ग़ज़ल Hindi Shayari

  • अपने चेहरे से...

    अपने चेहरे से जो ज़ाहिर है छुपायें कैसे;
    तेरी मर्ज़ी के मुताबिक नज़र आयें कैसे;

    घर सजाने का तस्सवुर तो बहुत बाद का है;
    पहले ये तय हो कि इस घर को बचायें कैसे;

    क़हक़हा आँख का बरताव बदल देता है;
    हँसने वाले तुझे आँसू नज़र आयें कैसे;

    कोई अपनी ही नज़र से तो हमें देखेगा;
    एक क़तरे को समुन्दर नज़र आयें कैसे।
    ~ Wasim Barelvi
  • मोहब्बतों में दिखावे की...

    मोहब्बतों में दिखावे की दोस्ती ना मिला;
    अगर गले नहीं मिलता तो हाथ भी ना मिला;

    घरों पे नाम थे, नामों के साथ ओहदे थे;
    बहुत तलाश किया कोई आदमी ना मिला;

    तमाम रिश्तों को मैं घर पे छोड आया था;
    फिर इसके बाद मुझे कोई अजनबी ना मिला;

    बहुत अजीब है ये कुरबतों की दूरी भी;
    वो मेरे साथ रहा और मुझे कभी ना मिला;

    खुदा की इतनी बड़ी कायनात में मैंने;
    बस एक शख्स को मांगा मुझे वही ना मिला।
    ~ Bashir Badr
  • ये ठीक है कि...

    ये ठीक है कि तेरी गली में न आयें हम;
    लेकिन ये क्या कि शहर तेरा छोड़ जाएँ हम;

    मुद्दत हुई है कूए बुताँ की तरफ़ गए;
    आवारगी से दिल को कहाँ तक बचाएँ हम;

    शायद बकैदे-जीस्त ये साअत न आ सके;
    तुम दास्ताने-शौक़ सुनो और सुनाएँ हम;

    उसके बगैर आज बहुत जी उदास है;
    'जालिब' चलो कहीं से उसे ढूँढ लायें हम।
    ~ Habib Jalib
  • बंद आँखों से न हुस्न-ए-शब का अंदाज़ा लगा;
    महमिल-ए-दिल से निकल सर को हवा ताज़ा लगा;

    देख रह जाए न तू ख़्वाहिश के गुम्बद में असीर;
    घर बनाता है तो सब से पहले दरवाज़ा लगा;

    हाँ समंदर में उतर लेकिन उभरने की भी सोच;
    डूबने से पहले गहराई का अंदाज़ा लगा;

    हर तरफ़ से आएगा तेरी सदाओं का जवाब;
    चुप के चंगुल से निकल और एक आवाज़ा लगा;

    सर उठा कर चलने की अब याद भी बाक़ी नहीं;
    मेरे झुकने से मेरी ज़िल्लत का अंदाज़ा लगा;

    रहम खा कर 'अर्श' उस ने इस तरफ़ देखा मगर;
    ये भी दिल दे बैठने का मुझ को ख़मियाज़ा लगा।
    ~ Arsh Siddique
  • दिल को क्या हो गया...

    दिल को क्या हो गया ख़ुदा जाने;
    क्यों है ऐसा उदास क्या जाने;

    कह दिया मैंने हाल-ए-दिल अपना;
    इस को तुम जानो या ख़ुदा जाने;

    जानते जानते ही जानेगा;
    मुझ में क्या है वो अभी क्या जाने;

    तुम न पाओगे सादा दिल मुझसा;
    जो तग़ाफ़ुल को भी हया जाने।
    ~ Daagh Dehlvi
  • आज भड़की रग-ए-वहशत...

