हर एक बात पे कहते हो तुम कि तू क्या है; तुम्ही कहो कि ये अंदाजे-गुफ्तगू क्या है; न शोले में ये करिश्मा न बर्क में ये अदा; कोई बताओ कि वो शोखे-तुंद-ख़ू क्या है; ये रश्क है कि वो होता है हमसुखन तुमसे; वरगना खौफे-बद-अमोजिए-अदू क्या है; चिपक रहा है बदन लहू से पैरहन; हमारी जेब को अब हाजते-रफू क्या है; जला है जिस्म जहाँ दिल भी जल गया होगा; कुरेदते हो जो अब राख, जुस्तजू क्या है; बना है शह का मुसाहिब, फिरे है इतराता; वगरना शहर में ग़ालिब कि आबरू क्या है। |
झूठा निकला क़रार तेरा; अब किसको है ऐतबार तेरा; दिल में सौ लाख चुटकियाँ लीं; देखा बस हम ने प्यार तेरा; दम नाक में आ रहा था अपने; था रात ये इंतिज़ार तेरा; कर ज़बर जहाँ तलक़ तू चाहे; मेरा क्या, इख्तियार तेरा; लिपटूँ हूँ गले से आप अपने; समझूँ कि है किनार तेरा; 'इंशा' से मत रूठ, खफा हो; है बंदा जानिसार तेरा। |
तू भी चुप है मैं भी चुप हूँ यह कैसी तन्हाई है; तेरे साथ तेरी याद आई, क्या तू सचमुच आई है; शायद वो दिन पहला दिन था पलकें बोझल होने का; मुझ को देखते ही जब उन की अँगड़ाई शरमाई है; उस दिन पहली बार हुआ था मुझ को रफ़ाक़ात का एहसास; जब उस के मलबूस की ख़ुश्बू घर पहुँचाने आई है; हुस्न से अर्ज़ ए शौक़ न करना हुस्न को ज़ाक पहुँचाना है; हम ने अर्ज़ ए शौक़ न कर के हुस्न को ज़ाक पहुँचाई है; एक तो इतना हब्स है फिर मैं साँसें रोके बैठा हूँ; वीरानी ने झाड़ू दे के घर में धूल उड़ाई है। |
खुलेगी इस नज़र पे... खुलेगी इस नज़र पे चश्म-ए-तर आहिस्ता आहिस्ता; किया जाता है पानी में सफ़र आहिस्ता आहिस्ता; कोई ज़ंजीर फिर वापस वहीं पर ले के आती है; कठिन हो राह तो छूटता है घर आहिस्ता आहिस्ता; बदल देना है रास्ता या कहीं पर बैठ जाना है; कि थकता जा रहा है हमसफ़र आहिस्ता आहिस्ता; ख़लिश के साथ इस दिल से न मेरी जाँ निकल जाये; खिंचे तीर-ए-शनासाई मगर आहिस्ता आहिस्ता; मेरी शोला-मिज़ाजी को वो जंगल कैसे रास आये; हवा भी साँस लेती हो जिधर आहिस्ता आहिस्ता। |
फिर उसके जाते ही दिल सुनसान हो कर रह गया; अच्छा भला इक शहर वीरान हो कर रह गया; हर नक्श बतल हो गया अब के दयार-ए-हिज्र में; इक ज़ख्म गुज़रे वक्त की पहचान हो कर रह गया; रुत ने मेरे चारों तरफ खींचें हिसार-ए-बाम-ओ-दर; यह शहर फिर मेरे लिए ज़ान्दान हो कर रह गया; कुछ दिन मुझे आवाज़ दी लोगों ने उस के नाम से; फिर शहर भर में वो मेरी पहचान हो कर रह गया; इक ख्वाब हो कर रह गई गुलशन से अपनी निस्बतें; दिल रेज़ा रेज़ा कांच का गुलदान हो कर रह गया; ख्वाहिश तो थी "साजिद" मुझे तशीर-ए-मेहर-ओ-माह की; लेकिन फ़क़त मैं साहिब-ए-दीवान हो कर रह गया। |
