इतना तो ज़िंदगी में... इतना तो ज़िंदगी में किसी की ख़लल पड़े; हँसने से हो सुकून ना रोने से कल पड़े; जिस तरह हँस रहा हूँ मैं पी-पी के अश्क-ए-ग़म; यूँ दूसरा हँसे तो कलेजा निकल पड़े; एक तुम के तुम को फ़िक्र-ए-नशेब-ओ-फ़राज़ है; एक हम के चल पड़े तो बहरहाल चल पड़े; मुद्दत के बाद उस ने जो की लुत्फ़ की निगाह; जी ख़ुश तो हो गया मगर आँसू निकल पड़े; साक़ी सभी को है ग़म-ए-तश्नालबी मगर; मय है उसी के नाम पे जिस के उबल पड़े। |
दूर से आये थे... दूर से आये थे साक़ी सुनके मयख़ाने को हम; बस तरसते ही चले अफ़सोस पैमाने को हम; मय भी है, मीना भी है, साग़र भी है साक़ी नहीं; दिल में आता है लगा दें आग मयख़ाने को हम; हमको फँसना था क़फ़ज़ में, क्या गिला सय्याद का; बस तरसते ही रहे हैं, आब और दाने को हम; बाग में लगता नहीं सहरा में घबराता है दिल; अब कहाँ ले जा कर बिठाऐं ऐसे दीवाने को हम; ताक-ए-आबरू में सनम के क्या ख़ुदाई रह गई; अब तो पूजेंगे उसी क़ाफ़िर के बुतख़ाने को हम; क्या हुई तक़्सीर हम से, तू बता दे ए 'नज़ीर'; ताकि शादी मर्ग समझें, ऐसे मर जाने को हम। |
राहत-ए-जाँ से तो ये दिल... राहत-ए-जाँ से तो ये दिल का बवाल अच्छा है; उस ने पूछा तो है इतना तेरा हाल अच्छा है; माह अच्छा है बहुत ही न ये साल अच्छा है; फिर भी हर एक से कहता हूँ कि हाल अच्छा है; तेरे आने से कोई होश रहे या न रहे; अब तलक तो तेरे बीमार का हाल अच्छा है; ये भी मुमकिन है तेरी बात ही बन जाए कोई; उसे दे दे कोई अच्छी सी मिसाल अच्छा है; दाएँ रुख़्सार पे आतिश की चमक वजह-ए-जमाल; बाएँ रुख़्सार की आग़ोश में ख़ाल अच्छा है; क्यों परखते हो सवालों से जवाबों को 'अदीम'; होंठ अच्छे हों तो समझो कि सवाल अच्छा है। |
कब वो ज़ाहिर होगा... कब वो ज़ाहिर होगा और हैरान कर देगा मुझे; जितनी भी मुश्किल में हूँ आसान कर देगा मुझे; रू-ब-रू कर के कभी अपने महकते सुर्ख होंठ; एक दो पल के लिए गुलदान कर देगा मुझे; रूह फूँकेगा मोहब्बत की मेरे पैकर में वो; फिर वो अपने सामने बे-जान कर देगा मुझे; ख़्वाहिशों का खून बहाएगा सर-ए-बाज़ार-ए-शौक़; और मुकम्मल बे-ए-सर-ओ-सामान कर देगा मुझे; एक ना-मौजूदगी रह जाएगी चारों तरफ़; रफ़्ता रफ़्ता इस क़दर सुनसान कर देगा मुझे; या तो मुझ से वो छुड़ा देगा ग़ज़ल-गोई 'ज़फ़र'; या किसी दिन साहब-ए-दीवान कर देगा मुझे। |
घर का रास्ता भी मिला था शायद... घर का रास्ता भी मिला था शायद; राह में संग-ए-वफ़ा था शायद; इस क़दर तेज़ हवा के झोंके; शाख़ पर फूल खिला था शायद; जिस की बातों के फ़साने लिखे; उस ने तो कुछ न कहा था शायद; लोग बे-मेहर न होते होंगे; वहम सा दिल को हुआ था शायद; तुझ को भूले तो दुआ तक भूले; और वही वक़्त-ए-दुआ था शायद; ख़ून-ए-दिल में तो डुबोया था क़लम; और फिर कुछ न लिखा था शायद; दिल का जो रंग है ये रंग-ए-'अदा'; पहले आँखों में रचा था शायद। |
