ये किस ने कह दिया आख़िर कि छुप-छुपा के पियो, ये मय है मय उसे औरों को भी पिला के पियो; ग़म-ए-जहाँ को ग़म-ए-ज़ीस्त को भुला के पियो, हसीन गीत मोहब्बत के गुनगुना के पियो! *मय: शराब |
शब को मय ख़ूब पी, सुबह को तौबा कर ली; रिंद के रिंद रहे हाथ से जन्नत न गई। |
इजाज़त हो तो मैं तस्दीक़ कर लूँ तेरी ज़ुल्फ़ों से; सुना है ज़िंदगी इक ख़ूबसूरत दाम है साक़ी! *तस्दीक़: सच्चे होने की ताईद करना, सच्चा बताना |
शब जो हम से हुआ माफ़ करो; नहीं पी थी बहक गए होंगे! |
कभी उन मद-भरी आँखों से पिया था इक जाम; आज तक होश नहीं होश नहीं होश नहीं! |
आलम से बे-ख़बर भी हूँ आलम में भी हूँ मैं; साक़ी ने इस मक़ाम को आसाँ बना दिया! *आलम : दुनिया |
पीता हूँ जितनी उतनी ही बढ़ती है तिश्नगी; साक़ी ने जैसे प्यास मिला दी शराब में! *तिश्नगी: प्यास |
नशा था ज़िंदगी का शराबों से तेज़-तर; हम गिर पड़े तो मौत उठा ले गई हमें! |
साक़ी मुझे शराब की तोहमत नहीं पसंद; मुझ को तेरी निग़ाह का इल्ज़ाम चाहिए! |
लोग कहते हैं रात बीत चुकी; मुझ को समझाओ, मैं शराबी हूँ! |