ग़ज़ल Hindi Shayari

  • अब कौन से मौसम से...

    अब कौन से मौसम से कोई आस लगाए;
    बरसात में भी याद जब न उनको हम आए;

    मिटटी की महक साँस की ख़ुश्बू में उतर कर;
    भीगे हुए सब्जे की तराई में बुलाए;

    दरिया की तरह मौज में आई हुई बरखा;
    ज़रदाई हुई रुत को हरा रंग पिलाए;

    बूँदों की छमाछम से बदन काँप रहा है;
    और मस्त हवा रक़्स की लय तेज़ कर जाए;

    हर लहर के पावों से लिपटने लगे घूँघरू;
    बारिश की हँसी ताल पे पाज़ेब जो छनकाए;

    अंगूर की बेलों पे उतर आए सितारे;
    रुकती हुई बारिश ने भी क्या रंग दिखाए।
    ~ Parveen Shakir
  • वो कभी मिल जाएँ तो...

    वो कभी मिल जाएँ तो क्या कीजिए;
    रात दिन सूरत को देखा कीजिए;

    चाँदनी रातों में इक इक फूल को;
    बे-ख़ुदी कहती है सजदा कीजिए;

    जो तमन्ना बर न आए उम्र भर;
    उम्र भर उस की तमन्ना कीजिए;

    इश्क़ की रंगीनियों में डूब कर;
    चाँदनी रातों में रोया कीजिए;

    पूछ बैठे हैं हमारा हाल वो;
    बे-ख़ुदी तू ही बता क्या कीजिए;

    हम ही उस के इश्क़ के क़ाबिल न थे;
    क्यों किसी ज़ालिम का शिकवा कीजिए;

    आप ही ने दर्द-ए-दिल बख़्शा हमें;
    आप ही इस का मुदावा कीजिए;

    कहते हैं 'अख़्तर' वो सुन कर मेरे शेर;
    इस तरह हम को न रुसवा कीजिए।
    ~ Akhtar Sheerani
  • रात के टुकड़ों पे...

    रात के टुकड़ों पे पलना छोड़ दे;
    शमा से कहना कि जलना छोड़ दे;

    मुश्किलें तो हर सफ़र का हुस्न हैं;
    कैसे कोई राह चलना छोड़ दे;

    तुझसे उम्मीदे - वफ़ा बेकार है;
    कैसे इक मौसम बदलना छोड़ दे;

    मैं तो ये हिम्मत दिखा पाया नहीं;
    तू ही मेरे साथ चलना छोड़ दे;

    कुछ तो कर आदाबे - महफ़िल का लिहाज़;
    यार ये पहलू बदलना छोड़ दे।
    ~ Wasim Barelvi
  • हम ही में थी न कोई बात...

    हम ही में थी न कोई बात याद न तुम को आ सके;
    तुम ने हमें भुला दिया हम न तुम्हें भुला सके;

    तुम ही न सुन के अगर क़िस्सा-ए-ग़म सुनेगा कौन;
    किस की ज़बान खुलेगी फिर हम न अगर सुना सके;

    होश में आ चुके थे हम जोश में आ चुके थे हम;
    बज़्म का रंग देख कर सर न मगर उठा सके;

    रौनक़-ए-बज़्म बन गए लब पे हिकायतें रहीं;
    दिल में शिकायतें रहीं लब न मगर हिला सके;

    शौक़-ए-विसाल है यहाँ लब पे सवाल है यहाँ;
    किस की मजाल है यहाँ हम से नज़र मिला सके;

    अहल-ए-ज़बाँ तो हैं बहुत कोई नहीं है अहल-ए-दिल;
    कौन तेरी तरह 'हफ़ीज' दर्द के गीत गा सके।
    ~ Hafeez Jalandhari
  • लगता नहीं है जी मेरा...

    लगता नहीं है जी मेरा उजड़े दयार में;
    किस की बनी है आलम-ए-नापायेदार में;

    कह दो इन हसरतों से कहीं और जा बसें;
    इतनी जगह कहाँ है दिल-ए-दाग़दार में;

    उम्र-ए-दराज़ माँग कर लाये थे चार दिन;
    दो आरज़ू में कट गये दो इंतज़ार में;

    काँटों को मत निकाल चमन से ओ बागबाँ;
    ये भी गुलों के साथ पले हैं बहार में;

    कितना है बदनसीब 'ज़फ़र' दफ़्न के लिये;
    दो गज़ ज़मीन भी न मिली कू-ए-यार में।

    अनुवाद:
    आलम-ए-नापायेदार = अस्थायी दुनिया
    सय्याद = शिकारी
    ~ Bahadur Shah Zafar
  • लहू न हो तो क़लम...

