अज़ीज़ इतना ही रखो कि जी सँभल जाए; अब इस क़दर भी न चाहो कि दम निकल जाए! ~ उबैदुल्लाह अलीम 'अज़ीज़ *दोस्त, प्रिय, प्यारा, |
ख़बर-ए-तहय्युर-ए-इश्क़ सुन न जुनूँ रहा न परी रही, न तो तू रहा न तो मैं रहा जो रही सो बे-ख़बरी रही; शह-ए-बे-ख़ुदी ने अता किया मुझे अब लिबास-ए-बरहनगी, न ख़िरद की बख़िया-गरी रही न जुनूँ की पर्दा-दरी रही! |
ढल चुकी रात मुलाक़ात कहाँ सो जाओ; सो गया सारा जहाँ सारा जहाँ सो जाओ! |
"शहर में अपने ये लैला ने मुनादी कर दी, कोई पत्थर से न मारे मेंरे दीवाने को।" |
"ये जब्र भी देखा है तारीख़ की नज़रों ने, लम्हों ने ख़ता की थी, सदियों ने सज़ा पाई।" |
क़ासिद के आते आते ख़त एक और लिख रखूँ; मैं जानता हूँ जो वो लिखेंगे जवाब में! |
ईद का दिन है, गले आज तो मिल ले ज़ालिम; रस्म-ए-दुनिया भी है, मौक़ा भी है, दस्तूर भी है। |
मैं उस के बदन की मुक़द्दस किताब; निहायत अक़ीदत से पढ़ता रहा! *मुक़द्दस: पवित्र *अक़ीदत: श्रद्धा |
अब जो एक हसरत-ए-जवानी है; उम्र-ए-रफ़्ता की ये निशानी है! |
भाँप ही लेंगे इशारा सर-ए-महफ़िल जो किया; ताड़ने वाले क़यामत की नज़र रखते हैं। |