कोई मुझ से पूछ बैठा "बदलना" किसे कहते हैं? सोच में पड़ गया हूँ मिसाल किस की दूँ? "मौसम" की या "अपनों" की। |
एक मुद्दत से मेरे हाल से बेगाना है; जाने ज़ालिम ने किस बात का बुरा माना है; मैं जो ज़िद्दी हूँ तो वो भी कुछ कम नहीं; मेरे कहने पर कहाँ उसने चले आना है। |
हसीनों ने हसीन बन कर गुनाह किया; औरों को तो क्या हमको भी तबाह किया; पेश किया जब ग़ज़लों में हमने उनकी बेवफाई को; औरों ने तो क्या उन्होंने भी वाह - वाह किया। |
यह न पूछ कि शिकायतें कितनी हैं तुझ से; यह बता कि तेरा कोई और सितम बाकी तो नहीं। |
मोहब्बत है कि नफरत है, कोई इतना समझाए; कभी मैं दिल से लड़ती हूँ कभी दिल मुझ से लड़ता है। |
'दर्द' के मिलने से ऐ यार बुरा क्यों माना; उस को कुछ और सिवा दीद के मंज़ूर न था। |
वादा करके वो निभाना भूल जाते हैं; लगा कर आग फिर वो बुझाना भूल जाते हैं; ऐसी आदत हो गयी है अब तो उस हरजाई की; रुलाते तो हैं मगर मनाना भूल जाते हैं। |
मेरा यही अंदाज इस जमाने को खलता है; कि इतना पीने के बाद भी सीधा कैसे चलता है! |
सब फ़साने हैं दुनियादारी के, किस से किस का सुकून लूटा है; सच तो ये है कि इस ज़माने में, मैं भी झूठा हूँ तू भी झूठा है। |
ज़िंदा रहे तो क्या है, जो मर जायें हम तो क्या; दुनिया से ख़ामोशी से गुज़र जायें हम तो क्या; हस्ती ही अपनी क्या है ज़माने के सामने; एक ख्वाब हैं जहान में बिखर जायें हम तो क्या। |