कोई समझाए ये... कोई समझाए ये क्या रंग है मैख़ाने का; आँख साकी की उठे नाम हो पैमाने का; गर्मी-ए-शमा का अफ़साना सुनाने वालों; रक्स देखा नहीं तुमने अभी परवाने का; चश्म-ए-साकी मुझे हर गम पे याद आती है; रास्ता भूल न जाऊँ कहीं मैख़ाने का; अब तो हर शाम गुज़रती है उसी कूचे में; ये नतीजा हुआ ना से तेरे समझाने का; मंज़िल-ए-ग़म से गुज़रना तो है आसाँ 'इक़बाल'; इश्क है नाम ख़ुद अपने से गुज़र जाने का। |
आफत की शोख़ियां हैं... आफत की शोख़ियां हैं तुम्हारी निगाह में; मेहशर के फितने खेलते हैं जल्वा-गाह में; वो दुश्मनी से देखते हैं देखते तो हैं; मैं शाद हूँ कि हूँ तो किसी कि निगाह में; आती है बात बात मुझे याद बार बार; कहता हूं दौड़ दौड़ के कासिद से राह में; इस तौबा पर है नाज़ मुझे ज़ाहिद इस कदर; जो टूट कर शरीक हूँ हाल-ए-तबाह में; मुश्ताक इस अदा के बहुत दर्दमंद थे; ऐ 'दाग़' तुम तो बैठ गये एक आह में। |
झूठा निकला... झूठा निकला क़रार तेरा; अब किसको है ऐतबार तेरा ; दिल में सौ लाख चुटकियाँ लीं; देखा बस हम ने प्यार तेरा; दम नाक में आ रहा था अपने; था रात ये इंतज़ार तेरा; कर ज़बर जहाँ तलक़ तू चाहे; मेरा क्या, इख्तियार तेरा; लिपटूँ हूँ गले से आप अपने; समझूँ कि है किनार तेरा; 'इंशा' से मत रूठ, खफा हो; है बंदा जानिसार तेरा। |
वफ़ाएँ कर के जफ़ाओं का... वफ़ाएँ कर के जफ़ाओं का ग़म उठाए जा; इसी तरह से ज़माने को आज़माए जा; किसी में अपनी सिफ़त के सिवा कमाल नहीं; जिधर इशारा-ए-फ़ितरत हो सिर झुकाए जा; वो लौ रबाब से निकली धुआँ उठा दिल से; वफ़ा का राग इसी धुन में गुनगुनाए जा; नज़र के साथ मोहब्बत बदल नहीं सकती; नज़र बदल के मोहब्बत को आज़माए जा; ख़ुदी-ए-इश्क़ ने जिस दिन से खोल दीं आँखें; है आँसुओं का तक़ाज़ा कि मुस्कुराए जा; वफ़ा का ख़्वाब है 'एहसान' ख़्वाब-ए-बे-ताबीर; वफ़ाएँ कर के मुक़द्दर को आज़माए जा। |
न सोचा न समझा... न सोचा न समझा न सीखा न जाना; मुझे आ गया ख़ुदबख़ुद दिल लगाना; ज़रा देख कर अपना जल्वा दिखाना; सिमट कर यहीं आ न जाये ज़माना; ज़ुबाँ पर लगी हैं वफ़ाओं कि मुहरें; ख़मोशी मेरी कह रही है फ़साना; गुलों तक लगायी तो आसाँ है लेकिन; है दुशवार काँटों से दामन बचाना; करो लाख तुम मातम-ए-नौजवानी; प 'मीर' अब नहीं आयेगा वो ज़माना। |
तुम्हारे जैसे लोग जबसे... तुम्हारे जैसे लोग जबसे मेहरबान नहीं रहे; तभी से ये मेरे जमीन-ओ-आसमान नहीं रहे; खंडहर का रूप धरने लगे है बाग शहर के; वो फूल-ओ-दरख्त, वो समर यहाँ नहीं रहे; सब अपनी अपनी सोच अपनी फिकर के असीर हैं; तुम्हारें शहर में मेरे मिजाज़ दा नहीं रहे; उसे ये गम है, शहर ने हमारी बात जान ली; हमें ये दुःख है उस के रंज भी निहां नहीं रहे; बहुत है यूँ तो मेरे इर्द-गिर्द मेरे आशना; तुम्हारे बाद धडकनों के राजदान नहीं रहे; असीर हो के रह गए हैं शहर की फिजाओं में; परिंदे वाकई चमन के तर्जुमान नहीं रहे। |
आज भड़की रग-ए-वहशत... आज भड़की रग-ए-वहशत तेरे दीवानों की; क़िस्मतें जागने वाली हैं बयाबानों की; फिर घटाओं में है नक़्क़ारा-ए-वहशत की सदा; टोलियाँ बंध के चलीं दश्त को दीवानों की; आज क्या सूझ रही है तेरे दीवानों को; धज्जियाँ ढूँढते फिरते हैं गरेबानों की; रूह-ए-मजनूँ अभी बेताब है सहराओं में; ख़ाक बे-वजह नहीं उड़ती बयाबानों की; उस ने 'एहसान' कुछ इस नाज़ से मुड़ कर देखा; दिल में तस्वीर उतर आई परी-ख़ानों की। |
इस बार उन से मिल के जुदा हम जो हो गए; उन की सहेलियों के भी आँचल भिगो गए; चौराहों का तो हुस्न बढ़ा शहर के मगर; जो लोग नामवर थे वो पत्थर के हो गए; सब देख कर गुज़र गए एक पल में और हम; दीवार पर बने हुए मंज़र में खो गए; मुझ को भी जागने की अज़ीयत से दे नजात; ऐ रात अब तो घर के दर ओ बाम सो गए; किस किस से और जाने मोहब्बत जताते हम; अच्छा हुआ कि बाल ये चाँदी के हो गए; इतनी लहू-लुहान तो पहले फ़ज़ा न थी; शायद हमारी आँखों में अब ज़ख़्म हो गए; इख़्लास का मुज़ाहिरा करने जो आए थे; 'अज़हर' तमाम ज़ेहन में काँटे चुभो गए। |
शायद अभी है राख में कोई... शायद अभी है राख में कोई शरार भी; क्यों इंतज़ार भी है इज़्तिरार भी; ध्यान आ गया है मर्ग-ए-दिल-ए-नामुराद का; मिलने को मिल गया है सुकूँ भी क़रार भी; अब ढूँढने चले हो मुसाफ़िर को दोस्तो; हद-ए-निगाह तक न रहा जब ग़ुबार भी; हर आस्ताँ पे नासियाफ़र्सा हैं आज वो; जो कल न कर सके थे तेरा इन्तज़ार भी; इक राह रुक गई तो ठिठक क्यों गई आद; आबाद बस्तियाँ हैं पहाड़ों के पार भी। |
जागती रात अकेली... जागती रात अकेली-सी लगे; ज़िंदगी एक पहेली-सी लगे; रुप का रंग-महल, ये दुनिया; एक दिन सूनी हवेली-सी लगे; हम-कलामी तेरी ख़ुश आए उसे; शायरी तेरी सहेली-सी लगे; मेरी इक उम्र की साथी ये ग़ज़ल; मुझ को हर रात नवेली-सी लगे; रातरानी सी वो महके ख़ामोशी; मुस्कुरादे तो चमेली-सी लगे; फ़न की महकी हुई मेंहदी से रची; ये बयाज़ उस की हथेली-सी लगे। |