ग़ज़ल Hindi Shayari

  • करूँ ना याद मगर किस तरह भुलाऊँ उसे...

    करूँ ना याद मगर किस तरह भुलाऊँ उसे;
    गज़ल बहाना करूँ और गुनगुनाऊँ उसे;

    वो ख़ार-ख़ार है शाख-ए-गुलाब की मानिंद;
    मैं ज़ख़्म-ज़ख़्म हूँ फिर भी गले लगाऊँ उसे;

    ये लोग तज़किरे करते हैं अपने प्यारों के;
    मैं किससे बात करूँ और कहाँ से लाऊँ उसे;

    जो हमसफ़र सरे मंज़िल बिछड़ रहा है 'फ़राज़';
    अजब नहीं है अगर याद भी न आऊँ उसे।
    ~ Ahmad Faraz
  • पुकारती है ख़ामोशी...

    पुकारती है ख़ामोशी मेरी फुगाँ की तरह;
    निग़ाहें कहती हैं सब राज़-ए-दिल ज़ुबाँ की तरह;

    जला के दाग़-ए-मोहब्बत ने दिल को ख़ाक किया;
    बहार आई मेरे बाग़ में खिज़ाँ की तरह;

    तलाश-ए-यार में छोड़ी न सरज़मीं कोई;
    हमारे पाँवों में चक्कर है आसमाँ की तरह;

    छुड़ा दे कैद से ऐ कैद हम असीरों को;
    लगा दे आग चमन में भी आशियाँ की तरह;

    हम अपने ज़ोफ़ के सदके बिठा दिया ऐसा;
    हिले ना दर से तेरे संग-ए-आसताँ की तरह।

    ~ Daagh Dehlvi
  • ऐसे चुप है...

    ऐसे चुप है कि ये मंज़िल भी कड़ी हो जैसे;
    तेरा मिलना भी जुदाई की घड़ी हो जैसे;

    अपने ही साये से हर गाम लरज़ जाता हूँ;
    रास्ते में कोई दीवार खड़ी हो जैसे;

    कितने नादाँ हैं तेरे भूलने वाले कि तुझे;
    याद करने के लिए उम्र पड़ी हो जैसे;

    मंज़िलें दूर भी हैं, मंज़िलें नज़दीक भी हैं;
    अपने ही पाँवों में ज़ंजीर पड़ी हो जैसे;

    आज दिल खोल के रोए हैं तो यों खुश हैं 'फ़राज़';
    चंद लमहों की ये राहत भी बड़ी हो जैसे।
    ~ Ahmad Faraz
  • साकी शराब ला...

    साकी शराब ला कि तबीयत उदास है;
    मुतरिब रबाब उठा कि तबीयत उदास है;

    चुभती है कल वो जाम-ए-सितारों की रोशनी;
    ऐ चाँद डूब जा कि तबीयत उदास है;

    शायद तेरे लबों की चटक से हो जी बहाल;
    ऐ दोस्त मुसकुरा कि तबीयत उदास है;

    है हुस्न का फ़ुसूँ भी इलाज-ए-फ़सुर्दगी;
    रुख़ से नक़ाब उठा कि तबीयत उदास है;

    मैंने कभी ये ज़िद तो नहीं की पर आज शब-ए-महजबीं न जा कि तबीयत उदास है।
    ~ Adam
  • कोई समझाए ये क्या...

    कोई समझाए ये क्या रंग है मैख़ाने का;
    आँख साकी की उठे नाम हो पैमाने का;

    गर्मी-ए-शमा का अफ़साना सुनाने वालों;
    रक्स देखा नहीं तुमने अभी परवाने का;

    चश्म-ए-साकी मुझे हर गाम पे याद आती है;
    रास्ता भूल न जाऊँ कहीं मैख़ाने का;

    अब तो हर शाम गुज़रती है उसी कूचे मे;
    ये नतीजा हुआ ना से तेरे समझाने का;

    मंज़िल-ए-ग़म से गुज़रना तो है आसाँ 'इक़बाल';
    इश्क है नाम ख़ुद अपने से गुज़र जाने का।
    ~ Allama Iqbal
  • जो भी बुरा भला है...

