ना हम रहे दिल लगाने के काबिल; ना दिल रहा ग़म उठाने के काबिल; लगे उसकी यादों के जो ज़ख़्म दिल पर; ना छोड़ा उसने फिर मुस्कुराने के काबिल। |
अपनी मर्ज़ी से कहाँ अपने सफ़र के हम हैं; रुख हवाओं का जिधर का है उधर के हम हैं; पहले हर चीज़ थी अपनी मगर अब लगता हैं; अपने ही घर में किसी दूसरे घर के हम हैं। |
तुझको भी जब अपनी कसमें अपने वादे याद नहीं; हम भी अपने ख्वाब तेरी आँखों में रख कर भूल गए। |
वो जज़्बों की तिजारत थी, यह दिल कुछ और समझा था; उसे हँसने की आदत थी, यह दिल कुछ और समझा था; मुझे देख कर अक्सर वो निगाहें फेर लेते थे; वो दर-ए-पर्दा हकारत थी, यह दिल कुछ और समझा था। शब्दार्थ हकारत = नफरत |
मेरी रातों की राहत, दिन के इत्मिनान ले जाना; तुम्हारे काम आ जायेगा, यह सामान ले जाना; तुम्हारे बाद क्या रखना अना से वास्ता कोई; तुम अपने साथ मेरा उम्र भर का मान ले जाना। |
दर्द-ए-दिल कम ना होगा ऐ सनम; आपकी महफ़िल से जाने के बाद; नाम बदनाम हमारा होगा; आपकी ज़िन्दगी से जाने के बाद। |
एक खिलौना टूट जाएगा नया मिल जाएगा; मैं नहीं तो कोई तुझ को दूसरा मिल जाएगा; भागता हूँ हर तरफ़ ऐसे हवा के साथ साथ; जिस तरह सच मुच मुझे उस का पता मिल जाएगा। |
हमें क्या पता था, मौसम ऐसे रो पड़ेगा; हमने तो आसमां को बस अपनी दास्ताँ सुनाई थी। |
खुलेगी इस नज़र पे चश्म-ए-तर आहिस्ता आहिस्ता; किया जाता है पानी में सफ़र आहिस्ता आहिस्ता; कोई ज़ंजीर फिर वापस वहीं पर ले के आती है; कठिन हो राह तो छूटता है घर आहिस्ता आहिस्ता। |
अपनी यादें अपनी बातें लेकर जाना भूल गये; जाने वाले जल्दी में मिलकर जाना भूल गये; मुड़-मुड़ कर देखा था जाते वक़्त रास्ते में उन्होंने; जैसे कुछ जरुरी था, जो वो हमें बताना भूल गये; वक़्त-ए-रुखसत भी रो रहा था हमारी बेबसी पर; उनके आंसू तो वहीं रह गये, वो बाहर ही आना भूल गये। |