हर चीज़ ज़माने की जहाँ पर थी वहीं है, एक तू ही नहीं है; नज़रें भी वही और नज़ारे भी वही हैं, ख़ामोश फ़ज़ाओं के इशारे भी वही हैं, कहने को तो सब कुछ है, मगर कुछ भी नहीं है; हर अश्क में खोई हुई ख़ुशियों की झलक है, हर साँस में बीती हुई घड़ियों की कसक है, तू चाहे कहीं भी हो, तेरा दर्द यहीं है; हसरत नहीं, अरमान नहीं, आस नहीं है, यादों के सिवा कुछ भी मेरे पास नहीं है, यादें भी रहें या न रहें किसको यक़ीं है। |
रात के ख्वाब सुनाए किस को रात के ख्वाब सुहाने थे; धुंधले धुंधले चेहरे थे पर सब जाने पहचाने थे; जिद्दी वहशी अल्हड़ चंचल मीठे लोग रसीले लोग; होंठ उन के ग़ज़लों के मिसरे आंखों में अफ़साने थे; ये लड़की तो इन गलियों में रोज़ ही घूमा करती थी; इस से उन को मिलना था तो इस के लाख बहाने थे; हम को सारी रात जगाया जलते बुझते तारों ने; हम क्यूं उन के दर पे उतरे कितने और ठिकाने थे; वहशत की उन्वान हमारी इन में से जो नार बनी; देखेंगे तो लोग कहेंगे 'इन्शा' जी दीवाने थे। |
बेचैन बहारों में क्या-क्या है जान की ख़ुश्बू आती है; जो फूल महकता है उससे तूफ़ान की ख़ुश्बू आती है; कल रात दिखा के ख़्वाब-ए-तरब जो सेज को सूना छोड़ गया; हर सिलवट से फिर आज उसी मेहमान की ख़ुश्बू आती है; तल्कीन-ए-इबादत की है मुझे यूँ तेरी मुक़द्दस आँखों ने; मंदिर के दरीचों से जैसे लोबान की ख़ुश्बू आती है; कुछ और भी साँसें लेने पर मजबूर-सा मैं हो जाता हूँ; जब इतने बड़े जंगल में किसी इंसान की ख़ुश्बू आती है; डरता हूँ कहीं इस आलम में जीने से न मुनकिर हो जाऊँ; अहबाब की बातों से मुझको एहसान की ख़ुश्बू आती है। |
हर एक चेहरा यहाँ पर गुलाल होता है; हमारे शहर में पत्थर भी लाल होता है; मैं शोहरतों की बुलंदी पर जा नहीं सकता; जहाँ उरूज पर पहुँचो ज़वाल होता है; मैं अपने बच्चों को कुछ भी तो दे नहीं पाया; कभी-कभी मुझे ख़ुद भी मलाल होता है; यहीं से अमन की तबलीग रोज़ होती है; यहीं पे रोज़ कबूतर हलाल होता है; मैं अपने आप को सय्यद तो लिख नहीं सकता; अजान देने से कोई बिलाल होता है; पड़ोसियों की दुकानें तक नहीं खुलतीं; किसी का गाँव में जब इन्तिकाल होता है। |
दिलों में आग लबों पर गुलाब रखते हैं; सब अपने चेहरों पे दोहरी नका़ब रखते हैं; हमें चराग समझ कर बुझा न पाओगे; हम अपने घर में कई आफ़ताब रखते हैं; बहुत से लोग कि जो हर्फ़-आश्ना भी नहीं; इसी में खुश हैं कि तेरी किताब रखते हैं; ये मैकदा है, वो मस्जिद है, वो है बुत-खाना; कहीं भी जाओ फ़रिश्ते हिसाब रखते हैं; हमारे शहर के मंजर न देख पायेंगे; यहाँ के लोग तो आँखों में ख्वाब रखते हैं। |
