ख़ुदा के वास्ते गुल को न मेरे हाथ से लो; मुझे बू आती है इस में किसी बदन की सी! |
आते ही जो तुम मेरे गले लग गए वल्लाह; उस वक़्त तो इस गर्मी ने सब मात की गर्मी! |
दिल की बेताबी नहीं ठहरने देती है मुझे; दिन कहीं रात कहीं सुब्ह कहीं शाम कहीं! |
इश्क़ फिर वो रंग लाया है कि जी जाने है; दिल का ये रंग बनाया है कि जी जाने है; नाज़ उठाने में जफ़ाएं तो उठाई लेकिन; लुत्फ़ भी ऐसा उठाया है कि जी जाने है। |
दूर से आये थे... दूर से आये थे साक़ी सुनके मयख़ाने को हम; बस तरसते ही चले अफ़सोस पैमाने को हम; मय भी है, मीना भी है, साग़र भी है साक़ी नहीं; दिल में आता है लगा दें आग मयख़ाने को हम; हमको फँसना था क़फ़ज़ में, क्या गिला सय्याद का; बस तरसते ही रहे हैं, आब और दाने को हम; बाग में लगता नहीं सहरा में घबराता है दिल; अब कहाँ ले जा कर बिठाऐं ऐसे दीवाने को हम; ताक-ए-आबरू में सनम के क्या ख़ुदाई रह गई; अब तो पूजेंगे उसी क़ाफ़िर के बुतख़ाने को हम; क्या हुई तक़्सीर हम से, तू बता दे ए 'नज़ीर'; ताकि शादी मर्ग समझें, ऐसे मर जाने को हम। |
कितने खड़े हैं पैरें अपना दिखा के सीना; सीना चमक रहा है हीरे का ज्यूँ नगीना; आधे बदन पे है पानी आधे पे है पसीना; सर्वों का बह गोया कि इक करीना। |
आगे तो परीजाद ये रखते थे हमें घेर; आते थे चले आप जो लगती थी ज़रा देर; सो आके बुढ़ापे ने किया हाय ये अंधेरे; जो दौड़ के मिलते थे वो अब हैं मुंह फेर। |