ग़ज़ल Hindi Shayari

  • समुंदर में उतरता हूँ तो आँखें भीग जाती हैं;
    तिरी आँखों को पढ़ता हूँ तो आँखें भीग जाती हैं;

    तुम्हारा नाम लिखने की इजाज़त छिन गई जब से;
    कोई भी लफ़्ज़ लिखता हूँ तो आँखें भीग जाती हैं;

    तिरी यादों की ख़ुशबू खिड़कियों में रक़्स करती है;
    तिरे ग़म में सुलगता हूँ तो आँखें भीग जाती हैं;

    न जाने हो गया हूँ इस क़दर हस्सास मैं कब से;
    किसी से बात करता हूँ तो आँखें भीग जाती हैं;

    हज़ारों मौसमों की हुक्मरानी है मिरे दिल पर;
    'वसी' मैं जब भी हँसता हूँ तो आँखें भीग जाती हैं।
    ~ Syed Wasi Shah
  • कुछ इशारे थे जिन्हें दुनिया समझ बैठे थे हम;
    उस निगाह-ए-आशना को क्या समझ बैठे थे हम;

    रफ़्ता रफ़्ता ग़ैर अपनी ही नज़र में हो गये;
    वाह री ग़फ़्लत तुझे अपना समझ बैठे थे हम;

    होश की तौफ़ीक़ भी कब अहल-ए-दिल को हो सकी;
    इश्क़ में अपने को दीवाना समझ बैठे थे हम;

    बेनियाज़ी को तेरी पाया सरासर सोज़-ओ-दर्द;
    तुझ को इक दुनिया से बेगाना समझ बैठे थे हम;

    भूल बैठी वो निगाह-ए-नाज़ अहद-ए-दोस्ती;
    उस को भी अपनी तबीयत का समझ बैठे थे हम;

    हुस्न को इक हुस्न की समझे नहीं और ऐ 'फ़िराक़';
    मेहरबाँ नामेहरबाँ क्या क्या समझ बैठे थे हम।
    ~ Firaq Gorakhpuri
  • तुझ से अब और मोहब्बत नहीं की जा सकती;
    ख़ुद को इतनी भी अज़िय्यत नहीं दी जा सकती;

    जानते हैं कि यक़ीं टूट रहा है दिल पर;
    फिर भी अब तर्क ये वहशत नहीं की जा सकती;

    हब्स का शहर है और उस में किसी भी सूरत;
    साँस लेने की सहूलत नहीं दी जा सकती;

    रौशनी के लिए दरवाज़ा खुला रखना है;
    शब से अब कोई इजाज़त नहीं ली जा सकती;

    इश्क़ ने हिज्र का आज़ार तो दे रक्खा है;
    इस से बढ़ कर तो रिआयत नहीं दी जा सकती।
    ~ Noshi Gilani
  • जब रूख़-ए-हुस्न से नक़ाब उठा;
    बन के हर ज़र्रा आफ़्ताब उठा;

    डूबी जाती है ज़ब्त की कश्ती;
    दिल में तूफ़ान-ए-इजि़्तराब उठा;

    मरने वाले फ़ना भी पर्दा है;
    उठ सके गर तो ये हिजाब उठा;

    शाहिद-ए-मय की ख़ल्वतों में पहुँच;
    पर्दा-ए-नश्शा-ए-शराब उठा;

    हम तो आँखों का नूर खो बैठे;
    उन के चेहरे से क्या नक़ाब उठा;

    होश नक़्स-ए-ख़ुदी है ऐ 'एहसान';
    ला उठा शीशा-ए-शराब उठा।
    ~ Ehsaan Danish
  • गुज़रे दिनों की याद बरसती घटा लगे;
    गुज़रूँ जो उस गली से तो ठंडी हवा लगे;

    मेहमान बन के आये किसी रोज़ अगर वो शख़्स;
    उस रोज़ बिन सजाये मेरा घर सजा लगे;

    मैं इस लिये मनाता नहीं वस्ल की ख़ुशी;
    मेरे रक़ीब की न मुझे बददुआ लगे;

    वो क़हत दोस्ती का पड़ा है कि इन दिनों;
    जो मुस्कुरा के बात करे आश्ना लगे;

    तर्क-ए-वफ़ा के बाद ये उस की अदा 'क़तील';
    मुझको सताये कोई तो उस को बुरा लगे।
    ~ Qateel Shifai
  • किस को क़ातिल मैं कहूँ...