बहुत मिला न मिला ज़िन्दगी से ग़म क्या है; मता-ए-दर्द बहम है तो बेश-ओ-कम क्या है; हम एक उम्र से वाक़िफ़ हैं अब न समझाओ; के लुत्फ़ क्या है मेरे मेहरबाँ सितम क्या है; करे न जग में अलाव तो शेर किस मक़सद; करे न शहर में जल-थल तो चश्म-ए-नम क्या है; अजल के हाथ कोई आ रहा है परवाना; न जाने आज की फ़ेहरिस्त में रक़म क्या है; सजाओ बज़्म ग़ज़ल गाओ जाम ताज़ा करो; बहुत सही ग़म-ए-गेती शराब कम क्या है; लिहाज़ में कोई कुछ दूर साथ चलता है; वरना दहर में अब ख़िज़्र का भरम क्या है। |
आँखों से मेरे इस लिए लाली नहीं जाती; यादों से कोई रात खा़ली नहीं जाती; अब उम्र, ना मौसम, ना रास्ते के वो पत्ते; इस दिल की मगर ख़ाम ख़्याली नहीं जाती; माँगे तू अगर जान भी तो हँस कर तुझे दे दूँ; तेरी तो कोई बात भी टाली नहीं जाती; मालूम हमें भी हैं बहुत से तेरे क़िस्से; पर बात तेरी हमसे उछाली नहीं जाती; हमराह तेरे फूल खिलाती थी जो दिल में; अब शाम वहीं दर्द से ख़ाली नहीं जाती; हम जान से जाएंगे तभी बात बनेगी; तुमसे तो कोई बात निकाली नहीं जाती। |
रेत की सूरत जाँ प्यासी थी आँख हमारी नम न हुई; तेरी दर्द-गुसारी से भी रूह की उलझन कम न हुई; शाख़ से टूट के बे-हुरमत हैं वैसे बे-हुरमत थे; हम गिरते पत्तों पे मलामत कब मौसम मौसम न हुई; नाग-फ़नी सा शोला है जो आँखों में लहराता है; रात कभी हम-दम न बनी और नींद कभी मरहम न हुई; अब यादों की धूप छाँव में परछाईं सा फिरता हूँ; मैंने बिछड़ कर देख लिया है दुनिया नरम क़दम न हुई; मेरी सहरा-ज़ाद मोहब्बत अब्र-ए-सियह को ढूँडती है; एक जनम की प्यासी थी इक बूँद से ताज़ा-दम न हुई। |
तुझे खोकर भी तुझे पाऊं जहाँ तक देखूँ; हुस्न-ए-यज़्दां से तुझे हुस्न-ए-बुतां तक देखूं; तूने यूं देखा है जैसे कभी देखा ही न था; मैं तो दिल में तेरे क़दमों के निशां तक देखूँ; सिर्फ़ इस शौक़ में पूछी हैं हज़ारों बातें; मै तेरा हुस्न तेरे हुस्न-ए-बयां तक देखूँ; वक़्त ने ज़ेहन में धुंधला दिये तेरे खद्द-ओ-खाल; यूं तो मैं तूटते तारों का धुआं तक देखूँ; दिल गया था तो ये आँखें भी कोई ले जाता; मैं फ़क़त एक ही तस्वीर कहाँ तक देखूँ; एक हक़ीक़त सही फ़िरदौस में हूरों का वजूद; हुस्न-ए-इन्सां से निपट लूं तो वहाँ तक देखूँ। |
कभी क़रीब कभी दूर हो के रोते हैं; मोहब्बतों के भी मौसम अजीब होते हैं; ज़िहानतों को कहाँ वक़्त ख़ूँ बहाने का; हमारे शहर में किरदार क़त्ल होते हैं; फ़ज़ा में हम ही बनाते हैं आग के मंज़र; समंदरों में हमीं कश्तियाँ डुबोते हैं; पलट चलें के ग़लत आ गए हमीं शायद; रईस लोगों से मिलने के वक़्त होते हैं; मैं उस दियार में हूँ बे-सुकून बरसों से; जहाँ सुकून से अजदाद मेरे सोते हैं; गुज़ार देते हैं उम्रें ख़ुलूस की ख़ातिर; पुराने लोग भी 'अज़हर' अजीब होते हैं। |