ग़ज़ल Hindi Shayari

  • मैं बुरा ही सही भला न सही;
    पर तेरी कौन सी जफ़ा न सही;

    दर्द-ए-दिल हम तो उन से कह गुज़रे;
    गर उन्हों ने नहीं सुना न सही;

    शब-ए-ग़म में बला से शुग़ल तो है;
    नाला-ए-दिल मेरा रसा न सही;

    दिल भी अपना नहीं रहा न रहे;
    ये भी ऐ चर्ख़-ए-फ़ित्ना-ज़ा न सही;

    क्यूँ बुरा मानते हो शिकवा मेरा;
    चलो बे-जा सही ब-जा न सही;

    उक़दा-ए-दिल हमारा या क़िस्मत;
    न खुला तुझ से ऐ सबा न सही;

    वाइज़ो बंद-ए-ख़ुदा तो है 'ऐश';
    हम ने माना वो पारसा न सही।
    ~ Aish Dehlvi
  • खुलेगी इस नज़र पे...

    खुलेगी इस नज़र पे चश्म-ए-तर आहिस्ता आहिस्ता;
    किया जाता है पानी में सफ़र आहिस्ता आहिस्ता;

    कोई ज़ंजीर फिर वापस वहीं पर ले के आती है;
    कठिन हो राह तो छूटता है घर आहिस्ता आहिस्ता;

    बदल देना है रास्ता या कहीं पर बैठ जाना है;
    कि थकता जा रहा है हमसफ़र आहिस्ता आहिस्ता;

    ख़लिश के साथ इस दिल से न मेरी जाँ निकल जाये;
    खिंचे तीर-ए-शनासाई मगर आहिस्ता आहिस्ता;

    मेरी शोला-मिज़ाजी को वो जंगल कैसे रास आये;
    हवा भी साँस लेती हो जिधर आहिस्ता आहिस्ता।
    ~ Parveen Shakir
  • तू इस क़दर मुझे...

    तू इस क़दर मुझे अपने क़रीब लगता है;
    तुझे अलग से जो सोचू अजीब लगता है;

    जिसे ना हुस्न से मतलब ना इश्क़ से सरोकार;
    वो शख्स मुझ को बहुत बदनसीब लगता है;

    हदूद-ए-जात से बाहर निकल के देख ज़रा;
    ना कोई गैर, ना कोई रक़ीब लगता है;

    ये दोस्ती, ये मरासिम, ये चाहते ये खुलूस;
    कभी कभी ये सब कुछ अजीब लगता है;

    उफक़ पे दूर चमकता हुआ कोई तारा;
    मुझे चिराग-ए-दयार-ए-हबीब लगता है;

    ना जाने कब कोई तूफान आयेगा यारो;
    बलंद मौज से साहिल क़रीब लगता है।
    ~ Jaan Nisar Akhtar
  • जागती रात अकेली...

    जागती रात अकेली-सी लगे;
    ज़िंदगी एक पहेली-सी लगे;

    रुप का रंग-महल, ये दुनिया;
    एक दिन सूनी हवेली-सी लगे;

    हम-कलामी तेरी ख़ुश आए उसे;
    शायरी तेरी सहेली-सी लगे;

    मेरी इक उम्र की साथी ये ग़ज़ल;
    मुझ को हर रात नवेली-सी लगे;

    रातरानी सी वो महके ख़ामोशी;
    मुस्कुरादे तो चमेली-सी लगे;

    फ़न की महकी हुई मेंहदी से रची;
    ये बयाज़ उस की हथेली-सी लगे।

    ~ Abdul Ahad Saaz
  • यहाँ किसी को भी कुछ हस्ब-ए-आरज़ू न मिला;
    किसी को हम न मिले और हम को तू न मिला;

    ग़ज़ाल-ए-अश्क सर-ए-सुब्ह दूब-ए-मिज़गाँ पर;
    कब आँख अपनी खुली और लहू लहू न मिला;

    चमकते चाँद भी थे शहर-ए-शब के ऐवाँ में;
    निगार-ए-ग़म सा मगर कोई शम्मा-रू न मिला;

    उन्ही की रम्ज़ चली है गली गली में यहाँ;
    जिन्हें उधर से कभी इज़्न-ए-गुफ़्तुगू न मिला;

    फिर आज मय-कदा-ए-दिल से लौट आए हैं;
    फिर आज हम को ठिकाने का हम-सबू न मिला।
    ~ Zafar Iqbal
  • महक उठा है आँगन...

