ग़ज़ल Hindi Shayari

  • हर चीज़ ज़माने की जहाँ पर थी वहीं है,
    एक तू ही नहीं है;

    नज़रें भी वही और नज़ारे भी वही हैं,
    ख़ामोश फ़ज़ाओं के इशारे भी वही हैं,
    कहने को तो सब कुछ है, मगर कुछ भी नहीं है;

    हर अश्क में खोई हुई ख़ुशियों की झलक है,
    हर साँस में बीती हुई घड़ियों की कसक है,
    तू चाहे कहीं भी हो, तेरा दर्द यहीं है;

    हसरत नहीं, अरमान नहीं, आस नहीं है,
    यादों के सिवा कुछ भी मेरे पास नहीं है,
    यादें भी रहें या न रहें किसको यक़ीं है।
    ~ Sahir Ludhianvi
  • रात के ख्वाब सुनाए किस को रात के ख्वाब सुहाने थे;
    धुंधले धुंधले चेहरे थे पर सब जाने पहचाने थे;

    जिद्दी वहशी अल्हड़ चंचल मीठे लोग रसीले लोग;
    होंठ उन के ग़ज़लों के मिसरे आंखों में अफ़साने थे;

    ये लड़की तो इन गलियों में रोज़ ही घूमा करती थी;
    इस से उन को मिलना था तो इस के लाख बहाने थे;

    हम को सारी रात जगाया जलते बुझते तारों ने;
    हम क्यूं उन के दर पे उतरे कितने और ठिकाने थे;

    वहशत की उन्वान हमारी इन में से जो नार बनी;
    देखेंगे तो लोग कहेंगे 'इन्शा' जी दीवाने थे।
    ~ Ibn-e-Insha
  • बेचैन बहारों में क्या-क्या है जान की ख़ुश्बू आती है;
    जो फूल महकता है उससे तूफ़ान की ख़ुश्बू आती है;

    कल रात दिखा के ख़्वाब-ए-तरब जो सेज को सूना छोड़ गया;
    हर सिलवट से फिर आज उसी मेहमान की ख़ुश्बू आती है;

    तल्कीन-ए-इबादत की है मुझे यूँ तेरी मुक़द्दस आँखों ने;
    मंदिर के दरीचों से जैसे लोबान की ख़ुश्बू आती है;

    कुछ और भी साँसें लेने पर मजबूर-सा मैं हो जाता हूँ;
    जब इतने बड़े जंगल में किसी इंसान की ख़ुश्बू आती है;

    डरता हूँ कहीं इस आलम में जीने से न मुनकिर हो जाऊँ;
    अहबाब की बातों से मुझको एहसान की ख़ुश्बू आती है।
    ~ Qateel Shifai
  • हर एक चेहरा यहाँ पर गुलाल होता है;
    हमारे शहर में पत्थर भी लाल होता है;

    मैं शोहरतों की बुलंदी पर जा नहीं सकता;
    जहाँ उरूज पर पहुँचो ज़वाल होता है;

    मैं अपने बच्चों को कुछ भी तो दे नहीं पाया;
    कभी-कभी मुझे ख़ुद भी मलाल होता है;

    यहीं से अमन की तबलीग रोज़ होती है;
    यहीं पे रोज़ कबूतर हलाल होता है;

    मैं अपने आप को सय्यद तो लिख नहीं सकता;
    अजान देने से कोई बिलाल होता है;

    पड़ोसियों की दुकानें तक नहीं खुलतीं;
    किसी का गाँव में जब इन्तिकाल होता है।
    ~ Munawwar Rana
  • दिलों में आग लबों पर गुलाब रखते हैं;
    सब अपने चेहरों पे दोहरी नका़ब रखते हैं;

    हमें चराग समझ कर बुझा न पाओगे;
    हम अपने घर में कई आफ़ताब रखते हैं;

    बहुत से लोग कि जो हर्फ़-आश्ना भी नहीं;
    इसी में खुश हैं कि तेरी किताब रखते हैं;

    ये मैकदा है, वो मस्जिद है, वो है बुत-खाना;
    कहीं भी जाओ फ़रिश्ते हिसाब रखते हैं;

    हमारे शहर के मंजर न देख पायेंगे;
    यहाँ के लोग तो आँखों में ख्वाब रखते हैं।
    ~ Rahat Indori
  • बहुत मिला न मिला ज़िन्दगी से ग़म क्या है;
    मता-ए-दर्द बहम है तो बेश-ओ-कम क्या है;

