अपने चेहरे से... अपने चेहरे से जो ज़ाहिर है छुपायें कैसे; तेरी मर्ज़ी के मुताबिक नज़र आयें कैसे; घर सजाने का तस्सवुर तो बहुत बाद का है; पहले ये तय हो कि इस घर को बचायें कैसे; क़हक़हा आँख का बरताव बदल देता है; हँसने वाले तुझे आँसू नज़र आयें कैसे; कोई अपनी ही नज़र से तो हमें देखेगा; एक क़तरे को समुन्दर नज़र आयें कैसे। |
मोहब्बतों में दिखावे की... मोहब्बतों में दिखावे की दोस्ती ना मिला; अगर गले नहीं मिलता तो हाथ भी ना मिला; घरों पे नाम थे, नामों के साथ ओहदे थे; बहुत तलाश किया कोई आदमी ना मिला; तमाम रिश्तों को मैं घर पे छोड आया था; फिर इसके बाद मुझे कोई अजनबी ना मिला; बहुत अजीब है ये कुरबतों की दूरी भी; वो मेरे साथ रहा और मुझे कभी ना मिला; खुदा की इतनी बड़ी कायनात में मैंने; बस एक शख्स को मांगा मुझे वही ना मिला। |
ये ठीक है कि... ये ठीक है कि तेरी गली में न आयें हम; लेकिन ये क्या कि शहर तेरा छोड़ जाएँ हम; मुद्दत हुई है कूए बुताँ की तरफ़ गए; आवारगी से दिल को कहाँ तक बचाएँ हम; शायद बकैदे-जीस्त ये साअत न आ सके; तुम दास्ताने-शौक़ सुनो और सुनाएँ हम; उसके बगैर आज बहुत जी उदास है; 'जालिब' चलो कहीं से उसे ढूँढ लायें हम। |
बंद आँखों से न हुस्न-ए-शब का अंदाज़ा लगा; महमिल-ए-दिल से निकल सर को हवा ताज़ा लगा; देख रह जाए न तू ख़्वाहिश के गुम्बद में असीर; घर बनाता है तो सब से पहले दरवाज़ा लगा; हाँ समंदर में उतर लेकिन उभरने की भी सोच; डूबने से पहले गहराई का अंदाज़ा लगा; हर तरफ़ से आएगा तेरी सदाओं का जवाब; चुप के चंगुल से निकल और एक आवाज़ा लगा; सर उठा कर चलने की अब याद भी बाक़ी नहीं; मेरे झुकने से मेरी ज़िल्लत का अंदाज़ा लगा; रहम खा कर 'अर्श' उस ने इस तरफ़ देखा मगर; ये भी दिल दे बैठने का मुझ को ख़मियाज़ा लगा। |
दिल को क्या हो गया... दिल को क्या हो गया ख़ुदा जाने; क्यों है ऐसा उदास क्या जाने; कह दिया मैंने हाल-ए-दिल अपना; इस को तुम जानो या ख़ुदा जाने; जानते जानते ही जानेगा; मुझ में क्या है वो अभी क्या जाने; तुम न पाओगे सादा दिल मुझसा; जो तग़ाफ़ुल को भी हया जाने। |
आज भड़की रग-ए-वहशत... आज भड़की रग-ए-वहशत तेरे दीवानों की; क़िस्मतें जागने वाली हैं बयाबानों की; फिर घटाओं में है नक़्क़ारा-ए-वहशत की सदा; टोलियाँ बंध के चलीं दश्त को दीवानों की; आज क्या सूझ रही है तेरे दीवानों को; धज्जियाँ ढूँढते फिरते हैं गरेबानों की; रूह-ए-मजनूँ अभी बेताब है सहराओं में; ख़ाक बे-वजह नहीं उड़ती बयाबानों की; उस ने 'एहसान' कुछ इस नाज़ से मुड़ कर देखा; दिल में तस्वीर उतर आई परी-ख़ानों की। |
अभी इस तरफ़ न निगाह कर... अभी इस तरफ़ न निगाह कर मैं ग़ज़ल की पलकें सँवार लूँ; मेरा लफ़्ज़-लफ़्ज़ हो आईना तुझे आईने में उतार लूँ; मैं तमाम दिन का थका हुआ, तू तमाम शब का जगा हुआ; ज़रा ठहर जा इसी मोड़ पर, तेरे साथ शाम गुज़ार लूँ; अगर आसमाँ की नुमाइशों में मुझे भी इज़्न-ए-क़याम हो; तो मैं मोतियों की दुकान से तेरी बालियाँ तेरे हार लूँ; कई अजनबी तेरी राह के मेरे पास से यूँ गुज़र गये; जिन्हें देख कर ये तड़प हुई तेरा नाम लेके पुकार लूँ। |
बुझी नज़र तो करिश्मे भी रोज़ो शब के गये; कि अब तलक नही पलटे हैं लोग कब के गये; करेगा कौन तेरी बेवफ़ाइयों का गिला; यही है रस्मे ज़माना तो हम भी अब के गये; मगर किसी ने हमें हमसफ़र नही जाना; ये और बात कि हम साथ साथ सब के गये; अब आये हो तो यहाँ क्या है देखने के लिए; ये शहर कब से है वीरां वो लोग कब के गये; गिरफ़्ता दिल थे मगर हौसला नहीं हारा; गिरफ़्ता दिल है मगर हौंसले भी अब के गये; तुम अपनी शम्ऐ-तमन्ना को रो रहे हो 'फ़राज़'; इन आँधियों में तो प्यारे चिराग सब के गये। |
बस एक बार किसी ने गले लगाया था; फिर उस के बाद न मैं था न मेरा साया था; गली में लोग भी थे मेरे उस के दुश्मन लोग; वो सब पे हँसता हुआ मेरे दिल में आया था; उस एक दश्त में सौ शहर हो गए आबाद; जहाँ किसी ने कभी कारवाँ लुटाया था; वो मुझ से अपना पता पूछने को आ निकले; कि जिन से मैं ने ख़ुद अपना सुराग़ पाया था; उसी ने रूप बदल कर जगा दिया आख़िर; जो ज़हर मुझ पे कभी नींद बन के छाया था; 'ज़फर' की ख़ाक में है किस की हसरत-ए-तामीर; ख़याल-ओ-ख़्वाब में किस ने ये घर बनाया था। |
इश्क़ की दुनिया में इक हंगामा बरपा कर दिया; ऐ ख़याल-ए-दोस्त ये क्या हो गया क्या कर दिया; ज़र्रे ज़र्रे ने मेरा अफ़्साना सुन कर दाद दी; मैंने वहशत में जहाँ को तेरा शैदा कर दिया; तूर पर राह-ए-वफ़ा में बो दिए काँटे कलीम; इश्क़ की वुसअत को मस्दूद-ए-तक़ाज़ा कर दिया; बिस्तर-ए-मशरिक़ से सूरज ने उठाया अपना सर; किस ने ये महफ़िल में ज़िक्र-ए-हुस्न-ए-यक्ता कर दिया; मुद्दा-ए-दिल कहूँ 'एहसान' किस उम्मीद पर; वो जो चाहेंगे करेंगे और जो चाहा कर दिया। |