कोई मुझ सा मुस्तहके़-रहमो-ग़मख़्वारी नहीं, सौ मरज़ है और बज़ाहिर कोई बीमारी नही; इश्क़ की नाकामियों ने इस तरह खींचा है तूल, मेरे ग़मख़्वारों को अब चाराये-ग़मख़्वारी नही। |
पतंग सी है ज़िन्दगी कहाँ तक जाएगी, रात हो या उम्र एक ना एक दिन कट ही जाएगी। |
काँच जैसा बनने के बाद पता चलता है कि, उसको टूटना भी उसी की तरह पड़ता है। |
जब्त कहता है ख़ामोशी से बसर हो जाये, दर्द की ज़िद्द है कि दुनिया को खबर हो जाये। |
ना वो मिलती है ना मैं रुकता हूँ, पता नहीं रास्ता गलत है या मंज़िल। |
हम मरीज इश्क़ के वो भी थे हकीम-ए-दिल, दीदार की दवा दी कुछ पल के लिए फिर दर्द की पुड़िया बांध दी। |
भीड़ है बर-सर-ए-बाज़ार कहीं और चलें; आ मेरे दिल मेरे ग़म-ख़्वार कहीं और चलें। |
उसकी पलकों से आँसू को चुरा रहे थे हम, उसके ग़मो को हंसीं से सजा रहे थे हम, जलाया उसी दिये ने मेरा हाथ, जिसकी लो को हवा से बचा रहे थे हम। |
जिसके नसीब मे हों ज़माने भर की ठोकरें, उस बदनसीब से ना सहारों की बात कर। |
तलाश में बीत गयी सारी ज़िंदगानी ए दिल, अब समझा कि खुद से बड़ा कोई हमसफ़र नहीं होता। |