कोई बिजली इन ख़राबों में घटा रौशन करे; ऐ अँधेरी बस्तियो! तुमको खुदा रौशन करे; नन्हें होंठों पर खिलें मासूम लफ़्ज़ों के गुलाब; और माथे पर कोई हर्फ़-ए-दुआ रौशन करे; ज़र्द चेहरों पर भी चमके सुर्ख जज़्बों की धनक; साँवले हाथों को भी रंग-ए-हिना रौशन करे; एक लड़का शहर की रौनक़ में सब कुछ भूल जाए; एक बुढ़िया रोज़ चौखट पर दिया रौशन करे; ख़ैर अगर तुम से न जल पाएँ वफाओं के चिराग; तुम बुझाना मत जो कोई दूसरा रौशन करे। |
तेरा चेहरा सुब्ह का तारा लगता है; सुब्ह का तारा कितना प्यारा लगता है; तुम से मिल कर इमली मीठी लगती है; तुम से बिछड़ कर शहद भी खारा लगता है; रात हमारे साथ तू जागा करता है; चाँद बता तू कौन हमारा लगता है; किस को खबर ये कितनी कयामत ढाता है; ये लड़का जो इतना बेचारा लगता है; तितली चमन में फूल से लिपटी रहती है; फिर भी चमन में फूल कँवारा लगता है; 'कैफ' वो कल का 'कैफ' कहाँ है आज मियाँ; ये तो कोई वक्त का मारा लगता है। |
नज़र फ़रेब-ए-कज़ा खा गई तो क्या होगा; हयात मौत से टकरा गई तो क्या होगा; नई सहर के बहुत लोग मुंतज़िर हैं मगर; नई सहर भी कजला गई तो क्या होगा; न रहनुमाओं की मजलिस में ले चलो मुझको; मैं बे-अदब हूँ हँसी आ गई तो क्या होगा; ग़म-ए-हयात से बेशक़ है ख़ुदकुशी आसाँ; मगर जो मौत भी शर्मा गई तो क्या होगा; शबाब-ए-लाला-ओ-गुल को पुकारनेवालों; ख़िज़ाँ-सिरिश्त बहार आ गई तो क्या होगा; ख़ुशी छीनी है तो ग़म का भी ऐतमाद न कर; जो रूह ग़म से भी उकता गई तो क्या होगा। |
तेरे कमाल की हद... तेरे कमाल की हद कब कोई बशर समझा; उसी क़दर उसे हैरत है, जिस क़दर समझा; कभी न बन्दे-क़बा खोल कर किया आराम; ग़रीबख़ाने को तुमने न अपना घर समझा; पयामे-वस्ल का मज़मूँ बहुत है पेचीदा; कई तरह इसी मतलब को नामाबर समझा; न खुल सका तेरी बातों का एक से मतलब; मगर समझने को अपनी-सी हर बशर समझा। |
मेरी रातों की राहत, दिन के इत्मिनान ले जाना; तुम्हारे काम आ जायेगा, यह सामान ले जाना; तुम्हारे बाद क्या रखना अना से वास्ता कोई; तुम अपने साथ मेरा उम्र भर का मान ले जाना; शिकस्ता के कुछ रेज़े पड़े हैं फर्श पर, चुन लो; अगर तुम जोड़ सको तो यह गुलदान ले जाना; तुम्हें ऐसे तो खाली हाथ रुखसत कर नहीं सकते; पुरानी दोस्ती है, की कुछ पहचान ले जाना; इरादा कर लिया है तुमने गर सचमुच बिछड़ने का; तो फिर अपने यह सारे वादा-ओ-पैमान ले जाना; अगर थोड़ी बहुत है, शायरी से उनको दिलचस्पी; तो उनके सामने मेरा यह दीवान ले जाना। |
