ग़ज़ल Hindi Shayari

  • होशियारी दिल-ए-नादान...

    होशियारी दिल-ए-नादान बहुत करता है;
    रंज कम सहता है एलान बहुत करता है;

    रात को जीत तो पाता नहीं लेकिन ये चिराग;
    कम से कम रात का नुकसान बहुत करता है;

    आज कल अपना सफर तय नहीं करता कोई;
    हाँ सफर का सर-ओ-सामान बहुत करता है;

    अब ज़ुबान खंज़र-ए-कातिल की सना करती है;
    हम वो ही करते है जो खल्त-ए-खुदा करती है;

    हूँ का आलम है गिराफ्तारों की आबादी में;
    हम तो सुनते थे की ज़ंज़ीर सदा करती है।
    ~ Irfan Siddiqi
  • कहाँ तक आँख रोएगी...

    कहाँ तक आँख रोएगी कहाँ तक किसका ग़म होगा;
    मेरे जैसा यहाँ कोई न कोई रोज़ कम होगा;

    तुझे पाने की कोशिश में कुछ इतना रो चुका हूँ मैं;
    कि तू मिल भी अगर जाये तो अब मिलने का ग़म होगा;

    समंदर की ग़लतफ़हमी से कोई पूछ तो लेता;
    ज़मीन का हौसला क्या ऐसे तूफ़ानों से कम होगा;

    मोहब्बत नापने का कोई पैमाना नहीं होता;
    कहीं तू बढ़ भी सकता है, कहीं तू मुझ से कम होगा।
    ~ Wasim Barelvi
  • क्या भला मुझ को...

    क्या भला मुझ को परखने का नतीजा निकला;
    ज़ख़्म-ए-दिल आप की नज़रों से भी गहरा निकला;

    तोड़ कर देख लिया आईना-ए-दिल तूने;
    तेरी सूरत के सिवा और बता क्या निकला;

    जब कभी तुझको पुकारा मेरी तनहाई ने;
    बू उड़ी धूप से, तसवीर से साया निकला;

    तिश्नगी जम गई पत्थर की तरह होंठों पर;
    डूब कर भी तेरे दरिया से मैं प्यासा निकला।
    ~ Ahmad Nadeem Qasmi
  • रहे जो ज़िंदगी में ज़िंदगी का आसरा हो कर;
    वही निकले सरीर-आरा क़यामत में ख़ुदा हो कर;

    हक़ीक़त-दर-हक़ीक़त बुत-कदे में है न काबे में;
    निगाह-ए-शौक़ धोखे दे रही है रहनुमा हो कर;

    अभी कल तक जवानी के ख़ुमिस्ताँ थे निगाहों में;
    ये दुनिया दो ही दिन में रह गई है क्या से क्या हो कर;

    मेरे सज़्दों की या रब तिश्ना-कामी क्यों नहीं जाती;
    ये क्या बे-ए'तिनाई अपने बंदे से ख़ुदा हो कर;

    बला से कुछ हो हम 'एहसान' अपनी ख़ू न छोड़ेंगे;
    हमेशा बेवफ़ाओं से मिलेंगे बा-वफ़ा हो कर।
    ~ Ehsaan Danish
  • कोई तो फूल खिलाए...

    कोई तो फूल खिलाए दुआ के लहजे में;
    अजब तरह की घुटन है हवा के लहजे में;

    ये वक़्त किस की रुऊनत पे ख़ाक डाल गया;
    ये कौन बोल रहा था ख़ुदा के लहजे में;

    न जाने ख़ल्क़-ए-ख़ुदा कौन से अज़ाब में है;
    हवाएँ चीख़ पड़ीं इल्तिजा के लहजे में;

    खुला फ़रेब-ए-मोहब्बत दिखाई देता है;
    अजब कमाल है उस बे-वफ़ा के लहजे में;

    यही है मसलहत-ए-जब्र-ए-एहतियात तो फिर;
    हम अपना हाल कहेंगे छुपा के लहजे में।
    ~ Iftikhar Arif
  • ये नाम मुमकिन रहेगा मक़ाम मुमकिन नहीं रहेगा;
    ग़ुरूर लहजे में आ गया तो कलाम मुमकिन नहीं रहेगा;

