अब कौन से मौसम से... अब कौन से मौसम से कोई आस लगाए; बरसात में भी याद जब न उनको हम आए; मिटटी की महक साँस की ख़ुश्बू में उतर कर; भीगे हुए सब्जे की तराई में बुलाए; दरिया की तरह मौज में आई हुई बरखा; ज़रदाई हुई रुत को हरा रंग पिलाए; बूँदों की छमाछम से बदन काँप रहा है; और मस्त हवा रक़्स की लय तेज़ कर जाए; हर लहर के पावों से लिपटने लगे घूँघरू; बारिश की हँसी ताल पे पाज़ेब जो छनकाए; अंगूर की बेलों पे उतर आए सितारे; रुकती हुई बारिश ने भी क्या रंग दिखाए। |
वो कभी मिल जाएँ तो... वो कभी मिल जाएँ तो क्या कीजिए; रात दिन सूरत को देखा कीजिए; चाँदनी रातों में इक इक फूल को; बे-ख़ुदी कहती है सजदा कीजिए; जो तमन्ना बर न आए उम्र भर; उम्र भर उस की तमन्ना कीजिए; इश्क़ की रंगीनियों में डूब कर; चाँदनी रातों में रोया कीजिए; पूछ बैठे हैं हमारा हाल वो; बे-ख़ुदी तू ही बता क्या कीजिए; हम ही उस के इश्क़ के क़ाबिल न थे; क्यों किसी ज़ालिम का शिकवा कीजिए; आप ही ने दर्द-ए-दिल बख़्शा हमें; आप ही इस का मुदावा कीजिए; कहते हैं 'अख़्तर' वो सुन कर मेरे शेर; इस तरह हम को न रुसवा कीजिए। |
रात के टुकड़ों पे... रात के टुकड़ों पे पलना छोड़ दे; शमा से कहना कि जलना छोड़ दे; मुश्किलें तो हर सफ़र का हुस्न हैं; कैसे कोई राह चलना छोड़ दे; तुझसे उम्मीदे - वफ़ा बेकार है; कैसे इक मौसम बदलना छोड़ दे; मैं तो ये हिम्मत दिखा पाया नहीं; तू ही मेरे साथ चलना छोड़ दे; कुछ तो कर आदाबे - महफ़िल का लिहाज़; यार ये पहलू बदलना छोड़ दे। |
हम ही में थी न कोई बात... हम ही में थी न कोई बात याद न तुम को आ सके; तुम ने हमें भुला दिया हम न तुम्हें भुला सके; तुम ही न सुन के अगर क़िस्सा-ए-ग़म सुनेगा कौन; किस की ज़बान खुलेगी फिर हम न अगर सुना सके; होश में आ चुके थे हम जोश में आ चुके थे हम; बज़्म का रंग देख कर सर न मगर उठा सके; रौनक़-ए-बज़्म बन गए लब पे हिकायतें रहीं; दिल में शिकायतें रहीं लब न मगर हिला सके; शौक़-ए-विसाल है यहाँ लब पे सवाल है यहाँ; किस की मजाल है यहाँ हम से नज़र मिला सके; अहल-ए-ज़बाँ तो हैं बहुत कोई नहीं है अहल-ए-दिल; कौन तेरी तरह 'हफ़ीज' दर्द के गीत गा सके। |
लगता नहीं है जी मेरा... लगता नहीं है जी मेरा उजड़े दयार में; किस की बनी है आलम-ए-नापायेदार में; कह दो इन हसरतों से कहीं और जा बसें; इतनी जगह कहाँ है दिल-ए-दाग़दार में; उम्र-ए-दराज़ माँग कर लाये थे चार दिन; दो आरज़ू में कट गये दो इंतज़ार में; काँटों को मत निकाल चमन से ओ बागबाँ; ये भी गुलों के साथ पले हैं बहार में; कितना है बदनसीब 'ज़फ़र' दफ़्न के लिये; दो गज़ ज़मीन भी न मिली कू-ए-यार में। अनुवाद: आलम-ए-नापायेदार = अस्थायी दुनिया सय्याद = शिकारी |
लहू न हो तो क़लम... लहू न हो तो क़लम तरजुमाँ नहीं होता; हमारे दौर में आँसू ज़ुबाँ नहीं होता; जहाँ रहेगा वहीं रौशनी लुटायेगा; किसी चिराग का अपना मकाँ नहीं होता; ये किस मक़ाम पे लाई है मेरी तनहाई; कि मुझ से आज कोई बदगुमाँ नहीं होता; मैं उस को भूल गया हूँ ये कौन मानेगा; किसी चिराग के बस में धुआँ नहीं होता; 'वसीम' सदियों की आँखों से देखिये मुझ को; वो लफ़्ज़ हूँ जो कभी दास्ताँ नहीं होता। |
तेरी उम्मीद तेरा इंतज़ार... तेरी उम्मीद तेरा इंतज़ार जब से है; न शब को दिन से शिकायत न दिन को शब से है; किसी का दर्द हो करते हैं तेरे नाम रक़म; गिला है जो भी किसी से तेरी सबब से है; हुआ है जब से दिल-ए-नासबूर बेक़ाबू; कलाम तुझसे नज़र को बड़ी अदब से है; अगर शरर है तो भड़के, जो फूल है तो खिले; तरह तरह की तलब तेरे रंग-ए-लब से है; कहाँ गये शब-ए-फ़ुरक़त के जागनेवाले; सितारा-ए-सहर हम-कलाम कब से है। |
जीते-जी कूचा-ए-दिलदार से... जीते-जी कूचा-ए-दिलदार से जाया न गया; उसकी दीवार का सर से मेरे साया न गया; गुल में उसकी सी जो बू आई तो आया न गया; हमको बिन दोश-ए-सबा बाग से लाया न गया; दिल में रह दिल में कि मे मीर-ए-कज़ा से अब तक; ऐसा मतबूअ मकां कोई बनाया न गया; क्या तुनुक हौसला थे दीदा-ओ-दिल अपने, आह; एक दम राज़ मोहब्बत का छुपाया न गया; शहर-ए-दिल आह अजब जगह थी पर उसके गए; ऐसा उजड़ा कि किसी तरह बसाया ना गया। |
आपको देखकर... आपको देखकर देखता रह गया; क्या कहूँ और कहने को क्या रह गया; उनकी आँखों में कैसे छलकने लगा; मेरे होंठों पे जो माजरा रह गया; ऐसे बिछड़े सभी राह के मोड़ पर; आखिरी हमसफ़र रास्ता रह गया; सोच कर आओ कू-ए-तमन्ना है ये; जानेमन जो यहाँ रह गया रह गया! अनुवाद: कू-ए-तमन्ना = इच्छाओं की गली |
हम उनसे अगर मिल बैठते... हम उनसे अगर मिल बैठते है, क्या दोष हमारा होता है; कुछ अपनी जसारत होती है, कुछ उनका इशारा होता है; कटने लगी रातें आँखों में, देखा नहीं पलकों पर अक्सर; याँ शामे-गरीबां का जुगनू या सुबह का तारा होता है; हम दिल को लिए हर देश फिरे इस जिंस के ग्राहक मिल न सके; ऐ बंजारों हम लोग चले, हमको तो खसारा होता है; दफ्तर से उठे कैफे में गए, कुछ शेर कहे कुछ कॉफ़ी पी; पूछो जो मआश का इंशा जी यूँ अपना गुज़ारा होता है। अनुवाद: जसारत = दिलेरी खसारा = नुकसान मआश = आजीविका |