बुझी नज़र तो करिश्मे भी रोज़ो शब के गये; कि अब तलक नही पलटे हैं लोग कब के गये; करेगा कौन तेरी बेवफ़ाइयों का गिला; यही है रस्मे ज़माना तो हम भी अब के गये; मगर किसी ने हमें हमसफ़र नही जाना; ये और बात कि हम साथ साथ सब के गये; अब आये हो तो यहाँ क्या है देखने के लिए; ये शहर कब से है वीरां वो लोग कब के गये; गिरफ़्ता दिल थे मगर हौसला नहीं हारा; गिरफ़्ता दिल है मगर हौंसले भी अब के गये; तुम अपनी शम्ऐ-तमन्ना को रो रहे हो 'फ़राज़'; इन आँधियों में तो प्यारे चिराग सब के गये। |
भड़का रहे हैं आग... भड़का रहे हैं आग लब-ए-नग़्मागार से हम; ख़ामोश क्या रहेंगे ज़माने के डर से हम; कुछ और बड़ गए अंधेरे तो क्या हुआ; मायूस तो नहीं हैं तुलु-ए-सहर से हम; ले दे के अपने पास फ़क़त एक नज़र तो है; क्यों देखें ज़िंदगी को किसी की नज़र से हम माना कि इस ज़मीं को न गुलज़ार कर सके; कुछ ख़ार कम कर गए गुज़रे जिधर से हम। |
फिर उसके जाते ही दिल सुनसान हो कर रह गया; अच्छा भला इक शहर वीरान हो कर रह गया; हर नक्श बतल हो गया अब के दयार-ए-हिज्र में; इक ज़ख्म गुज़रे वक्त की पहचान हो कर रह गया; रुत ने मेरे चारों तरफ खींचें हिसार-ए-बाम-ओ-दर; यह शहर फिर मेरे लिए ज़ान्दान हो कर रह गया; कुछ दिन मुझे आवाज़ दी लोगों ने उस के नाम से; फिर शहर भर में वो मेरी पहचान हो कर रह गया; इक ख्वाब हो कर रह गई गुलशन से अपनी निस्बतें; दिल रेज़ा रेज़ा कांच का गुलदान हो कर रह गया; ख्वाहिश तो थी "साजिद" मुझे तशीर-ए-मेहर-ओ-माह की; लेकिन फ़क़त मैं साहिब-ए-दीवान हो कर रह गया। |
कहाँ ले जाऊँ दिल... कहाँ ले जाऊँ दिल दोनों जहाँ में इसकी मुश्किल है; यहाँ परियों का मजमा है, वहाँ हूरों की महफ़िल है; इलाही कैसी-कैसी सूरतें तूने बनाई हैं; के हर सूरत कलेजे से लगा लेने के क़ाबिल है; ये दिल लेते ही शीशे की तरह पत्थर पे दे मारा; मैं कहता रह गया ज़ालिम मेरा दिल है, मेरा दिल; है जो देखा अक्स आईने में अपना बोले झुंजलाकर; अरे तू कौन है, हट सामने से क्यों मुक़ाबिल है; हज़ारों दिल मसल कर पांओ से झुंजला के फ़रमाया; लो पहचानो तुम्हारा इन दिलों में कौन सा दिल है। |
तबीयत इन दिनों बेगा़ना-ए-ग़म होती जाती है; मेरे हिस्से की गोया हर ख़ुशी कम होती जाती है; क़यामत क्या ये अय हुस्न-ए-दो आलम होती जाती है; कि महफ़िल तो वही है, दिलकशी कम होती जाती है; वही मैख़ाना-ओ-सहबा वही साग़र वही शीशा; मगर आवाज़-ए-नौशानोश मद्धम होती जाती है; वही है शाहिद-ओ-साक़ी मगर दिल बुझता जाता है; वही है शमः लेकिन रोशनी कम होती जाती है; वही है ज़िन्दगी अपनी 'जिगर' ये हाल है अपना; कि जैसे ज़िन्दगी से ज़िन्दगी कम होती जाती है। |