ख़ून से जब जला दिया... ख़ून से जब जला दिया एक दिया बुझा हुआ; फिर मुझे दे दिया गया एक दिया बुझा हुआ; महफ़िल-ए-रंग-ओ-नूर की फिर मुझे याद आ गई; फिर मुझे याद आ गया एक दिया बुझा हुआ; मुझ को निशात से फ़ुजूँ रस्म-ए-वफ़ा अज़ीज़ है; मेरा रफी़क़-ए-शब रहा एक दिया बुझा हुआ; दर्द की कायनात में मुझ से भी रौशनी रही; वैसे मेरी बिसात क्या एक दिया बुझा हुआ; सब मेरी रौशनी-ए-जाँ हर्फ़-ए-सुख़न में ढल गई; और मैं जैसे रह गया एक दिया बुझा हुआ। |
मेरा जी है जब तक... मेरा जी है जब तक तेरी जुस्तजू है; ज़बाँ जब तलक है यही गुफ़्तगू है; ख़ुदा जाने क्या होगा अंजाम इसका; मै बेसब्र इतना हूँ वो तुन्द ख़ू है; तमन्ना है तेरी अगर है तमन्ना; तेरी आरज़ू है अगर आरज़ू है; किया सैर सब हमने गुलज़ार-ए-दुनिया; गुल-ए-दोस्ती में अजब रंग-ओ-बू है; ग़नीमत है ये दीद वा दीद-ए-याराँ; जहाँ मूँद गयी आँख, मैं है न तू है; नज़र मेरे दिल की पड़ी 'दर्द' किस पर; जिधर देखता हूँ वही रू-ब-रू है। |
तेरे लिए चलते थे... तेरे लिए चलते थे हम तेरे लिए ठहर गए; तू ने कहा तो जी उठे तू ने कहा तो मर गए; वक़्त ही जुदाई का इतना तवील हो गया; दिल में तेरे विसाल के जितने थे ज़ख़्म भर गए; होता रहा मुक़ाबला पानी का और प्यास का; सहरा उमड़ उमड़ पड़े दरिया बिफर बिफर गए; वो भी ग़ुबार-ए-ख़्वाब था हम ग़ुबार-ए-ख़्वाब थे; वो भी कहीं बिखर गया हम भी कहीं बिखर गए; आज भी इंतज़ार का वक़्त हुनूत हो गया; ऐसा लगा के हश्र तक सारे ही पल ठहर गए; इतने क़रीब हो गए अपने रक़ीब हो गए; वो भी 'अदीम' डर गया हम भी 'अदीम' डर गए। |
कोई कैसा हम सफर है... कोई कैसा हम सफर है, ये अभी से मत बताओ; अभी क्या पता किसी का, कि चली नहीं है नाव; ये ज़रूरी तो नहीं है, कि सदा रहे मरासिम; ये सफर की दोस्ती है, इसे रोग मत बनाओ; मेरे चारागर बहुत हैं, ये खलिश मगर है दिल में; कोई ऐसा हो कि, जिस को हों अज़ीज़ मेरे घाव; तुम्हें आईना गिरी में है, बहुत कमाल हासिल; मेरा दिल है किरच किरच, इसे जोड़ के दिखाओ; मुझे क्या पड़ी है 'साजिद', के पराई आग मांगू; मैं ग़ज़ल का आदमी हूँ, मेरे अपने हैं अलाव। |
आता है याद मुझको... आता है याद मुझको गुज़रा हुआ ज़माना; वो बाग़ की बहारें, वो सब का चह-चहाना; आज़ादियाँ कहाँ वो, अब अपने घोसले की; अपनी ख़ुशी से आना अपनी ख़ुशी से जाना; लगती हो चोट दिल पर, आता है याद जिस दम; शबनम के आँसुओं पर कलियों का मुस्कुराना; वो प्यारी-प्यारी सूरत, वो कामिनी-सी मूरत; आबाद जिस के दम से था मेरा आशियाना। |
