ग़ज़ल Hindi Shayari

  • माने जो कोई बात, तो एक बात बहुत है;
    सदियों के लिए पल की मुलाक़ात बहुत है;

    दिन भीड़ के पर्दे में छुपा लेगा हर एक बात;
    ऐसे में न जाओ, कि अभी रात बहुत है;

    महीने में किसी रोज़, कहीं चाय के दो कप;
    इतना है अगर साथ, तो फिर साथ बहुत है;

    रसमन ही सही, तुमने चलो ख़ैरियत पूछी;
    इस दौर में अब इतनी मदारात बहुत है;

    दुनिया के मुक़द्दर की लक़ीरों को पढ़ें हम;
    कहते है कि मज़दूर का बस हाथ बहुत है;

    फिर तुमको पुकारूँगा कभी कोहे 'अना' से;
    ऐ दोस्त अभी गर्मी-ए-हालात बहुत है।
    ~ Ana Qasmi
  • मोहब्बत करने वालों के बहार-अफ़रोज़ सीनों में;
    रहा करती है शादाबी ख़ज़ाँ के भी महीनों में;

    ज़िया-ए-महर आँखों में है तौबा मह-जबीनों में;
    के फ़ितरत ने भरा है हुस्न ख़ुद अपना हसीनों में;

    हवा-ए-तुंद है गर्दाब है पुर-शोर धारा है;
    लिए जाते हैं ज़ौक-ए-आफ़ियत सी शय सफीनों में;

    मैं उन में हूँ जो हो कर आस्ताँ-ए-दोस्त से महरूम;
    लिए फिरते हैं सजदों की तड़प अपनी जबीनों में;

    मेरी ग़ज़लें पढ़ें सब अहल-ए-दिल और मस्त हो जाएँ;
    मय-ए-जज़्बात लाया हूँ मैं लफ़्ज़ी आब-गीनों में।
  • ज़ंजीर से उठती है सदा सहमी हुई सी;
    जारी है अभी गर्दिश-ए-पा सहमी हुई सी;

    दिल टूट तो जाता है पे गिर्या नहीं करता;
    क्या डर है के रहती है वफ़ा सहमी हुई सी;

    उठ जाए नज़र भूल के गर जानिब-ए-अफ़्लाक;
    होंटों से निकलती है दुआ सहमी हुई सी;

    हाँ हँस लो रफ़ीक़ो कभी देखी नहीं तुम ने;
    नम-नाक निगाहों में हया सहमी हुई सी;

    तक़सीर कोई हो तो सज़ा उम्र का रोना;
    मिट जाएँ वफ़ा में तो जज़ा सहमी हुई सी;

    है 'अर्श' वहाँ आज मुहीत एक ख़ामोशी;
    जिस राह से गुज़री थी क़ज़ा सहमी हुई सी।
    ~ Arsh Siddique
  • वफ़ा के शीश महल में सजा लिया मैनें;
    वो एक दिल जिसे पत्थर बना लिया मैनें;

    ये सोच कर कि न हो ताक में ख़ुशी कोई;
    ग़मों कि ओट में ख़ुद को छुपा लिया मैनें;

    कभी न ख़त्म किया मैं ने रोशनी का मुहाज़;
    अगर चिराग़ बुझा, दिल जला लिया मैनें;

    कमाल ये है कि जो दुश्मन पे चलाना था;
    वो तीर अपने कलेजे पे खा लिया मैनें;

    "क़तील" जिसकी अदावत में एक प्यार भी था;
    उस आदमी को गले से लगा लिया मैनें।
    ~ Qateel Shifai
  • सफ़ीना ग़र्क़ हुआ मेरा यूँ ख़ामोशी से;
    के सतह-ए-आब पे कोई हबाब तक न उठा;

    समझ न इज्ज़ इसे तेरे पर्दा-दार थे हम;
    हमारा हाथ जो तेरे नक़ाब तक न उठा;

    झिंझोड़ते रहे घबरा के वो मुझे लेकिन;
    मैं अपनी नींद से यौम-ए-हिसाब तक न उठा;

