देखकर पलकें मेरी कहने लगा कोई फक़ीर, इन पे बरख़ुरदार सपनों का वज़न कुछ कम करो! |
रेत की दीवार हूँ गिरने से बचा ले मुझको; यूँ न कर तेज़ हवाओं के हवाले मुझको; आ मेरे पास ज़रा देख मोहब्बत से मुझे; मैं बुरा हूँ तो भलाई से निभा ले मुझको! |
अर्ज़-ए-अहवाल को गिला समझे; क्या कहा मैंने आप क्या समझे| |
क्या बेचकर हम खरीदें फुर्सत-ए-जिंदगी; सब कुछ तो गिरवी पड़ा है जिम्मेदारी के बाजार में। |
एक सुकून की तालाश में, ना जाने कितनी बेचैनियाँ पाल ली; और लोग कहते हैं, हम बड़े हो गये और ज़िन्दगी संभाल ली। |
किस नाज़ से कहते हैं वो झुंजला के शब-ए-वस्ल; तुम तो हमें करवट भी बदलने नहीं देते। शब-ए-वस्ल = मिलन की रात |
किसी को घर से निकलते ही मिल गई मंज़िल; कोई हमारी तरह उम्र भर सफ़र में रहा! |
अर्ज़-ओ-समा कहाँ तिरी वुसअत को पा सके; मेरा ही दिल है वो कि जहाँ तू समा सके! अर्ज़-ओ-समा = धरती और आकाश वुसअत = विशालता, सम्पूर्णता |
अगर इश्क करो तो आदाब-ए-वफ़ा भी सीखो; ये चंद दिन की बेकरारी मोहब्बत नहीं होती! |
आज गुमनाम हूँ तो ज़रा फासला रख मुझसे; कल फिर मशहूर हो जाऊँ तो कोई रिश्ता निकाल लेना! |