हर एक रूह में एक ग़म छुपा लगे हैं मुझे; ये ज़िन्दगी तो कोई बद-दुआ लगे है मुझे; जो आँसू में कभी रात भीग जाती है; बहुत क़रीब वो आवाज़-ए-पा लगे है मुझे; मैं सो भी जाऊँ तो मेरी बंद आँखों में; तमाम रात कोई झाँकता लगे है मुझे; मैं जब भी उस के ख़यालों में खो सा जाता हूँ; वो ख़ुद भी बात करे तो बुरा लगे है मुझे; मैं सोचता था कि लौटूँगा अजनबी की तरह; ये मेरा गाँव तो पहचाना सा लगे है मुझे; बिखर गया है कुछ इस तरह आदमी का वजूद; हर एक फ़र्द कोई सानेहा लगे है मुझे। |
तुझे खोकर भी तुझे पाऊं जहाँ तक देखूँ; हुस्न-ए-यज़्दां से तुझे हुस्न-ए-बुतां तक देखूं; तूने यूं देखा है जैसे कभी देखा ही न था; मैं तो दिल में तेरे क़दमों के निशां तक देखूँ; सिर्फ़ इस शौक़ में पूछी हैं हज़ारों बातें; मै तेरा हुस्न तेरे हुस्न-ए-बयां तक देखूँ; वक़्त ने ज़ेहन में धुंधला दिये तेरे खद्द-ओ-खाल; यूं तो मैं तूटते तारों का धुआं तक देखूँ; दिल गया था तो ये आँखें भी कोई ले जाता; मैं फ़क़त एक ही तस्वीर कहाँ तक देखूँ; एक हक़ीक़त सही फ़िरदौस में हूरों का वजूद; हुस्न-ए-इन्सां से निपट लूं तो वहाँ तक देखूँ। |
भड़का रहे हैं आग... भड़का रहे हैं आग लब-ए-नग़्मागार से हम; ख़ामोश क्या रहेंगे ज़माने के डर से हम; कुछ और बड़ गए अंधेरे तो क्या हुआ; मायूस तो नहीं हैं तुलु-ए-सहर से हम; ले दे के अपने पास फ़क़त एक नज़र तो है; क्यों देखें ज़िंदगी को किसी की नज़र से हम माना कि इस ज़मीं को न गुलज़ार कर सके; कुछ ख़ार कम कर गए गुज़रे जिधर से हम। |
इस अहद में इलाही... इस अहद में इलाही मोहब्बत को क्या हुआ; छोड़ा वफ़ा को उन्ने मुरव्वत को क्या हुआ; उम्मीदवार वादा-ए-दीदार मर चले; आते ही आते यारों क़यामत को क्या हुआ; बख्शिश ने मुझ को अब्र-ए-करम की किया ख़िजल; ए चश्म-ए-जोश अश्क-ए-नदामत को क्या हुआ; जाता है यार तेग़ बकफ़ ग़ैर की तरफ़; ए कुश्ता-ए-सितम तेरी ग़ैरत को क्या हुआ। |
एक खिलौना टूट जाएगा... एक खिलौना टूट जाएगा नया मिल जाएगा; मैं नहीं तो कोई तुझ को दूसरा मिल जाएगा; भागता हूँ हर तरफ़ ऐसे हवा के साथ साथ; जिस तरह सच मुच मुझे उस का पता मिल जाएगा; किस तरह रोकोगे अश्कों को पस-ए-दीवार-ए-चश्म; ये तो पानी है इसे तो रास्ता मिल जाएगा; एक दिन तो ख़त्म होगी लफ़्ज़ ओ मानी की तलाश; एक दिन तो मुझ को मेरा मुद्दा मिल जाएगा; छोड़ ख़ाली घर को आ बाहर चलें घर से 'अदीम'; कुछ नहीं तो कोई चेहरा चाँद सा मिल जाएगा। |