    किस को क़ातिल मैं कहूँ किस को मसीहा समझूँ;
    सब यहाँ दोस्त ही बैठे हैं किसे क्या समझूँ

    वो भी क्या दिन थे कि हर वहम यकीं होता था;
    अब हक़ीक़त नज़र आए तो उसे क्या समझूँ;

    दिल जो टूटा तो कई हाथ दुआ को उठे;
    ऐसे माहौल में अब किस को पराया समझूँ;

    ज़ुल्म ये है कि है यक्ता तेरी बेगानारवी;
    लुत्फ़ ये है कि मैं अब तक तुझे अपना समझूँ।
    ~ Ahmad Nadeem Qasmi
  • देख दिल को मेरे ओ काफ़िर-ए-बे-पीर न तोड़;
    घर है अल्लाह का ये इस की तो तामीर न तोड़;

    ग़ुल सदा वादी-ए-वहशत में रखूँगा बरपा;
    ऐ जुनूँ देख मेरे पाँव की ज़ंजीर न तोड़;

    देख टुक ग़ौर से आईना-ए-दिल को मेरे;
    इस में आता है नज़र आलम-ए-तस्वीर न तोड़;

    ताज-ए-ज़र के लिए क्यूँ शमा का सर काटे है;
    रिश्ता-ए-उल्फ़त-ए-परवाना को गुल-गीर न तोड़;

    अपने बिस्मिल से ये कहता था दम-ए-नज़ा वो शोख़;
    था जो कुछ अहद सो ओ आशिक़-ए-दिल-गीर न तोड़;

    सहम कर ऐ 'ज़फ़र' उस शोख़ कमाँ-दार से कह;
    खींच कर देख मेरे सीने से तू तीर न तोड़।
    ~ Bahadur Shah Zafar
  • कितनी पी कैसे कटी रात...

    कितनी पी कैसे कटी रात मुझे होश नहीं;
    रात के साथ गई बात मुझे होश नहीं;

    मुझको ये भी नहीं मालूम कि जाना है कहाँ;
    थाम ले कोई मेरा हाथ मुझे होश नहीं;

    आँसुओं और शराबों में गुजारी है हयात;
    मैं ने कब देखी थी बरसात मुझे होश नहीं;

    जाने क्या टूटा है पैमाना कि दिल है मेरा;
    बिखरे-बिखरे हैं खयालात मुझे होश नहीं।
    ~ Rahat Indori
  • जहाँ में हाल मेरा...

    जहाँ में हाल मेरा इस क़दर ज़बून हुआ;
    कि मुझ को देख के बिस्मिल को भी सुकून हुआ;

    ग़रीब दिल ने बहुत आरज़ूएँ पैदा कीं;
    मगर नसीब का लिक्खा कि सब का ख़ून हुआ;

    वो अपने हुस्न से वाक़िफ़ मैं अपनी अक़्ल से सैर;
    उन्हों ने होश सँभाला मुझे जुनून हुआ;

    उम्मीद-ए-चश्म-ए-मुरव्वत कहाँ रही बाक़ी;
    ज़रिया बातों का जब सिर्फ़ टेलीफ़ोन हुआ;

    निगाह-ए-गर्म क्रिसमस में भी रही हम पर;
    हमारे हक़ में दिसम्बर भी माह-ए-जून हुआ।
    ~ Akbar Allahabadi
  • हर जनम में....

    हर जनम में उसी की चाहत थे;
    हम किसी और की अमानत थे;

    उसकी आँखों में झिलमिलाती हुई;
    हम ग़ज़ल की कोई अलामत थे;

    तेरी चादर में तन समेट लिया;
    हम कहाँ के दराज़क़ामत थे;

    जैसे जंगल में आग लग जाये;
    हम कभी इतने ख़ूबसूरत थे;

    पास रहकर भी दूर-दूर रहे;
    हम नये दौर की मोहब्बत थे;

    इस ख़ुशी में मुझे ख़याल आया;
    ग़म के दिन कितने ख़ूबसूरत थे

    दिन में इन जुगनुओं से क्या लेना;
    ये दिये रात की ज़रूरत थे।
    ~ Bashir Badr