माने जो कोई बात, तो एक बात बहुत है; सदियों के लिए पल की मुलाक़ात बहुत है; दिन भीड़ के पर्दे में छुपा लेगा हर एक बात; ऐसे में न जाओ, कि अभी रात बहुत है; महीने में किसी रोज़, कहीं चाय के दो कप; इतना है अगर साथ, तो फिर साथ बहुत है; रसमन ही सही, तुमने चलो ख़ैरियत पूछी; इस दौर में अब इतनी मदारात बहुत है; दुनिया के मुक़द्दर की लक़ीरों को पढ़ें हम; कहते है कि मज़दूर का बस हाथ बहुत है; फिर तुमको पुकारूँगा कभी कोहे 'अना' से; ऐ दोस्त अभी गर्मी-ए-हालात बहुत है। |
मोहब्बत करने वालों के बहार-अफ़रोज़ सीनों में; रहा करती है शादाबी ख़ज़ाँ के भी महीनों में; ज़िया-ए-महर आँखों में है तौबा मह-जबीनों में; के फ़ितरत ने भरा है हुस्न ख़ुद अपना हसीनों में; हवा-ए-तुंद है गर्दाब है पुर-शोर धारा है; लिए जाते हैं ज़ौक-ए-आफ़ियत सी शय सफीनों में; मैं उन में हूँ जो हो कर आस्ताँ-ए-दोस्त से महरूम; लिए फिरते हैं सजदों की तड़प अपनी जबीनों में; मेरी ग़ज़लें पढ़ें सब अहल-ए-दिल और मस्त हो जाएँ; मय-ए-जज़्बात लाया हूँ मैं लफ़्ज़ी आब-गीनों में। |
ज़ंजीर से उठती है सदा सहमी हुई सी; जारी है अभी गर्दिश-ए-पा सहमी हुई सी; दिल टूट तो जाता है पे गिर्या नहीं करता; क्या डर है के रहती है वफ़ा सहमी हुई सी; उठ जाए नज़र भूल के गर जानिब-ए-अफ़्लाक; होंटों से निकलती है दुआ सहमी हुई सी; हाँ हँस लो रफ़ीक़ो कभी देखी नहीं तुम ने; नम-नाक निगाहों में हया सहमी हुई सी; तक़सीर कोई हो तो सज़ा उम्र का रोना; मिट जाएँ वफ़ा में तो जज़ा सहमी हुई सी; है 'अर्श' वहाँ आज मुहीत एक ख़ामोशी; जिस राह से गुज़री थी क़ज़ा सहमी हुई सी। |
वफ़ा के शीश महल में सजा लिया मैनें; वो एक दिल जिसे पत्थर बना लिया मैनें; ये सोच कर कि न हो ताक में ख़ुशी कोई; ग़मों कि ओट में ख़ुद को छुपा लिया मैनें; कभी न ख़त्म किया मैं ने रोशनी का मुहाज़; अगर चिराग़ बुझा, दिल जला लिया मैनें; कमाल ये है कि जो दुश्मन पे चलाना था; वो तीर अपने कलेजे पे खा लिया मैनें; "क़तील" जिसकी अदावत में एक प्यार भी था; उस आदमी को गले से लगा लिया मैनें। |
सफ़ीना ग़र्क़ हुआ मेरा यूँ ख़ामोशी से; के सतह-ए-आब पे कोई हबाब तक न उठा; समझ न इज्ज़ इसे तेरे पर्दा-दार थे हम; हमारा हाथ जो तेरे नक़ाब तक न उठा; झिंझोड़ते रहे घबरा के वो मुझे लेकिन; मैं अपनी नींद से यौम-ए-हिसाब तक न उठा; जतन तो ख़ूब किए उस ने टालने के मगर; मैं उस की बज़्म से उस के जवाब तक न उठा। |
हुई है शाम तो आँखों में बस गया फिर तू; कहाँ गया है मेरे शहर के मुसाफ़िर तू; बहुत उदास है इक शख़्स तेरे जाने से; जो हो सके तो चला आ उसी की ख़ातिर तू; मेरी मिसाल कि इक नख़्ल-ए-ख़ुश्क-ए-सहरा हूँ; तेरा ख़याल कि शाख़-ए-चमन का ताइर तू; मैं जानता हूँ के दुनिया तुझे बदल देगी; मैं मानता हूँ के ऐसा नहीं बज़ाहिर तू; हँसी ख़ुशी से बिछड़ जा अगर बिछड़ना है; ये हर मक़ाम पे क्या सोचता है आख़िर तू; 'फ़राज़' तूने उसे मुश्किलों में डाल दिया; ज़माना साहिब-ए-ज़र और सिर्फ़ शायर तू। |
दिल को जब अपने गुनाहों का ख़याल आ जायेगा; साफ़ और शफ्फ़ाफ़ आईने में बाल आ जायेगा; भूल जायेंगी ये सारी क़हक़हों की आदतें; तेरी खुशहाली के सर पर जब ज़वाल आ जायेगा; मुसतक़िल सुनते रहे गर दास्ताने कोह कन; बे हुनर हाथों में भी एक दिन कमाल आ जायेगा; ठोकरों पर ठोकरे बन जायेंगी दरसे हयात; एक दिन दीवाने में भी ऐतेदाल आ जायेगा; बहरे हाजत जो बढ़े हैं वो सिमट जायेंगे ख़ुद; जब भी उन हाथों से देने का सवाल आ जायेगा। |
हर एक लम्हे की रग में दर्द का रिश्ता धड़कता है; वहाँ तारा लरज़ता है जो याँ पत्ता खड़कता है; ढके रहते हैं गहरे अब्र में बातिन के सब मंज़र; कभी एक लहज़ा-ए-इदराक बिजली सा कड़कता है; मुझे दीवाना कर देती है अपनी मौत की शोख़ी; कोई मुझ में रग-ए-इज़हार की सूरत फड़कता है; फिर एक दिन आग लग जाती है जंगल में हक़ीक़त के; कहीं पहले-पहल एक ख़्वाब का शोला भड़कता है; मेरी नज़रें ही मेरे अक्स को मजरूह करती हैं; निगाहें मुर्तकिज़ होती हैं और शीशा तड़कता है। |
रूह प्यासी... रूह प्यासी कहाँ से आती है; ये उदासी कहाँ से आती है; दिल है शब दो का तो ऐ उम्मीद ; तू निदासी कहाँ से आती है; शौक में ऐशे वत्ल के हन्गाम; नाशिफासी कहाँ से आती है; एक ज़िन्दान-ए-बेदिली और शाम; ये सबासी कहाँ से आती है; तू है पहलू में फिर तेरी खुशबू; होके बासी कहाँ से आती है। |
ख़ुद हिजाबों सा ख़ुद जमाल सा था; दिल का आलम भी बे-मिसाल सा था; अक्स मेरा भी आइनों में नहीं; वो भी कैफ़ियत-ए-ख़याल सा था; दश्त में सामने था ख़ेमा-ए-गुल; दूरियों में अजब कमाल सा था; बे-सबब तो नहीं था आँखों में; एक मौसम के ला-ज़वाल सा था; ख़ौफ़ अँधेरों का डर उजालों से; सानेहा था तो हस्ब-ए-हाल सा था; क्या क़यामत है हुज्ला-ए-जाँ में; उस के होते हुए मलाल सा था; जिस की जानिब 'अदा' नज़र न उठी; हाल उस का भी मेरे हाल सा था। |