बना कर फ़क़ीरों का हम भेस ग़ालिब; तमाशा-ए-अहल-ए-करम देख़ते हैं! |
उठकर तो आ गये हैं तेरी बज़्म से मगर; कुछ दिल ही जानता है कि किस दिल से आये हैं! |
पूरा भी हो के जो कभी पूरा ना हो सका; तेरी निगाह का वो तक़ाज़ा है आज तक! |
हर शख्स गुनाहगार है कुदरत के कत्ल में; ये हवाएं जहरीली यूँ ही नहीं हुई! |
तेरी महफ़िल से उठे तो किसी को खबर तक ना थी; तेरा मुड़-मुड़ कर देखना हमें बदनाम कर गया! |
बाग़ में ले के जन्म हम ने असीरी झेली; हम से अच्छे रहे जंगल में जो आज़ाद रहे! |
ख़ुदी वो बहर है जिस का कोई किनारा नहीं; तू आबजू इसे समझा अगर तो चारा नहीं! |
मेरी फितरत को क्या समझेंगे ये ख्वाब-ए-गर्दाँ वाले; सवेरे के सितारे की चमक है राज़दाँ मेरी! |
अच्छा है दिल के साथ रहे पासबान-ए-अक़्ल; लेकिन कभी-कभी इसे तन्हा भी छोड़ दे! पासबान-ए-अक़्ल: बुद्धी का निरीक्षक, Guardian of the mind, Intution |
दर पे रहने को कहा और कह के कैसा फिर गया; जितने अर्से में मेरा लिपटा हुआ बिस्तर खुला! |