मैंने माना कि कुछ नहीं 'ग़ालिब'; मुफ़्त हाथ आए तो बुरा क्या है! |
रोने वालों से कहो उन का भी रोना रो लें; जिन को मजबूरी-ए-हालात ने रोने न दिया! |
तुम्हारे ख़त में नया एक सलाम किस का था, न था रक़ीब तो आख़िर वो नाम किस का था; वो क़त्ल कर के मुझे हर किसी से पूछते हैं, ये काम किस ने किया है ये काम किस का था! |
चली है मौज में काग़ज़ की कश्ती; उसे दरिया का अंदाज़ा नहीं है! |
कभी किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता, कहीं ज़मीन कहीं आसमाँ नहीं मिलता; तमाम शहर में ऐसा नहीं ख़ुलूस न हो, जहाँ उमीद हो इस की वहाँ नहीं मिलता! *मुकम्मल: उत्तम, पूर्ण *ख़ुलूस: निष्कपटता, निश्छलता |
गुलों में रंग भरे बाद-ए-नौ-बहार चले, चले भी आओ कि गुलशन का कारोबार चले; क़फ़स उदास है यारो सबा से कुछ तो कहो, कहीं तो बहर-ए-ख़ुदा आज ज़िक्र-ए-यार चले! *बहर-ए-ख़ुदा: ईश्वर के लिए *क़फ़स: पिंजरा, क़ैदख़ाना *सबा: हवा, सुबह की हवा |
सफ़र में धूप तो होगी जो चल सको तो चलो; सभी हैं भीड़ में तुम भी निकल सको तो चलो! |
आँखों में रहा दिल में उतर कर नहीं देखा, कश्ती के मुसाफ़िर ने समंदर नहीं देखा; बे-वक़्त अगर जाऊँगा सब चौंक पड़ेंगे, एक उम्र हुई दिन में कभी घर नहीं देखा! |
सुना है लोग उसे आँख भर के देखते हैं, सो उस के शहर में कुछ दिन ठहर के देखते हैं; सुना है रब्त है उस को ख़राब-हालों से, सो अपने आप को बरबाद कर के देखते हैं! *रब्त: लगाव *ख़राब-हालों: जिनकी हालत खराब है |
परेशाँ रात सारी है सितारो तुम तो सो जाओ, सुकूत-ए-मर्ग तारी है सितारो तुम तो सो जाओ; हँसो और हँसते हँसते डूबते जाओ ख़लाओं में, हमीं पे रात भारी है सितारो तुम तो सो जाओ! *सुकूत-ए-मर्ग: मौत की चुप्पी *ख़लाओं: आकाश |