    महक उठा है आँगन इस ख़बर से;
    वो ख़ुशबू लौट आई है सफ़र से;

    जुदाई ने उसे देखा सर-ए-बाम;
    दरीचे पर शफ़क़ के रंग बरसे;

    मैं इस दीवार पर चढ़ तो गया था;
    उतारे कौन अब दीवार पर से;

    गिला है एक गली से शहर-ए-दिल की;
    मैं लड़ता फिर रहा हूँ शहर भर से;

    उसे देखे ज़माने भर का ये चाँद;
    हमारी चाँदनी छाए तो तरसे;

    मेरे मानन गुज़रा कर मेरी जान;
    कभी तू खुद भी अपनी रहगुज़र से।
    ~ Jon Elia
  • ये जो है हुक़्म मेरे पास न आए कोई;
    इसलिए रूठ रहे हैं कि मनाए कोई;

    ये न पूछो कि ग़म-ए-हिज्र में कैसी गुज़री;
    दिल दिखाने का हो तो दिखाए कोई;

    हो चुका ऐश का जलसा तो मुझे ख़त पहुँचा;
    आपकी तरह से मेहमान बुलाए कोई;

    तर्क-ए-बेदाद की तुम दाद न पाओ मुझसे;
    करके एहसान, न एहसान जताए कोई;

    क्यों वो मय-दाख़िल-ए-दावत ही नहीं ऐ वाइज़;
    मेहरबानी से बुलाकर जो पिलाए कोई;

    सर्द -मेहरी से ज़माने के हुआ है दिल सर्द;
    रखकर इस चीज़ को क्या आग लगाए कोई;

    आपने दाग़ को मुँह भी न लगाया, अफ़सोस;
    उसको रखता था कलेजे से लगाए कोई।
    ~ Daagh Dehlvi
  • जिन्दगी में दो मिनट

    जिन्दगी में दो मिनट कोई मेरे पास न बैठा;
    आज सब मेरे पास बैठे जा रहे थे;

    कोई तोहफा ना मिला आज तक मुझे;
    और आज फूल ही फूल दिए जा रहे थे;

    तरस गया मैं किसी के हाथ से दिए एक कपडे को;
    और आज नये-नये कपडे ओढ़ाए जा रहे थे;

    दो कदम साथ ना चलने वाले;
    आज काफिला बन कर चले जा रहे थे;

    आज पता चला कि मौत कितनी हसीन होती है;
    हम तो अब तक यूँ ही जिए जा रहे थे।
  • कभी अकेले में मिल...

    ​कभी अकेले में मिल कर झंझोड़ दूंगा उसे​;
    ​जहाँ​-​जहाँ से वो टूटा है​ ​जोड़ दूंगा उसे;​​

    ​​​ ​मुझे छोड़ गया ​ ​ये कमाल है​ ​उस का​;
    ​इरादा मैंने किया था के छोड़ दूंगा उसे​;

    ​पसीने बांटता फिरता है हर तरफ सूरज​;
    ​कभी जो हाथ लगा तो निचोड़ दूंगा उसे​;

    ​ ​मज़ा चखा के ही माना हूँ ​मैं भी दुनिया को​;
    ​समझ रही थी के ऐसे ही ​छोड़ दूंगा उसे​;

    ​ ​बचा के रखता है​ खुद को वो मुझ से शीशाबदन​;​
    उसे ये डर है के तोड़​-​फोड़ दूंगा उसे​।
    ~ Rahat Indori
  • ज़रा-सी देर में...

    ज़रा-सी देर में दिलकश नज़ारा डूब जायेगा;
    ये सूरज देखना सारे का सारा डूब जायेगा;
    न जाने फिर भी क्यों साहिल पे तेरा नाम लिखते हैं;
    हमें मालूम है इक दिन किनारा डूब जायेगा;

    सफ़ीना हो के हो पत्थर, हैं हम अंज़ाम से वाक़िफ़;
    तुम्हारा तैर जायेगा हमारा डूब जायेगा;

    समन्दर के सफर में किस्मतें पहलू बदलती हैं;
    अगर तिनके का होगा तो सहारा डूब जायेगा;

    मिसालें दे रहे थे लोग जिसकी कल तलक हमको;
    किसे मालूम था वो भी सितारा डूब जायेगा।