    आज भड़की रग-ए-वहशत तेरे दीवानों की;
    क़िस्मतें जागने वाली हैं बयाबानों की;

    फिर घटाओं में है नक़्क़ारा-ए-वहशत की सदा;
    टोलियाँ बंध के चलीं दश्त को दीवानों की;

    आज क्या सूझ रही है तेरे दीवानों को;
    धज्जियाँ ढूँढते फिरते हैं गरेबानों की;

    रूह-ए-मजनूँ अभी बेताब है सहराओं में;
    ख़ाक बे-वजह नहीं उड़ती बयाबानों की;

    उस ने 'एहसान' कुछ इस नाज़ से मुड़ कर देखा;
    दिल में तस्वीर उतर आई परी-ख़ानों की।
    ~ Ehsaan Danish
  • अभी इस तरफ़ न निगाह कर...

    अभी इस तरफ़ न निगाह कर मैं ग़ज़ल की पलकें सँवार लूँ;
    मेरा लफ़्ज़-लफ़्ज़ हो आईना तुझे आईने में उतार लूँ;

    मैं तमाम दिन का थका हुआ, तू तमाम शब का जगा हुआ;
    ज़रा ठहर जा इसी मोड़ पर, तेरे साथ शाम गुज़ार लूँ;

    अगर आसमाँ की नुमाइशों में मुझे भी इज़्न-ए-क़याम हो;
    तो मैं मोतियों की दुकान से तेरी बालियाँ तेरे हार लूँ;

    कई अजनबी तेरी राह के मेरे पास से यूँ गुज़र गये;
    जिन्हें देख कर ये तड़प हुई तेरा नाम लेके पुकार लूँ।
    ~ Bashir Badr
  • बुझी नज़र तो करिश्मे भी रोज़ो शब के गये;
    कि अब तलक नही पलटे हैं लोग कब के गये;

    करेगा कौन तेरी बेवफ़ाइयों का गिला;
    यही है रस्मे ज़माना तो हम भी अब के गये;

    मगर किसी ने हमें हमसफ़र नही जाना;
    ये और बात कि हम साथ साथ सब के गये;

    अब आये हो तो यहाँ क्या है देखने के लिए;
    ये शहर कब से है वीरां वो लोग कब के गये;

    गिरफ़्ता दिल थे मगर हौसला नहीं हारा;
    गिरफ़्ता दिल है मगर हौंसले भी अब के गये;

    तुम अपनी शम्ऐ-तमन्ना को रो रहे हो 'फ़राज़';
    इन आँधियों में तो प्यारे चिराग सब के गये।
    ~ Ahmad Faraz
  • बस एक बार किसी ने गले लगाया था;
    फिर उस के बाद न मैं था न मेरा साया था;

    गली में लोग भी थे मेरे उस के दुश्मन लोग;
    वो सब पे हँसता हुआ मेरे दिल में आया था;

    उस एक दश्त में सौ शहर हो गए आबाद;
    जहाँ किसी ने कभी कारवाँ लुटाया था;

    वो मुझ से अपना पता पूछने को आ निकले;
    कि जिन से मैं ने ख़ुद अपना सुराग़ पाया था;

    उसी ने रूप बदल कर जगा दिया आख़िर;
    जो ज़हर मुझ पे कभी नींद बन के छाया था;

    'ज़फर' की ख़ाक में है किस की हसरत-ए-तामीर;
    ख़याल-ओ-ख़्वाब में किस ने ये घर बनाया था।
    ~ Zafar Iqbal
  • इश्क़ की दुनिया में इक हंगामा बरपा कर दिया;
    ऐ ख़याल-ए-दोस्त ये क्या हो गया क्या कर दिया;

    ज़र्रे ज़र्रे ने मेरा अफ़्साना सुन कर दाद दी;
    मैंने वहशत में जहाँ को तेरा शैदा कर दिया;

    तूर पर राह-ए-वफ़ा में बो दिए काँटे कलीम;
    इश्क़ की वुसअत को मस्दूद-ए-तक़ाज़ा कर दिया;

    बिस्तर-ए-मशरिक़ से सूरज ने उठाया अपना सर;
    किस ने ये महफ़िल में ज़िक्र-ए-हुस्न-ए-यक्ता कर दिया;

    मुद्दा-ए-दिल कहूँ 'एहसान' किस उम्मीद पर;
    वो जो चाहेंगे करेंगे और जो चाहा कर दिया।
    ~ Ehsaan Danish