ग़ज़ल Hindi Shayari

  • हर एक बात पे कहते हो तुम कि तू क्या है;
    तुम्ही कहो कि ये अंदाजे-गुफ्तगू क्या है;

    न शोले में ये करिश्मा न बर्क में ये अदा;
    कोई बताओ कि वो शोखे-तुंद-ख़ू क्या है;

    ये रश्क है कि वो होता है हमसुखन तुमसे;
    वरगना खौफे-बद-अमोजिए-अदू क्या है;

    चिपक रहा है बदन लहू से पैरहन;
    हमारी जेब को अब हाजते-रफू क्या है;

    जला है जिस्म जहाँ दिल भी जल गया होगा;
    कुरेदते हो जो अब राख, जुस्तजू क्या है;

    बना है शह का मुसाहिब, फिरे है इतराता;
    वगरना शहर में ग़ालिब कि आबरू क्या है।
    ~ Mirza Ghalib
  • झूठा निकला क़रार तेरा;
    अब किसको है ऐतबार तेरा;

    दिल में सौ लाख चुटकियाँ लीं;
    देखा बस हम ने प्यार तेरा;

    दम नाक में आ रहा था अपने;
    था रात ये इंतिज़ार तेरा;

    कर ज़बर जहाँ तलक़ तू चाहे;
    मेरा क्या, इख्तियार तेरा;

    लिपटूँ हूँ गले से आप अपने;
    समझूँ कि है किनार तेरा;

    'इंशा' से मत रूठ, खफा हो;
    है बंदा जानिसार तेरा।
    ~ Insha Allah Khan Insha
  • तू भी चुप है मैं भी चुप हूँ यह कैसी तन्हाई है;
    तेरे साथ तेरी याद आई, क्या तू सचमुच आई है;

    शायद वो दिन पहला दिन था पलकें बोझल होने का;
    मुझ को देखते ही जब उन की अँगड़ाई शरमाई है;

    उस दिन पहली बार हुआ था मुझ को रफ़ाक़ात का एहसास;
    जब उस के मलबूस की ख़ुश्बू घर पहुँचाने आई है;

    हुस्न से अर्ज़ ए शौक़ न करना हुस्न को ज़ाक पहुँचाना है;
    हम ने अर्ज़ ए शौक़ न कर के हुस्न को ज़ाक पहुँचाई है;

    एक तो इतना हब्स है फिर मैं साँसें रोके बैठा हूँ;
    वीरानी ने झाड़ू दे के घर में धूल उड़ाई है।
    ~ Jon Elia
  • खुलेगी इस नज़र पे...

    खुलेगी इस नज़र पे चश्म-ए-तर आहिस्ता आहिस्ता;
    किया जाता है पानी में सफ़र आहिस्ता आहिस्ता;

    कोई ज़ंजीर फिर वापस वहीं पर ले के आती है;
    कठिन हो राह तो छूटता है घर आहिस्ता आहिस्ता;

    बदल देना है रास्ता या कहीं पर बैठ जाना है;
    कि थकता जा रहा है हमसफ़र आहिस्ता आहिस्ता;

    ख़लिश के साथ इस दिल से न मेरी जाँ निकल जाये;
    खिंचे तीर-ए-शनासाई मगर आहिस्ता आहिस्ता;

    मेरी शोला-मिज़ाजी को वो जंगल कैसे रास आये;
    हवा भी साँस लेती हो जिधर आहिस्ता आहिस्ता।
    ~ Parveen Shakir
  • फिर उसके जाते ही दिल सुनसान हो कर रह गया;
    अच्छा भला इक शहर वीरान हो कर रह गया;

    हर नक्श बतल हो गया अब के दयार-ए-हिज्र में;
    इक ज़ख्म गुज़रे वक्त की पहचान हो कर रह गया;

    रुत ने मेरे चारों तरफ खींचें हिसार-ए-बाम-ओ-दर;
    यह शहर फिर मेरे लिए ज़ान्दान हो कर रह गया;

    कुछ दिन मुझे आवाज़ दी लोगों ने उस के नाम से;
    फिर शहर भर में वो मेरी पहचान हो कर रह गया;

    इक ख्वाब हो कर रह गई गुलशन से अपनी निस्बतें;
    दिल रेज़ा रेज़ा कांच का गुलदान हो कर रह गया;