    ये बर्फ़-मौसम जो शहर-ए-जाँ में कुछ और लम्हे ठहर गया तो;
    लहू का दिल की किसी गली में क़याम मुमकिन नहीं रहेगा;

    तुम अपनी साँसों से मेरी साँसे अलग तो करने लगे हो लेकिन;
    जो काम आसाँ समझ रहे हो वो काम मुमकिन नहीं रहेगा;

    वफ़ा का काग़ज़ तो भीग जाएगा बद-गुमानी की बारिशों में;
    ख़तों की बातें ख़्वाब होंगी पयाम मुमकिन नहीं रहेगा;

    ये हम मोहब्बत में ला-तअल्लुक़ से हो रहे हैं तू देख लेना;
    दुआएँ तो ख़ैर कौन देगा सलाम मुमकिन नहीं रहेगा।
    ~ Noshi Gilani
  • क्या कहिये किस तरह से...

    क्या कहिये किस तरह से जवानी गुज़र गई;
    बदनाम करने आई थी बदनाम कर गई;

    क्या क्या रही सहर को शब-ए-वस्ल की तलाश;
    कहता रहा अभी तो यहीं थी किधर गई;

    रहती है कब बहार-ए-जवानी तमाम उम्र;
    मानिन्दे-बू-ए-गुल इधर आयी उधर गई;

    नैरंग-ए-रोज़गार से बदला न रंग-ए-इश्क़;
    अपनी हमेशा एक तरह पर गुज़र गई।
    ~ Daagh Dehlvi
  • तुमने तो कह दिया कि...

    तुमने तो कह दिया कि मोहब्बत नहीं मिली;
    मुझको तो ये भी कहने की मोहलत नहीं मिली;

    नींदों के देस जाते, कोई ख्वाब देखते;
    लेकिन दिया जलाने से फुरसत नहीं मिली;

    तुझको तो खैर शहर के लोगों का खौफ था;
    और मुझको अपने घर से इजाज़त नहीं मिली;

    फिर इख्तिलाफ-ए-राय की सूरत निकल पडी;
    अपनी यहाँ किसी से भी आदत नहीं मिली;

    बे-जार यूं हुए कि तेरे अहद में हमें;
    सब कुछ मिला, सुकून की दौलत नहीं मिली।
    ~ Noshi Gilani
  • ख़्वाब की तरह बिखर जाने को जी चाहता है;
    ऐसी तन्हाई के मर जाने को जी चाहता है;

    घर की वहशत से लरज़ता हूँ मगर जाने क्यों;
    शाम होती है तो घर जाने को जी चाहता है;

    डूब जाऊँ तो कोई मौज निशाँ तक न बताए;
    ऐसी नदी में उतर जाने को जी चाहता है;

    कभी मिल जाए तो रस्ते की थकन जाग पड़े;
    ऐसी मंज़िल से गुज़र जाने को जी चाहता है;

    वही पैमाँ जो कभी जी को ख़ुश आया था बहुत;
    उसी पैमाँ से मुकर जाने को जी चाहता है।
    ~ Iftikhar Arif
  • देखा तो था यूं ही...

    देखा तो था यूं ही किसी ग़फ़लत-शिआर ने;
    दीवाना कर दिया दिल-ए-बेइख़्तियार ने;

    ऐ आरज़ू के धुंधले ख्वाबों जवाब दो;
    फिर किसकी याद आई थी मुझको पुकारने;

    तुमको ख़बर नहीं मगर इक सादालौह को;
    बर्बाद कर दिया तेरे दो दिन के प्यार ने;

    मैं और तुमसे तर्क-ए-मोहब्बत की आरज़ू;
    दीवाना कर दिया है ग़म-ए-रोज़गार ने;

    अब ऐ दिल-ए-तबाह तेरा क्या ख्याल है;
    हम तो चले थे काकुल-ए-गेती सँवारने।
    ~ Sahir Ludhianvi