तुझे इज़हार-ए-मोहब्बत... तुझे इज़हार-ए-मोहब्बत से अगर नफ़रत है; तूने होठों के लरज़ने को तो रोका होता; बे-नियाज़ी से, मगर कांपती आवाज़ के साथ; तूने घबरा के मेरा नाम न पूछा होता; तेरे बस में थी अगर मशाल-ए-जज़्बात की लौ; तेरे रुख्सार में गुलज़ार न भड़का होता; यूं तो मुझसे हुई सिर्फ़ आब-ओ-हवा की बातें; अपने टूटे हुए फ़िरक़ों को तो परखा होता; यूं ही बेवजह ठिठकने की ज़रूरत क्या थी; दम-ए-रुख्सत में अगर याद न आया होता। |
तुम्हारी राह में... तुम्हारी राह में मिट्टी के घर नहीं आते; इसीलिए तो तुम्हें हम नज़र नहीं आते; मोहब्बतों के दिनों की यही ख़राबी है; ये रूठ जाएँ तो फिर लौटकर नहीं आते; जिन्हें सलीका है तहज़ीब-ए-ग़म समझने का; उन्हीं के रोने में आँसू नज़र नहीं आते; ख़ुशी की आँख में आँसू की भी जगह रखना; बुरे ज़माने कभी पूछकर नहीं आते; बिसात-ए-इश्क पे बढ़ना किसे नहीं आता; यह और बात कि बचने के घर नहीं आते; 'वसीम' जहन बनाते हैं तो वही अख़बार; जो ले के एक भी अच्छी ख़बर नहीं आते। |
बेचैन बहारों में क्या-क्या है जान की ख़ुश्बू आती है; जो फूल महकता है उससे तूफ़ान की ख़ुश्बू आती है; कल रात दिखा के ख़्वाब-ए-तरब जो सेज को सूना छोड़ गया; हर सिलवट से फिर आज उसी मेहमान की ख़ुश्बू आती है; तल्कीन-ए-इबादत की है मुझे यूँ तेरी मुक़द्दस आँखों ने; मंदिर के दरीचों से जैसे लोबान की ख़ुश्बू आती है; कुछ और भी साँसें लेने पर मजबूर-सा मैं हो जाता हूँ; जब इतने बड़े जंगल में किसी इंसान की ख़ुश्बू आती है; डरता हूँ कहीं इस आलम में जीने से न मुनकिर हो जाऊँ; अहबाब की बातों से मुझको एहसान की ख़ुश्बू आती है। |
झूठा निकला... झूठा निकला क़रार तेरा; अब किसको है ऐतबार तेरा; दिल में सौ लाख चुटकियाँ लीं; देखा बस हम ने प्यार तेरा; दम नाक में आ रहा था अपने; था रात ये इंतज़ार तेरा; कर ज़बर जहाँ तलक़ तू चाहे; मेरा क्या, इख्तियार तेरा; लिपटूँ हूँ गले से आप अपने; समझूँ कि है किनार तेरा; 'इंशा' से मत रूठ, खफा हो; है बंदा जानिसार तेरा। |
इश्क़ को तक़लीद से... इश्क़ को तक़लीद से आज़ाद कर; दिल से गिरया आँख से फ़रियाद कर; बाज़ आ ऐ बंदा-ए-हुस्न मिज़ाज़; यूँ न अपनी ज़िंदगी बर्बाद कर; ऐ ख़यालों के मकीं नज़रों से दूर; मेरी वीराँ ख़ल्वतें आबाद कर; हुस्न को दुनिया की आँखों से न देख; अपनी इक तर्ज़-ए-नज़र ईजाद कर; इशरत-ए-दुनिया है इक ख़्वाब-ए-बहार; काबा-ए-दिल दर्द से आबाद कर; अब कहाँ 'एहसान' दुनिया में वफ़ा; तौबा कर नादाँ ख़ुदा को याद कर। |
ख़ून बर कर मुनासिब... ख़ून बर कर मुनासिब नहीं दिल बहे; दिल नहीं मानता कौन दिल से कहे; तेरी दुनिया में आए बहुत दिन रहे; सुख ये पाया कि हम ने बहुत दुख सहे; बुलबुलें गुल के आँसू नहीं चाटतीं; उन को अपनी ही मरग़ूब हैं चहचहे; आलम-ए-नज़ा में सुन रहा हूँ में क्या; ये अज़ीज़ों की चीख़ें हैं कया क़हक़हे; इस नए हुस्न की भी अदाओं पे हम; मर मिटेंगे ब-शर्ते-के ज़िंदा रहे; तुम 'हफ़ीज' अब घिसटने की मंज़िल में हो; दौर-ए-अय्याम पहिया है ग़म हैं रहे। |
दिल को क्या हो गया... दिल को क्या हो गया ख़ुदा जाने; क्यों है ऐसा उदास क्या जाने; कह दिया मैंने हाल-ए-दिल अपना; इस को तुम जानो या ख़ुदा जाने; जानते जानते ही जानेगा; मुझ में क्या है वो अभी क्या जाने; तुम न पाओगे सादा दिल मुझसा; जो तग़ाफ़ुल को भी हया जाने। |
कहीं से कोई हर्फ़-ए-मोतबर... कहीं से कोई हर्फ़-ए-मोतबर शायद न आए; मुसाफ़िर लौट कर अब अपने घर शायद न आए; क़फ़स में आब-ओ-दाने की फ़रावानी बहुत है; असीरों को ख़याल-ए-बाल-ओ-पर शायद न आए; किसे मालूम अहल-ए-हिज्र पर ऐसे भी दिन आएँ; क़यामत सर से गुज़रे और ख़बर शायद न आए; जहाँ रातों को पड़े रहते हैं आँखें मूँद कर लोग; वहाँ महताब में चेहरा नज़र शायद न आए; कभी ऐसा भी दिन निकले के जब सूरज के हम-राह; कोई साहिब-नज़र आए मगर शायद न आए; सभी को सहल-अंगारी हुनर लगने लगी है; सरों पर अब ग़ुबार-ए-रह-गुज़र शायद न आए। |
क्या बताऊं कैसा खुद को... क्या बताऊं कैसा खुद को दर-ब-दर मैंने किया; उम्र भर किस-किस के हिस्से का सफ़र मैंने किया; तू तो नफरत भी न कर पायेगा इस शिद्दत के साथ; जिस बला का प्यार तुझसे बेखबर मैंने किया; कैसे बच्चों को बताऊं रास्तों के पेचो-ख़म; ज़िंदगी भर तो किताबों का सफ़र मैंने किया; शोहरतों कि नज्र कर दी शेर की मासूमियत; उस दिये की रौशनी को दर-ब-दर मैंने किया; चाँद जज्बाती से रिश्ते को बचाने को 'वसीम'; कैसा-कैसा जब्र अपने आप पर मैंने किया। |
तेरे दर से उठकर... तेरे दर से उठकर जिधर जाऊं मैं; चलूँ दो कदम और ठहर जाऊं मैं; अगर तू ख़फा हो तो परवाह नहीं; तेरा गम ख़फा हो तो मर जाऊं मैं; तब्बसुम ने इतना डसा है मुझे; कली मुस्कुराए तो डर जाऊं मैं; सम्भाले तो हूँ खुदको, तुझ बिन मगर; जो छू ले कोई तो बिखर जाऊं मैं। |