    जो भी बुरा भला है अल्लाह जानता है;
    बंदे के दिल में क्या है अल्लाह जानता है;

    ये फर्श-ओ-अर्श क्या है अल्लाह जानता है;
    पर्दों में क्या छिपा है अल्लाह जानता है;

    जाकर जहाँ से कोई वापिस नहीं है आता;
    वो कौन सी जगह है अल्लाह जानता है;

    नेक़ी-बदी को अपने कितना ही तू छिपाए;
    अल्लाह को पता है अल्लाह जानता है;

    ये धूप-छाँव देखो ये सुबह-शाम देखो;
    सब क्यों ये हो रहा है अल्लाह जानता है;

    क़िस्मत के नाम को तो सब जानते हैं लेकिन क़िस्मत में क्या लिखा है अल्लाह जानता है।
    ~ Akhtar Sheerani
  • फांसले ऐसे भी होंगे ये कभी सोचा न था...

    फांसले ऐसे भी होंगे ये कभी सोचा न था;
    सामने बैठा था मेरे और वो मेरा न था;

    वो कि ख़ुशबू की तरह फैला था मेरे चार सू;
    मैं उसे महसूस कर सकता था छू सकता न था;

    रात भर पिछली ही आहट कान में आती रही;
    झाँक कर देखा गली में कोई भी आया न था;

    ख़ुद चढ़ा रखे थे तन पर अजनबीयत के गिलाफ़;
    वर्ना कब एक दूसरे को हमने पहचाना न था;

    याद कर के और भी तकलीफ़ होती थी 'अदीम';
    भूल जाने के सिवा अब कोई भी चारा न था।
    ~ Adeem Hashmi
  • अपने हाथों की...

    अपने हाथों की लकीरों में बसा ले मुझको;
    मैं हूँ तेरा तो नसीब अपना बना ले मुझको;

    मुझसे तू पूछने आया है वफ़ा के माने;
    ये तेरी सादा-दिली मार ना डाले मुझको;

    ख़ुद को मैं बाँट ना डालूँ कहीं दामन-दामन;
    कर दिया तूने अगर मेरे हवाले मुझको।;

    बादाह फिर बादाह है मैं ज़हर भी पी जाऊँ 'क़तील';
    शर्त ये है कोई बाहों में सम्भाले मुझको।
    ~ Qateel Shifai
  • ​मेरी ख़्वाहिश है कि...

    ​मेरी ख़्वाहिश है कि फिर से मैं फ़रिश्ता हो जाऊँ;
    माँ से इस तरह लिपट जाऊं कि बच्चा हो जाऊँ;

    कम-से कम बच्चों के होठों की हंसी की ख़ातिर;
    ऐसी मिट्टी में मिलाना कि खिलौना हो जाऊँ;

    सोचता हूँ तो छलक उठती हैं मेरी आँखें;
    तेरे बारे में न सोचूं तो अकेला हो जाऊँ;

    चारागर तेरी महारथ पे यक़ीं है लेकिन;
    क्या ज़रूरी है कि हर बार मैं अच्छा हो जाऊँ;

    बेसबब इश्क़ में मरना मुझे मंज़ूर नहीं;
    शमा तो चाह रही है कि पतंगा हो जाऊँ;

    शायरी कुछ भी हो रुसवा नहीं होने देती;
    मैं सियासत में चला जाऊं तो नंगा हो जाऊँ।
    ~ Munawwar Rana
  • ​दिन सलीके से उगा...

    दिन सलीके से उगा रात ठिकाने से रही;
    दोस्ती अपनी भी कुछ रोज़ ज़माने से रही;

    चंद लम्हों को ही बनती हैं मुसव्विर आँखे;
    जिंदगी रोज़ तो तस्वीर बनाने से रही;

    इस अँधेरे में तो ठोकर ही उजाला देगी;
    रात, जंगल में कोई शम्मा जलाने से रही;

    फ़ासला, चाँद बना देता है हर पत्थर को;
    दूर की रौशनी नज़दीक तो आने से रही;

    शहर में सबको कहाँ मिलती है रोने की जगह;
    अपनी इज्ज़त भी यहाँ हंसने-हंसाने से रही।
    ~ Nida Fazli