शर्मिंदा हैं!Upload to Facebook
    तुम से बिछड़ कर ज़िंदा हैं;
    जान बहुत शर्मिंदा हैं!
    ~ Iftikhar Arif
  • मेरे ख़ुदा मुझे इतना तो मोतबर कर दे;<br/>
मैं जिस मकान में रहता हूँ उस को घर कर दे!Upload to Facebook
    मेरे ख़ुदा मुझे इतना तो मोतबर कर दे;
    मैं जिस मकान में रहता हूँ उस को घर कर दे!
    ~ Iftikhar Arif
  • ख़ुद को बिखरते देखते हैं कुछ कर नहीं पाते हैं;<br/>
फिर भी लोग ख़ुदाओं जैसी बातें करते हैं!Upload to Facebook
    ख़ुद को बिखरते देखते हैं कुछ कर नहीं पाते हैं;
    फिर भी लोग ख़ुदाओं जैसी बातें करते हैं!
    ~ Iftikhar Arif
  • वफ़ा की ख़ैर मनाता हूँ बेवफ़ाई में भी:<br/>
मैं उस की क़ैद में हूँ क़ैद से रिहाई में भी!Upload to Facebook
    वफ़ा की ख़ैर मनाता हूँ बेवफ़ाई में भी:
    मैं उस की क़ैद में हूँ क़ैद से रिहाई में भी!
    ~ Iftikhar Arif
  • दिल पागल है रोज़ नई नादानी करता है;<br/>
आग में आग मिलाता है फिर पानी करता है!sUpload to Facebook
    दिल पागल है रोज़ नई नादानी करता है;
    आग में आग मिलाता है फिर पानी करता है!s
    ~ Iftikhar Arif
  • ख़्वाब की तरह बिखर जाने को जी चाहता है;<br/>
ऐसी तन्हाई कि मर जाने को जी चाहता है!xUpload to Facebook
    ख़्वाब की तरह बिखर जाने को जी चाहता है;
    ऐसी तन्हाई कि मर जाने को जी चाहता है!x
    ~ Iftikhar Arif
  • समझ रहे हैं मगर बोलने का यारा नहीं;
    जो हम से मिल के बिछड़ जाए वो हमारा नहीं;

    अभी से बर्फ़ उलझने लगी है बालों से;
    अभी तो क़र्ज़-ए-मह-ओ-साल भी उतारा नहीं;

    बस एक शाम उसे आवाज़ दी थी हिज्र की शाम;
    फिर उस के बाद उसे उम्र भर पुकारा नहीं;

    समंदरों को भी हैरत हुई के डूबते वक़्त;
    किसी को हम ने मदद के लिए पुकारा नहीं;

    वो हम नहीं थे तो फिर कौन था सर-ए-बाज़ार;
    जो कह रहा था के बिकना हमें गवारा नहीं;

    हम अहल-ए-दिल हैं मोहब्बत की निस्बतों के अमीन;
    हमारे पास ज़मीनों का गोशवारा नहीं।
    ~ Iftikhar Arif