    लहू न हो तो क़लम तरजुमाँ नहीं होता;
    हमारे दौर में आँसू ज़ुबाँ नहीं होता;

    जहाँ रहेगा वहीं रौशनी लुटायेगा;
    किसी चिराग का अपना मकाँ नहीं होता;

    ये किस मक़ाम पे लाई है मेरी तनहाई;
    कि मुझ से आज कोई बदगुमाँ नहीं होता;

    मैं उस को भूल गया हूँ ये कौन मानेगा;
    किसी चिराग के बस में धुआँ नहीं होता;

    'वसीम' सदियों की आँखों से देखिये मुझ को;
    वो लफ़्ज़ हूँ जो कभी दास्ताँ नहीं होता।
    ~ Wasim Barelvi
  • तेरी उम्मीद तेरा इंतज़ार...

    तेरी उम्मीद तेरा इंतज़ार जब से है;
    न शब को दिन से शिकायत न दिन को शब से है;

    किसी का दर्द हो करते हैं तेरे नाम रक़म;
    गिला है जो भी किसी से तेरी सबब से है;

    हुआ है जब से दिल-ए-नासबूर बेक़ाबू;
    कलाम तुझसे नज़र को बड़ी अदब से है;

    अगर शरर है तो भड़के, जो फूल है तो खिले;
    तरह तरह की तलब तेरे रंग-ए-लब से है;

    कहाँ गये शब-ए-फ़ुरक़त के जागनेवाले;
    सितारा-ए-सहर हम-कलाम कब से है।
    ~ Faiz Ahmad Faiz
  • जीते-जी कूचा-ए-दिलदार से...

    जीते-जी कूचा-ए-दिलदार से जाया न गया;
    उसकी दीवार का सर से मेरे साया न गया;

    गुल में उसकी सी जो बू आई तो आया न गया;
    हमको बिन दोश-ए-सबा बाग से लाया न गया;

    दिल में रह दिल में कि मे मीर-ए-कज़ा से अब तक;
    ऐसा मतबूअ मकां कोई बनाया न गया;

    क्या तुनुक हौसला थे दीदा-ओ-दिल अपने, आह;
    एक दम राज़ मोहब्बत का छुपाया न गया;

    शहर-ए-दिल आह अजब जगह थी पर उसके गए;
    ऐसा उजड़ा कि किसी तरह बसाया ना गया।
    ~ Mir Taqi Mir
  • आपको देखकर...

    आपको देखकर देखता रह गया;
    क्या कहूँ और कहने को क्या रह गया;

    उनकी आँखों में कैसे छलकने लगा;
    मेरे होंठों पे जो माजरा रह गया;

    ऐसे बिछड़े सभी राह के मोड़ पर;
    आखिरी हमसफ़र रास्ता रह गया;

    सोच कर आओ कू-ए-तमन्ना है ये;
    जानेमन जो यहाँ रह गया रह गया!

    अनुवाद:
    कू-ए-तमन्ना = इच्छाओं की गली
    ~ Aziz Qaizi
  • हम उनसे अगर मिल बैठते...

    हम उनसे अगर मिल बैठते है, क्या दोष हमारा होता है;
    कुछ अपनी जसारत होती है, कुछ उनका इशारा होता है;

    कटने लगी रातें आँखों में, देखा नहीं पलकों पर अक्सर;
    याँ शामे-गरीबां का जुगनू या सुबह का तारा होता है;

    हम दिल को लिए हर देश फिरे इस जिंस के ग्राहक मिल न सके;
    ऐ बंजारों हम लोग चले, हमको तो खसारा होता है;

    दफ्तर से उठे कैफे में गए, कुछ शेर कहे कुछ कॉफ़ी पी;
    पूछो जो मआश का इंशा जी यूँ अपना गुज़ारा होता है।

    अनुवाद:
    जसारत = दिलेरी
    खसारा = नुकसान
    मआश = आजीविका
    ~ Ibn-e-Insha