ग़ज़ल Hindi Shayari

  • उलझा दिल-ए-सितम-ज़दा ज़ुल्फ़-ए-बुताँ से आज;
    नाज़िल हुई बला मेरे सर पर कहाँ से आज;

    तड़पूँगा हिज्र-ए-यार में है रात चौधवीं;
    तन चाँदनी में होगा मुक़ाबिल कताँ से आज;

    दो-चार रश्क-ए-माह भी हम-राह चाहिएँ;
    वादा है चाँदनी में किसी मेहर-बाँ से आज;

    हंगाम-ए-वस्ल रद्द-ओ-बदल मुझ से है अबस;
    निकलेगा कुछ न काम नहीं और हाँ से आज;

    क़ार-ए-बदन में रूह पुकारी ये वक़्त-ए-नज़ा;
    मुद्दत के बाद उठते हैं हम इस मकाँ से आज;

    अँधेर था निगाह-ए-'अमानत' में शाम सहर;
    तुम चाँद की तरह निकल आए कहाँ से आज।
    ~ Amanat Lakhnavi
  • तुम्हारे जैसे लोग जबसे मेहरबान नहीं रहे;
    तभी से ये मेरे जमीन-ओ-आसमान नहीं रहे;

    खंडहर का रूप धरने लगे है बाग शहर के;
    वो फूल-ओ-दरख्त, वो समर यहाँ नहीं रहे;

    सब अपनी अपनी सोच अपनी फिकर के असीर हैं;
    तुम्हारें शहर में मेरे मिजाज़ दा नहीं रहें;

    उसे ये गम है, शहर ने हमारी बात जान ली;
    हमें ये दुःख है उस के रंज भी निहां नहीं रहे;

    बोहत है यूँ तो मेरे इर्द-गिर्द मेरे आशना;
    तुम्हारे बाद धडकनों के राजदान नहीं रहे;

    असीर हो के रह गए हैं शहर की फिजाओं में;
    परिंदे वाकई चमन के तर्जुमान नहीं रहे।
    ~ Aitbar Sajid
  • जग में आकर इधर उधर देखा...

    जग में आकर इधर उधर देखा;
    तू ही आया नज़र जिधर देखा;

    जान से हो गए बदन ख़ाली;
    जिस तरफ़ तूने आँख भर देखा;

    नाला, फ़रियाद, आह और ज़ारी;
    आप से हो सका सो कर देखा;

    उन लबों ने की न मसीहाई;
    हम ने सौ-सौ तरह से मर देखा;

    ज़ोर आशिक़ मिज़ाज है कोई;
    'दर्द' को क़िस्स:-ए- मुख्तसर देखा।
    ~ Khwaja Mir Dard
  • गुल को महबूब में क़यास किया;
    फ़र्क़ निकला बहोत जो बास किया;

    दिल ने हम को मिसाल-ए-आईना;
    एक आलम से रू-शिनास किया;

    कुछ नहीं सूझता हमें उस बिन;
    शौक़ ने हम को बे-हवास किया;

    सुबह तक शमा सर को ढुँढती रही;
    क्या पतंगे ने इल्तेमास किया;

    ऐसे वहाशी कहाँ हैं अए ख़ुबाँ;
    'मीर' को तुम ने अबस उदास किया।
    ~ Meer Taqi Meer
  • न जाओ हाल-ए-दिल-ए-ज़ार देखते जाओ;
    कि जी न चाहे तो नाचार देखते जाओ;

    बहार-ए-उमर् में बाग़-ए-जहाँ की सैर करो;
    खिला हुआ है ये गुलज़ार देखते जाओ;

    उठाओ आँख, न शरमाओ ,ये तो महिफ़ल है;
    ग़ज़ब से जानिब-ए-अग़यार देखते जाओ;

    हुआ है क्या अभी हंगामा अभी कुछ होगा;
    फ़ुगां में हश्र के आसार देखते जाओ;

    तुम्हारी आँख मेरे दिल से बेसबब-बेवजह;
    हुई है लड़ने को तय्यार देखते जाओ;

    न जाओ बंद किए आँख रहरवान-ए-अदम;
    इधर-उधर भी ख़बरदार देखते जाओ;