    हम एक उम्र से वाक़िफ़ हैं अब न समझाओ;
    के लुत्फ़ क्या है मेरे मेहरबाँ सितम क्या है;

    करे न जग में अलाव तो शेर किस मक़सद;
    करे न शहर में जल-थल तो चश्म-ए-नम क्या है;

    अजल के हाथ कोई आ रहा है परवाना;
    न जाने आज की फ़ेहरिस्त में रक़म क्या है;

    सजाओ बज़्म ग़ज़ल गाओ जाम ताज़ा करो;
    बहुत सही ग़म-ए-गेती शराब कम क्या है;

    लिहाज़ में कोई कुछ दूर साथ चलता है;
    वरना दहर में अब ख़िज़्र का भरम क्या है।
    ~ Faiz Ahmad Faiz
  • आँखों से मेरे इस लिए लाली नहीं जाती;
    यादों से कोई रात खा़ली नहीं जाती;

    अब उम्र, ना मौसम, ना रास्‍ते के वो पत्‍ते;
    इस दिल की मगर ख़ाम ख्‍़याली नहीं जाती;

    माँगे तू अगर जान भी तो हँस कर तुझे दे दूँ;
    तेरी तो कोई बात भी टाली नहीं जाती;

    मालूम हमें भी हैं बहुत से तेरे क़िस्से;
    पर बात तेरी हमसे उछाली नहीं जाती;

    हमराह तेरे फूल खिलाती थी जो दिल में;
    अब शाम वहीं दर्द से ख़ाली नहीं जाती;

    हम जान से जाएंगे तभी बात बनेगी;
    तुमसे तो कोई बात निकाली नहीं जाती।
    ~ Syed Wasi Shah
  • रेत की सूरत जाँ प्यासी थी आँख हमारी नम न हुई;
    तेरी दर्द-गुसारी से भी रूह की उलझन कम न हुई;

    शाख़ से टूट के बे-हुरमत हैं वैसे बे-हुरमत थे;
    हम गिरते पत्तों पे मलामत कब मौसम मौसम न हुई;

    नाग-फ़नी सा शोला है जो आँखों में लहराता है;
    रात कभी हम-दम न बनी और नींद कभी मरहम न हुई;

    अब यादों की धूप छाँव में परछाईं सा फिरता हूँ;
    मैंने बिछड़ कर देख लिया है दुनिया नरम क़दम न हुई;

    मेरी सहरा-ज़ाद मोहब्बत अब्र-ए-सियह को ढूँडती है;
    एक जनम की प्यासी थी इक बूँद से ताज़ा-दम न हुई।
    ~ Saqi Faruqi
  • तुझे खोकर भी तुझे पाऊं जहाँ तक देखूँ;
    हुस्न-ए-यज़्दां से तुझे हुस्न-ए-बुतां तक देखूं;

    तूने यूं देखा है जैसे कभी देखा ही न था;
    मैं तो दिल में तेरे क़दमों के निशां तक देखूँ;

    सिर्फ़ इस शौक़ में पूछी हैं हज़ारों बातें;
    मै तेरा हुस्न तेरे हुस्न-ए-बयां तक देखूँ;

    वक़्त ने ज़ेहन में धुंधला दिये तेरे खद्द-ओ-खाल;
    यूं तो मैं तूटते तारों का धुआं तक देखूँ;

    दिल गया था तो ये आँखें भी कोई ले जाता;
    मैं फ़क़त एक ही तस्वीर कहाँ तक देखूँ;

    एक हक़ीक़त सही फ़िरदौस में हूरों का वजूद;
    हुस्न-ए-इन्सां से निपट लूं तो वहाँ तक देखूँ।
    ~ Ahmad Nadeem Qasmi
  • कभी क़रीब कभी दूर हो के रोते हैं;
    मोहब्बतों के भी मौसम अजीब होते हैं;

    ज़िहानतों को कहाँ वक़्त ख़ूँ बहाने का;
    हमारे शहर में किरदार क़त्ल होते हैं;

    फ़ज़ा में हम ही बनाते हैं आग के मंज़र;
    समंदरों में हमीं कश्तियाँ डुबोते हैं;

    पलट चलें के ग़लत आ गए हमीं शायद;
    रईस लोगों से मिलने के वक़्त होते हैं;

    मैं उस दियार में हूँ बे-सुकून बरसों से;
    जहाँ सुकून से अजदाद मेरे सोते हैं;

    गुज़ार देते हैं उम्रें ख़ुलूस की ख़ातिर;
    पुराने लोग भी 'अज़हर' अजीब होते हैं।
    ~ Azhar Inayati