घर का रस्ता... घर का रस्ता भी मिला था शायद; राह में संग-ए-वफ़ा था शायद; इस क़दर तेज़ हवा के झोंके; शाख़ पर फूल खिला था शायद; जिस की बातों के फ़साने लिखे; उस ने तो कुछ न कहा था शायद; लोग बे-मेहर न होते होंगे; वहम सा दिल को हुआ था शायद; तुझ को भूले तो दुआ तक भूले; और वही वक़्त-ए-दुआ था शायद; ख़ून-ए-दिल में तो डुबोया था क़लम; और फिर कुछ न लिखा था शायद; दिल का जो रंग है ये रंग-ए-'अदा' पहले आँखों में रचा था शायद। |
बड़ा वीरान मौसम है... बड़ा वीरान मौसम है कभी मिलने चले आओ; हर एक जानिब तेरा ग़म है कभी मिलने चले आओ; हमारा दिल किसी गहरी जुदाई के भँवर में है; हमारी आँख भी नम है कभी मिलने चले आओ; मेरे हम-राह अगरचे दूर तक लोगों की रौनक़ है; मगर जैसे कोई कम है कभी मिलने चले आओ; तुम्हें तो इल्म है मेरे दिल-ए-वहशी के ज़ख़्मों को; तुम्हारा वस्ल मरहम है कभी मिलने चले आओ; अँधेरी रात की गहरी ख़मोशी और तनहा दिल; दिए की लौ भी मद्धम है कभी मिलने चले आओ; हवाओं और फूलों की नई ख़ुशबू बताती है; तेरे आने का मौसम है कभी मिलने चले आओ। |
वो कभी मिल जाएँ तो... वो कभी मिल जाएँ तो क्या कीजिए; रात दिन सूरत को देखा कीजिए; चाँदनी रातों में एक एक फूल को; बे-ख़ुदी कहती है सजदा कीजिए; जो तमन्ना बर न आए उम्र भर; उम्र भर उस की तमन्ना कीजिए; इश्क़ की रंगीनियों में डूब कर; चाँदनी रातों में रोया कीजिए; हम ही उस के इश्क़ के क़ाबिल न थे; क्यों किसी ज़ालिम का शिकवा कीजिए; कहते हैं 'अख़्तर' वो सुन कर मेरे शेर; इस तरह हम को न रुसवा कीजिए। |
मुझ पे तूफ़ाँ... मुझ पे तूफ़ाँ उठाये लोगों ने; मुफ़्त बैठे बिठाये लोगों ने; कर दिए अपने आने-जाने के; तज़किरे जाये-जाये लोगों ने; वस्ल की बात कब बन आयी थी; दिल से दफ़्तर बनाये लोगों ने; बात अपनी वहाँ न जमने दी; अपने नक़्शे जमाये लोगों ने; सुनके उड़ती-सी अपनी चाहत की; दोनों के होश उड़ाये लोगों ने; क्या तमाशा है जो न देखे थे; वो तमाशे दिखाये लोगों ने; कर दिया 'मोमिन' उस सनम को ख़फ़ा; क्या किया हाये- हाये लोगों ने। |
दिल गया रौनक-ए-हयात दिल गया रौनक-ए-हयात गई; ग़म गया सारी कायनात गई; दिल धड़कते ही फिर गई वो नज़र; लब तक आई न थी कि बात गई; उनके बहलाए भी न बहला दिल; गएगां सइये-इल्तफ़ात गई; मर्गे आशिक़ तो कुछ नहीं लेकिन; इक मसीहा-नफ़स की बात गई; हाय सरशरायां जवानी की; आँख झपकी ही थी के रात गई; नहीं मिलता मिज़ाज-ए-दिल हमसे; ग़ालिबन दूर तक ये बात गई; क़ैद-ए-हस्ती से कब निजात 'जिगर'; मौत आई अगर हयात गई। |