छोटे छोटे कई बे-फ़ैज़... छोटे छोटे कई बे-फ़ैज़ मफ़ादात के साथ; लोग ज़िंदा हैं अजब सूरत-ए-हालात के साथ; फ़ैसला ये तो बहर-हाल तुझे करना है; ज़ेहन के साथ सुलगना है कि जज़्बात के साथ; गुफ़्तुगू देर से जारी है नतीजे के बग़ैर; एक नई बात निकल आती है हर बात के साथ; अब कि ये सोच के तुम ज़ख़्म-ए-जुदाई देना; दिल भी बुझ जाएगा ढलती हुई इस रात के साथ; तुम वही हो कि जो पहले थे मेरी नज़रों में; क्या इज़ाफ़ा हुआ अतलस ओ बानात के साथ; भेजता रहता है गुम-नाम ख़तों में कुछ फूल; इस क़दर किस को मोहब्बत है मेरी ज़ात के साथ। |
आफत की शोख़ियां हैं... आफत की शोख़ियां हैं तुम्हारी निगाह में; मेहशर के फितने खेलते हैं जल्वा-ए-गाह में; वो दुश्मनी से देखते हैं देखते तो हैं; मैं शाद हूँ कि हूँ तो किसी की निगाह में; आती है बात बात मुझे याद बार बार; कहता हूँ दौड़ दौड़ के कासिद से राह में; इस तौबा पर है नाज़ मुझे ज़ाहिद इस कदर; जो टूट कर शरीक हूँ हाल-ए-तबाह में; मुश्ताक इस अदा के बहुत दर्दमंद थे; ऐ दाग़ तुम तो बैठ गये एक आह में। |
निगाहों का मर्कज़... निगाहों का मर्कज़ बना जा रहा हूँ; मोहब्बत के हाथों लुटा जा रहा हूँ; मैं क़तरा हूँ लेकिन ब-आग़ोशे-दरिया; अज़ल से अबद तक बहा जा रहा हूँ; वही हुस्न जिसके हैं ये सब मज़ाहिर; उसी हुस्न से हल हुआ जा रहा हूँ; न जाने कहाँ से न जाने किधर को; बस इक अपनी धुन में उड़ा जा रहा हूँ; न सूरत न मआनी न पैदा, न पिन्हाँ ये किस हुस्न में गुम हुआ जा रहा हूँ। |
भीड़ है बर-सर-ए-बाज़ार... भीड़ है बर-सर-ए-बाज़ार कहीं और चलें; आ मेरे दिल मेरे ग़म-ख़्वार कहीं और चलें; कोई खिड़की नहीं खुलती किसी बाग़ीचे में; साँस लेना भी है दुश्वार कहीं और चलें; तू भी मग़मूम है मैं भी हूँ बहुत अफ़्सुर्दा; दोनों इस दुख से हैं दो-चार कहीं और चलें; ढूँढते हैं कोई सर-सब्ज़ कुशादा सी फ़ज़ा; वक़्त की धुंध के उस पार कहीं और चलें; ये जो फूलों से भरा शहर हुआ करता था; उस के मंज़र हैं दिल-आज़ार कहीं और चलें; ऐसे हँगामा-ए-महशर में तो दम घुटता है; बातें कुछ करनी हैं इस बार कहीं और चलें। |
कोई हँस रहा है... कोई हँस रहा है कोई रो रहा है; कोई पा रहा है कोई खो रहा है; कोई ताक में है किसी को है गफ़लत; कोई जागता है कोई सो रहा है; कहीँ नाउम्मीदी ने बिजली गिराई; कोई बीज उम्मीद के बो रहा है; इसी सोच में मैं तो रहता हूँ 'अकबर'; यह क्या हो रहा है यह क्यों हो रहा है |