    कोई न कोई हर इक शेर में है बात ज़रूर;
    जनाबे-दाग़ के अशआर देखते जाओ।
    ~ Daagh Dehlvi
  • डरा के मौज-ओ-तलातुम से हमनशीनों को;
    यही तो हैं जो डुबोया किए सफ़ीनों को;

    शराब हो ही गई है बक़द्रे-पैमाना;
    ब-अ़ज़्मे-तर्क निचोड़ा जो आस्‍तीनों को;

    जमाले-सुबह दिया रू-ए-नौबहार दिया;
    मेरी निग़ाह भी देता ख़ुदा हसीनों को;

    हमारी राह में आए हज़ार मैख़ाने;
    भुला सके न मगर होश के क़रीनों को;

    कभी नज़र भी उठाई न सू-ए-बादा-ए-नाब;
    कभी चढ़ा गए पिघला के आबगीनों को;

    हुए है क़ाफ़िले जुल्मत की वादियों में रवाँ;
    चिराग़े राह किए ख़ूंचका जबीनों को;

    तुझे न माने कोई तुझको इससे क्या 'मजरूह';
    चल अपनी राह, भटकने दे नुक़्ताचीनों को।
    ~ Majrooh Sultanpuri
  • मय रहे, मीना रहे...

    मय रहे, मीना रहे, ग़र्दिश में पैमाना रहे;
    मेरे साक़ी तू रहे, आबाद मयखाना रहे;

    हश्र भी तो हो चुका, रुख़ से नहीं हटती नक़ाब;
    हद भी आख़िर कुछ है, कब तक कोई दीवाना रहे;

    रात को जा बैठते हैं, रोज़ हम मजनूं के पास;
    पहले अनबन रह चुकी है, अब तो याराना रहे;

    ज़िन्दगी का लुत्फ़ हो, उड़ती रहे हरदम रियाज़;
    हम हों, शीशे की परी हो,घर परीखाना रहे।
    ~ Riyaz Khairabadi
  • ख़्वाब इस आँखों से अब कोई चुरा कर ले जाये;
    क़ब्र के सूखे हुए फूल उठा कर ले जाये;

    मुंतज़िर फूल में ख़ुश्बू की तरह हूँ कब से;
    कोई झोंकें की तरह आये उड़ा कर ले जाये;

    ये भी पानी है मगर आँखों का ऐसा पानी;
    जो हथेली पे रची मेहंदी उड़ा कर ले जाये;

    मैं मोहब्बत से महकता हुआ ख़त हूँ मुझ को;
    ज़िन्दगी अपनी किताबों में दबा कर ले जाये;

    ख़ाक इंसाफ़ है नाबीना बुतों के आगे;
    रात थाली में चिराग़ों को सजा कर ले जाये।
    ~ Bashir Badr
  • दिल को क्या हो गया...

    दिल को क्या हो गया ख़ुदा जाने;
    क्यों है ऐसा उदास क्या जाने;

    कह दिया मैं ने हाल-ए-दिल अपना;
    इस को तुम जानो या ख़ुदा जाने;

    जानते जानते ही जानेगा;
    मुझ में क्या है वो अभी क्या जाने;

    तुम न पाओगे सादा दिल मुझसा;
    जो तग़ाफ़ुल को भी हया जाने।
    ~ Daagh Dehlvi
  • क्या कुछ न किया और हैं क्या कुछ नहीं करते;
    कुछ करते हैं ऐसा ब-ख़ुदा कुछ नहीं करते;

    अपने मर्ज़-ए-ग़म का हकीम और कोई है;
    हम और तबीबों की दवा कुछ नहीं करते;

    मालूम नहीं हम से हिजाब उन को है कैसा;
    औरों से तो वो शर्म ओ हया कुछ नहीं करते;

    गो करते हैं ज़ाहिर को सफ़ा अहल-ए-कुदूरत;
    पर दिल को नहीं करते सफ़ा कुछ नहीं करते;

    वो दिल-बरी अब तक मेरी कुछ करते हैं लेकिन;
    तासीर तेरे नाले दिला कुछ नहीं करते;

    करते हैं वो इस तरह 'ज़फ़र' दिल पे जफ़ाएँ;
    ज़ाहिर में ये जानो के जफ़ा कुछ नहीं करते।
    ~ Bahadur Shah Zafar