धूप की गरमी से ईंटें पक गयीं फल पक गए; एक हमारा जिस्म था 'अख़्तर' जो कच्चा रह गया! |
सिर्फ़ एक क़दम उठा था ग़लत राह-ए-शौक़ में; मंज़िल तमाम उम्र मुझे ढूँढती रही! |
तुम मेरे लिए अब कोई इल्ज़ाम न ढूंढो; चाहा था तुम्हें एक यही इल्ज़ाम बहुत है! |
नयी सुब्ह पर नज़र है मगर आह ये भी डर है; ये सहर भी रफ़्ता रफ़्ता कहीं शाम तक न पहुँचे! |
कब वो सुनता है कहानी मेरी; और फिर वो भी ज़बानी मेरी! |
उस ना-ख़ुदा के ज़ुल्म ओ सितम हाए क्या करूँ; कश्ती मेरी डुबोई है साहिल के आस-पास! *साहिल: किनारा |
ये काफ़ी है कि हम दुश्मन नहीं हैं, वफ़ा-दारी का दावा क्यों करें हम; वफ़ा इख़्लास क़ुर्बानी मोहब्बत, अब इन लफ़्ज़ों का पीछा क्यों करें हम! *इख़्लास: सच्चा और निष्कपट प्रेम |
मुद्दतों बाद, लौटे है तेरे शहर में, एक तुझे छोड़, कुछ भी तो नहीं बदला ! |
तो क्या सारे गिले-शिकवे अभी कर लोगे मुझ से, कुछ अब कल के लिए रखो मुझे नींद आ रही है; सहर होगी तो देखेंगे कि हैं क्या क्या मसाइल, ज़रा सी देर सोने दो मुझे नींद आ रही है! *मसाइल: समस्याएँ |
अपने हर हर लफ़्ज़ का ख़ुद आईना हो जाऊँगा; उस को छोटा कह के मैं कैसे बड़ा हो जाऊँगा; तुम गिराने में लगे थे तुम ने सोचा ही नहीं, मैं गिरा तो मसला बन कर खड़ा हो जाऊँगा! |