    ख्वाहिश तो थी "साजिद" मुझे तशीर-ए-मेहर-ओ-माह की;
    लेकिन फ़क़त मैं साहिब-ए-दीवान हो कर रह गया।
    ~ Aitbar Sajid
  • हर एक रूह में एक ग़म छुपा लगे हैं मुझे;
    ये ज़िन्दगी तो कोई बद-दुआ लगे है मुझे;

    जो आँसू में कभी रात भीग जाती है;
    बहुत क़रीब वो आवाज़-ए-पा लगे है मुझे;

    मैं सो भी जाऊँ तो मेरी बंद आँखों में;
    तमाम रात कोई झाँकता लगे है मुझे;

    मैं जब भी उस के ख़यालों में खो सा जाता हूँ;
    वो ख़ुद भी बात करे तो बुरा लगे है मुझे;

    मैं सोचता था कि लौटूँगा अजनबी की तरह;
    ये मेरा गाँव तो पहचाना सा लगे है मुझे;

    बिखर गया है कुछ इस तरह आदमी का वजूद;
    हर एक फ़र्द कोई सानेहा लगे है मुझे।
    ~ Jaan Nisar Akhtar
  • तुझे खोकर भी तुझे पाऊं जहाँ तक देखूँ;
    हुस्न-ए-यज़्दां से तुझे हुस्न-ए-बुतां तक देखूं;

    तूने यूं देखा है जैसे कभी देखा ही न था;
    मैं तो दिल में तेरे क़दमों के निशां तक देखूँ;

    सिर्फ़ इस शौक़ में पूछी हैं हज़ारों बातें;
    मै तेरा हुस्न तेरे हुस्न-ए-बयां तक देखूँ;

    वक़्त ने ज़ेहन में धुंधला दिये तेरे खद्द-ओ-खाल;
    यूं तो मैं तूटते तारों का धुआं तक देखूँ;

    दिल गया था तो ये आँखें भी कोई ले जाता;
    मैं फ़क़त एक ही तस्वीर कहाँ तक देखूँ;

    एक हक़ीक़त सही फ़िरदौस में हूरों का वजूद;
    हुस्न-ए-इन्सां से निपट लूं तो वहाँ तक देखूँ।
    ~ Ahmad Nadeem Qasmi
  • भड़का रहे हैं आग...

    भड़का रहे हैं आग लब-ए-नग़्मागार से हम;
    ख़ामोश क्या रहेंगे ज़माने के डर से हम;

    कुछ और बड़ गए अंधेरे तो क्या हुआ;
    मायूस तो नहीं हैं तुलु-ए-सहर से हम;

    ले दे के अपने पास फ़क़त एक नज़र तो है;
    क्यों देखें ज़िंदगी को किसी की नज़र से हम

    माना कि इस ज़मीं को न गुलज़ार कर सके;
    कुछ ख़ार कम कर गए गुज़रे जिधर से हम।
    ~ Sahir Ludhianvi
  • इस अहद में इलाही...

    इस अहद में इलाही मोहब्बत को क्या हुआ;
    छोड़ा वफ़ा को उन्ने मुरव्वत को क्या हुआ;

    उम्मीदवार वादा-ए-दीदार मर चले;
    आते ही आते यारों क़यामत को क्या हुआ;

    बख्शिश ने मुझ को अब्र-ए-करम की किया ख़िजल;
    ए चश्म-ए-जोश अश्क-ए-नदामत को क्या हुआ;

    जाता है यार तेग़ बकफ़ ग़ैर की तरफ़;
    ए कुश्ता-ए-सितम तेरी ग़ैरत को क्या हुआ।
    ~ Mir Taqi Mir
  • एक खिलौना टूट जाएगा...

    एक खिलौना टूट जाएगा नया मिल जाएगा;
    मैं नहीं तो कोई तुझ को दूसरा मिल जाएगा;

    भागता हूँ हर तरफ़ ऐसे हवा के साथ साथ;
    जिस तरह सच मुच मुझे उस का पता मिल जाएगा;

    किस तरह रोकोगे अश्कों को पस-ए-दीवार-ए-चश्म;
    ये तो पानी है इसे तो रास्ता मिल जाएगा;

    एक दिन तो ख़त्म होगी लफ़्ज़ ओ मानी की तलाश;
    एक दिन तो मुझ को मेरा मुद्दा मिल जाएगा;

    छोड़ ख़ाली घर को आ बाहर चलें घर से 'अदीम';
    कुछ नहीं तो कोई चेहरा चाँद सा मिल जाएगा।
    ~ Adeem Hashmi