होशियारी दिल-ए-नादान... होशियारी दिल-ए-नादान बहुत करता है; रंज कम सहता है एलान बहुत करता है; रात को जीत तो पाता नहीं लेकिन ये चिराग; कम से कम रात का नुकसान बहुत करता है; आज कल अपना सफर तय नहीं करता कोई; हाँ सफर का सर-ओ-सामान बहुत करता है; अब ज़ुबान खंज़र-ए-कातिल की सना करती है; हम वो ही करते है जो खल्त-ए-खुदा करती है; हूँ का आलम है गिराफ्तारों की आबादी में; हम तो सुनते थे की ज़ंज़ीर सदा करती है। |
कहाँ तक आँख रोएगी... कहाँ तक आँख रोएगी कहाँ तक किसका ग़म होगा; मेरे जैसा यहाँ कोई न कोई रोज़ कम होगा; तुझे पाने की कोशिश में कुछ इतना रो चुका हूँ मैं; कि तू मिल भी अगर जाये तो अब मिलने का ग़म होगा; समंदर की ग़लतफ़हमी से कोई पूछ तो लेता; ज़मीन का हौसला क्या ऐसे तूफ़ानों से कम होगा; मोहब्बत नापने का कोई पैमाना नहीं होता; कहीं तू बढ़ भी सकता है, कहीं तू मुझ से कम होगा। |
क्या भला मुझ को... क्या भला मुझ को परखने का नतीजा निकला; ज़ख़्म-ए-दिल आप की नज़रों से भी गहरा निकला; तोड़ कर देख लिया आईना-ए-दिल तूने; तेरी सूरत के सिवा और बता क्या निकला; जब कभी तुझको पुकारा मेरी तनहाई ने; बू उड़ी धूप से, तसवीर से साया निकला; तिश्नगी जम गई पत्थर की तरह होंठों पर; डूब कर भी तेरे दरिया से मैं प्यासा निकला। |
रहे जो ज़िंदगी में ज़िंदगी का आसरा हो कर; वही निकले सरीर-आरा क़यामत में ख़ुदा हो कर; हक़ीक़त-दर-हक़ीक़त बुत-कदे में है न काबे में; निगाह-ए-शौक़ धोखे दे रही है रहनुमा हो कर; अभी कल तक जवानी के ख़ुमिस्ताँ थे निगाहों में; ये दुनिया दो ही दिन में रह गई है क्या से क्या हो कर; मेरे सज़्दों की या रब तिश्ना-कामी क्यों नहीं जाती; ये क्या बे-ए'तिनाई अपने बंदे से ख़ुदा हो कर; बला से कुछ हो हम 'एहसान' अपनी ख़ू न छोड़ेंगे; हमेशा बेवफ़ाओं से मिलेंगे बा-वफ़ा हो कर। |
कोई तो फूल खिलाए... कोई तो फूल खिलाए दुआ के लहजे में; अजब तरह की घुटन है हवा के लहजे में; ये वक़्त किस की रुऊनत पे ख़ाक डाल गया; ये कौन बोल रहा था ख़ुदा के लहजे में; न जाने ख़ल्क़-ए-ख़ुदा कौन से अज़ाब में है; हवाएँ चीख़ पड़ीं इल्तिजा के लहजे में; खुला फ़रेब-ए-मोहब्बत दिखाई देता है; अजब कमाल है उस बे-वफ़ा के लहजे में; यही है मसलहत-ए-जब्र-ए-एहतियात तो फिर; हम अपना हाल कहेंगे छुपा के लहजे में। |
ये नाम मुमकिन रहेगा मक़ाम मुमकिन नहीं रहेगा; ग़ुरूर लहजे में आ गया तो कलाम मुमकिन नहीं रहेगा; ये बर्फ़-मौसम जो शहर-ए-जाँ में कुछ और लम्हे ठहर गया तो; लहू का दिल की किसी गली में क़याम मुमकिन नहीं रहेगा; तुम अपनी साँसों से मेरी साँसे अलग तो करने लगे हो लेकिन; जो काम आसाँ समझ रहे हो वो काम मुमकिन नहीं रहेगा; वफ़ा का काग़ज़ तो भीग जाएगा बद-गुमानी की बारिशों में; ख़तों की बातें ख़्वाब होंगी पयाम मुमकिन नहीं रहेगा; ये हम मोहब्बत में ला-तअल्लुक़ से हो रहे हैं तू देख लेना; दुआएँ तो ख़ैर कौन देगा सलाम मुमकिन नहीं रहेगा। |
क्या कहिये किस तरह से... क्या कहिये किस तरह से जवानी गुज़र गई; बदनाम करने आई थी बदनाम कर गई; क्या क्या रही सहर को शब-ए-वस्ल की तलाश; कहता रहा अभी तो यहीं थी किधर गई; रहती है कब बहार-ए-जवानी तमाम उम्र; मानिन्दे-बू-ए-गुल इधर आयी उधर गई; नैरंग-ए-रोज़गार से बदला न रंग-ए-इश्क़; अपनी हमेशा एक तरह पर गुज़र गई। |
तुमने तो कह दिया कि... तुमने तो कह दिया कि मोहब्बत नहीं मिली; मुझको तो ये भी कहने की मोहलत नहीं मिली; नींदों के देस जाते, कोई ख्वाब देखते; लेकिन दिया जलाने से फुरसत नहीं मिली; तुझको तो खैर शहर के लोगों का खौफ था; और मुझको अपने घर से इजाज़त नहीं मिली; फिर इख्तिलाफ-ए-राय की सूरत निकल पडी; अपनी यहाँ किसी से भी आदत नहीं मिली; बे-जार यूं हुए कि तेरे अहद में हमें; सब कुछ मिला, सुकून की दौलत नहीं मिली। |
ख़्वाब की तरह बिखर जाने को जी चाहता है; ऐसी तन्हाई के मर जाने को जी चाहता है; घर की वहशत से लरज़ता हूँ मगर जाने क्यों; शाम होती है तो घर जाने को जी चाहता है; डूब जाऊँ तो कोई मौज निशाँ तक न बताए; ऐसी नदी में उतर जाने को जी चाहता है; कभी मिल जाए तो रस्ते की थकन जाग पड़े; ऐसी मंज़िल से गुज़र जाने को जी चाहता है; वही पैमाँ जो कभी जी को ख़ुश आया था बहुत; उसी पैमाँ से मुकर जाने को जी चाहता है। |
देखा तो था यूं ही... देखा तो था यूं ही किसी ग़फ़लत-शिआर ने; दीवाना कर दिया दिल-ए-बेइख़्तियार ने; ऐ आरज़ू के धुंधले ख्वाबों जवाब दो; फिर किसकी याद आई थी मुझको पुकारने; तुमको ख़बर नहीं मगर इक सादालौह को; बर्बाद कर दिया तेरे दो दिन के प्यार ने; मैं और तुमसे तर्क-ए-मोहब्बत की आरज़ू; दीवाना कर दिया है ग़म-ए-रोज़गार ने; अब ऐ दिल-ए-तबाह तेरा क्या ख्याल है; हम तो चले थे काकुल-ए-गेती सँवारने। |