    जतन तो ख़ूब किए उस ने टालने के मगर;
    मैं उस की बज़्म से उस के जवाब तक न उठा।
    ~ Asif Raza
  • हुई है शाम तो आँखों में बस गया फिर तू;
    कहाँ गया है मेरे शहर के मुसाफ़िर तू;

    बहुत उदास है इक शख़्स तेरे जाने से;
    जो हो सके तो चला आ उसी की ख़ातिर तू;

    मेरी मिसाल कि इक नख़्ल-ए-ख़ुश्क-ए-सहरा हूँ;
    तेरा ख़याल कि शाख़-ए-चमन का ताइर तू;

    मैं जानता हूँ के दुनिया तुझे बदल देगी;
    मैं मानता हूँ के ऐसा नहीं बज़ाहिर तू;

    हँसी ख़ुशी से बिछड़ जा अगर बिछड़ना है;
    ये हर मक़ाम पे क्या सोचता है आख़िर तू;

    'फ़राज़' तूने उसे मुश्किलों में डाल दिया;
    ज़माना साहिब-ए-ज़र और सिर्फ़ शायर तू।
    ~ Ahmad Faraz
  • दिल को जब अपने गुनाहों का ख़याल आ जायेगा;
    साफ़ और शफ्फ़ाफ़ आईने में बाल आ जायेगा;

    भूल जायेंगी ये सारी क़हक़हों की आदतें;
    तेरी खुशहाली के सर पर जब ज़वाल आ जायेगा;

    मुसतक़िल सुनते रहे गर दास्ताने कोह कन;
    बे हुनर हाथों में भी एक दिन कमाल आ जायेगा;

    ठोकरों पर ठोकरे बन जायेंगी दरसे हयात;
    एक दिन दीवाने में भी ऐतेदाल आ जायेगा;

    बहरे हाजत जो बढ़े हैं वो सिमट जायेंगे ख़ुद;
    जब भी उन हाथों से देने का सवाल आ जायेगा।
    ~ Anwar Jalalpuri
  • हर एक लम्हे की रग में दर्द का रिश्ता धड़कता है;
    वहाँ तारा लरज़ता है जो याँ पत्ता खड़कता है;

    ढके रहते हैं गहरे अब्र में बातिन के सब मंज़र;
    कभी एक लहज़ा-ए-इदराक बिजली सा कड़कता है;

    मुझे दीवाना कर देती है अपनी मौत की शोख़ी;
    कोई मुझ में रग-ए-इज़हार की सूरत फड़कता है;

    फिर एक दिन आग लग जाती है जंगल में हक़ीक़त के;
    कहीं पहले-पहल एक ख़्वाब का शोला भड़कता है;

    मेरी नज़रें ही मेरे अक्स को मजरूह करती हैं;
    निगाहें मुर्तकिज़ होती हैं और शीशा तड़कता है।
    ~ Abdul Ahad Saaz
  • रूह प्यासी...

    रूह प्यासी कहाँ से आती है;
    ये उदासी कहाँ से आती है;

    दिल है शब दो का तो ऐ उम्मीद ;
    तू निदासी कहाँ से आती है;

    शौक में ऐशे वत्ल के हन्गाम;
    नाशिफासी कहाँ से आती है;

    एक ज़िन्दान-ए-बेदिली और शाम;
    ये सबासी कहाँ से आती है;

    तू है पहलू में फिर तेरी खुशबू;
    होके बासी कहाँ से आती है।
    ~ Jon Elia
  • ख़ुद हिजाबों सा ख़ुद जमाल सा था;
    दिल का आलम भी बे-मिसाल सा था;

    अक्स मेरा भी आइनों में नहीं;
    वो भी कैफ़ियत-ए-ख़याल सा था;

    दश्त में सामने था ख़ेमा-ए-गुल;
    दूरियों में अजब कमाल सा था;

    बे-सबब तो नहीं था आँखों में;
    एक मौसम के ला-ज़वाल सा था;

    ख़ौफ़ अँधेरों का डर उजालों से;
    सानेहा था तो हस्ब-ए-हाल सा था;

    क्या क़यामत है हुज्ला-ए-जाँ में;
    उस के होते हुए मलाल सा था;

    जिस की जानिब 'अदा' नज़र न उठी;
    हाल उस का भी मेरे हाल सा था।
    ~ Ada Jafri