समुंदर में उतरता हूँ तो आँखें भीग जाती हैं; तिरी आँखों को पढ़ता हूँ तो आँखें भीग जाती हैं; तुम्हारा नाम लिखने की इजाज़त छिन गई जब से; कोई भी लफ़्ज़ लिखता हूँ तो आँखें भीग जाती हैं; तिरी यादों की ख़ुशबू खिड़कियों में रक़्स करती है; तिरे ग़म में सुलगता हूँ तो आँखें भीग जाती हैं; न जाने हो गया हूँ इस क़दर हस्सास मैं कब से; किसी से बात करता हूँ तो आँखें भीग जाती हैं; हज़ारों मौसमों की हुक्मरानी है मिरे दिल पर; 'वसी' मैं जब भी हँसता हूँ तो आँखें भीग जाती हैं। |
कुछ इशारे थे जिन्हें दुनिया समझ बैठे थे हम; उस निगाह-ए-आशना को क्या समझ बैठे थे हम; रफ़्ता रफ़्ता ग़ैर अपनी ही नज़र में हो गये; वाह री ग़फ़्लत तुझे अपना समझ बैठे थे हम; होश की तौफ़ीक़ भी कब अहल-ए-दिल को हो सकी; इश्क़ में अपने को दीवाना समझ बैठे थे हम; बेनियाज़ी को तेरी पाया सरासर सोज़-ओ-दर्द; तुझ को इक दुनिया से बेगाना समझ बैठे थे हम; भूल बैठी वो निगाह-ए-नाज़ अहद-ए-दोस्ती; उस को भी अपनी तबीयत का समझ बैठे थे हम; हुस्न को इक हुस्न की समझे नहीं और ऐ 'फ़िराक़'; मेहरबाँ नामेहरबाँ क्या क्या समझ बैठे थे हम। |
तुझ से अब और मोहब्बत नहीं की जा सकती; ख़ुद को इतनी भी अज़िय्यत नहीं दी जा सकती; जानते हैं कि यक़ीं टूट रहा है दिल पर; फिर भी अब तर्क ये वहशत नहीं की जा सकती; हब्स का शहर है और उस में किसी भी सूरत; साँस लेने की सहूलत नहीं दी जा सकती; रौशनी के लिए दरवाज़ा खुला रखना है; शब से अब कोई इजाज़त नहीं ली जा सकती; इश्क़ ने हिज्र का आज़ार तो दे रक्खा है; इस से बढ़ कर तो रिआयत नहीं दी जा सकती। |
जब रूख़-ए-हुस्न से नक़ाब उठा; बन के हर ज़र्रा आफ़्ताब उठा; डूबी जाती है ज़ब्त की कश्ती; दिल में तूफ़ान-ए-इजि़्तराब उठा; मरने वाले फ़ना भी पर्दा है; उठ सके गर तो ये हिजाब उठा; शाहिद-ए-मय की ख़ल्वतों में पहुँच; पर्दा-ए-नश्शा-ए-शराब उठा; हम तो आँखों का नूर खो बैठे; उन के चेहरे से क्या नक़ाब उठा; होश नक़्स-ए-ख़ुदी है ऐ 'एहसान'; ला उठा शीशा-ए-शराब उठा। |
गुज़रे दिनों की याद बरसती घटा लगे; गुज़रूँ जो उस गली से तो ठंडी हवा लगे; मेहमान बन के आये किसी रोज़ अगर वो शख़्स; उस रोज़ बिन सजाये मेरा घर सजा लगे; मैं इस लिये मनाता नहीं वस्ल की ख़ुशी; मेरे रक़ीब की न मुझे बददुआ लगे; वो क़हत दोस्ती का पड़ा है कि इन दिनों; जो मुस्कुरा के बात करे आश्ना लगे; तर्क-ए-वफ़ा के बाद ये उस की अदा 'क़तील'; मुझको सताये कोई तो उस को बुरा लगे। |
किस को क़ातिल मैं कहूँ... किस को क़ातिल मैं कहूँ किस को मसीहा समझूँ; सब यहाँ दोस्त ही बैठे हैं किसे क्या समझूँ वो भी क्या दिन थे कि हर वहम यकीं होता था; अब हक़ीक़त नज़र आए तो उसे क्या समझूँ; दिल जो टूटा तो कई हाथ दुआ को उठे; ऐसे माहौल में अब किस को पराया समझूँ; ज़ुल्म ये है कि है यक्ता तेरी बेगानारवी; लुत्फ़ ये है कि मैं अब तक तुझे अपना समझूँ। |
देख दिल को मेरे ओ काफ़िर-ए-बे-पीर न तोड़; घर है अल्लाह का ये इस की तो तामीर न तोड़; ग़ुल सदा वादी-ए-वहशत में रखूँगा बरपा; ऐ जुनूँ देख मेरे पाँव की ज़ंजीर न तोड़; देख टुक ग़ौर से आईना-ए-दिल को मेरे; इस में आता है नज़र आलम-ए-तस्वीर न तोड़; ताज-ए-ज़र के लिए क्यूँ शमा का सर काटे है; रिश्ता-ए-उल्फ़त-ए-परवाना को गुल-गीर न तोड़; अपने बिस्मिल से ये कहता था दम-ए-नज़ा वो शोख़; था जो कुछ अहद सो ओ आशिक़-ए-दिल-गीर न तोड़; सहम कर ऐ 'ज़फ़र' उस शोख़ कमाँ-दार से कह; खींच कर देख मेरे सीने से तू तीर न तोड़। |
कितनी पी कैसे कटी रात... कितनी पी कैसे कटी रात मुझे होश नहीं; रात के साथ गई बात मुझे होश नहीं; मुझको ये भी नहीं मालूम कि जाना है कहाँ; थाम ले कोई मेरा हाथ मुझे होश नहीं; आँसुओं और शराबों में गुजारी है हयात; मैं ने कब देखी थी बरसात मुझे होश नहीं; जाने क्या टूटा है पैमाना कि दिल है मेरा; बिखरे-बिखरे हैं खयालात मुझे होश नहीं। |
जहाँ में हाल मेरा... जहाँ में हाल मेरा इस क़दर ज़बून हुआ; कि मुझ को देख के बिस्मिल को भी सुकून हुआ; ग़रीब दिल ने बहुत आरज़ूएँ पैदा कीं; मगर नसीब का लिक्खा कि सब का ख़ून हुआ; वो अपने हुस्न से वाक़िफ़ मैं अपनी अक़्ल से सैर; उन्हों ने होश सँभाला मुझे जुनून हुआ; उम्मीद-ए-चश्म-ए-मुरव्वत कहाँ रही बाक़ी; ज़रिया बातों का जब सिर्फ़ टेलीफ़ोन हुआ; निगाह-ए-गर्म क्रिसमस में भी रही हम पर; हमारे हक़ में दिसम्बर भी माह-ए-जून हुआ। |
हर जनम में.... हर जनम में उसी की चाहत थे; हम किसी और की अमानत थे; उसकी आँखों में झिलमिलाती हुई; हम ग़ज़ल की कोई अलामत थे; तेरी चादर में तन समेट लिया; हम कहाँ के दराज़क़ामत थे; जैसे जंगल में आग लग जाये; हम कभी इतने ख़ूबसूरत थे; पास रहकर भी दूर-दूर रहे; हम नये दौर की मोहब्बत थे; इस ख़ुशी में मुझे ख़याल आया; ग़म के दिन कितने ख़ूबसूरत थे दिन में इन जुगनुओं से क्या लेना; ये दिये रात की ज़रूरत थे। |