अभी आँखें खुली हैं... अभी आँखें खुली हैं और क्या क्या देखने को; मुझे पागल किया उस ने तमाशा देखने को; वो सूरत देख ली हम ने तो फिर कुछ भी न देखा; अभी वर्ना पड़ी थी एक दुनिया देखने को; तमन्ना की किसे परवाह कि सोने जागने मे; मुयस्सर हैं बहुत ख़्वाब-ए-तमन्ना देखने को; ब-ज़ाहिर मुतमइन मैं भी रहा इस अंजुमन में; सभी मौजूद थे और वो भी ख़ुश था देखने को; अब उस को देख कर दिल हो गया है और बोझल; तरसता था यही देखो तो कितना देखने को; छुपाया हाथ से चेहरा भी उस ना-मेहरबाँ ने; हम आए थे 'ज़फ़र' जिस का सरापा देखने को। |
उलझाव का मज़ा भी... उलझाव का मज़ा भी तेरी बात ही में था; तेरा जवाब तेरे सवालात ही में था; साया किसी यक़ीं का भी जिस पर न पड़ सका; वो घर भी शहर-ए-दिल के मुज़ाफ़ात ही में था; इलज़ाम क्या है ये भी न जाना तमाम उम्र; मुल्ज़िम तमाम उम्र हवालात ही में था; अब तो फ़क़त बदन की मुरव्वत है दरमियाँ; था रब्त जान-ओ-दिल का तो शुरूआत ही में था; मुझ को तो क़त्ल करके मनाता रहा है जश्न; वो ज़िलिहाज़ शख़्स मेरी ज़ात ही में था। |
काँटा सा जो चुभा था... काँटा सा जो चुभा था वो लौ दे गया है क्या; घुलता हुआ लहू में ये ख़ुर्शीद सा है क्या; पलकों के बीच सारे उजाले सिमट गए; साया न साथ दे ये वही मरहला है क्या; मैं आँधियों के पास तलाश-ए-सबा में हूँ; तुम मुझ से पूछते हो मेरा हौसला है क्या; साग़र हूँ और मौज के हर दाएरे में हूँ; साहिल पे कोई नक़्श-ए-क़दम खो गया है क्या; सौ सौ तरह लिखा तो सही हर्फ़-ए-आरज़ू; इक हर्फ़-ए-आरज़ू ही मेरी इंतिहा है क्या; क्या फिर किसी ने क़र्ज़-ए-मुरव्वत अदा किया; क्यों आँख बे-सवाल है दिल फिर दुखा है क्या। |
अपने चेहरे से जो... अपने चेहरे से जो ज़ाहिर है छुपायें कैसे; तेरी मर्ज़ी के मुताबिक नज़र आयें कैसे; घर सजाने का तस्सवुर तो बहुत बाद का है; पहले ये तय हो कि इस घर को बचायें कैसे; क़हक़हा आँख का बर्ताव बदल देता है; हँसने वाले तुझे आँसू नज़र आयें कैसे; कोई अपनी ही नज़र से तो हमें देखेगा; एक क़तरे को समंदर नज़र आयें कैसे। |
अश्क आंखों में... अश्क आँखों में कब नहीं आता; लहू आता है जब नहीं आता; होश जाता नहीं रहा लेकिन; जब वो आता है तब नहीं आता; दिल से रुखसत हुई कोई ख्वाहिश; गिरिया कुछ बे-सबब नहीं आता; इश्क का हौसला है शर्त वरना; बात का किस को ढब नहीं आता; जी में क्या-क्या है अपने ऐ हमदम; हर सुखन ता बा-लब नहीं आता। |
न सियो होंठ... न सियो होंठ, न ख़्वाबों में सदा दो हम को; मस्लेहत का ये तकाज़ा है, भुला दो हम को; हम हक़ीक़त हैं, तो तसलीम न करने का सबब; हां अगर हर्फ़-ए-ग़लत हैं, तो मिटा दो हम को; शोरिश-ए-इश्क़ में है, हुस्न बराबर का शरीक; सोच कर ज़ुर्म-ए-मोहब्बत की, सज़ा दो हम को; मक़सद-जीस्त ग़म-ए-इश्क़ है, सहरा हो कि शहर; बैठ जाएंगे जहां चाहे, बिठा दो हम को। |
घर की दहलीज़ से... घर की दहलीज़ से बाज़ार में मत आ जाना; तुम किसी चश्म-ए-ख़रीदार में मत आ जाना; ख़ाक उड़ाना इन्हीं गलियों में भला लगता है; चलते फिरते किसी दरबार में मत आ जाना; यूँ ही ख़ुशबू की तरह फैलते रहना हर सू; तुम किसी दाम-ए-तलब-गार में मत आ जाना; दूर साहिल पे खड़े रह के तमाशा करना; किसी उम्मीद के मझदार में मत आ जाना; अच्छे लगते हो के ख़ुद-सर नहीं ख़ुद्दार हो तुम; हाँ सिमट के बुत-ए-पिंदार में मत आ जाना; चाँद कहता हूँ तो मतलब न ग़लत लेना तुम; रात को रोज़न-ए-दीवार में मत आ जाना। |
नसीब आज़माने के दिन... नसीब आज़माने के दिन आ रहे हैं; क़रीब उन के आने के दिन आ रहे हैं; जो दिल से कहा है जो दिल से सुना है; सब उनको सुनाने के दिन आ रहे हैं; अभी से दिल-ओ-जाँ सर-ए-राह रख दो; कि लुटने-लुटाने के दिन आ रहे हैं; टपकने लगी उन निगाहों से मस्ती; निगाहें चुराने के दिन आ रहे हैं; सबा फिर हमें पूछती फिर रही है; चमन को सजाने के दिन आ रहे हैं; चलो 'फ़ैज़' फिर से कहीं दिल लगायें; सुना है ठिकाने के दिन आ रहे हैं। |
दर्द अपनाता है... दर्द अपनाता है पराए कौन; कौन सुनता है और सुनाए कौन; कौन दोहराए वो पुरानी बात; ग़म अभी सोया है जगाए कौन; वो जो अपने हैं क्या वो अपने हैं; कौन दुख झेले आज़माए कौन; अब सुकूँ है तो भूलने में है; लेकिन उस शख़्स को भुलाए कौन; आज फिर दिल है कुछ उदास उदास; देखिये आज याद आए कौन। |
वफ़ाएँ कर के जफ़ाओं का ग़म... वफ़ाएँ कर के जफ़ाओं का ग़म उठाए जा; इसी तरह से ज़माने को आज़माए जा; किसी में अपनी सिफ़त के सिवा कमाल नहीं; जिधर इशारा-ए-फ़ितरत हो सर झुकाए जा; वो लौ रबाब से निकली धुआँ उठा दिल से; वफ़ा का राग इसी धुन में गुनगुनाए जा; नज़र के साथ मोहब्बत बदल नहीं सकती; नज़र बदल के मोहब्बत को आज़माए जा; ख़ुदी-ए-इश्क़ ने जिस दिन से खोल दीं आँखें; है आँसुओं का तक़ाज़ा कि मुस्कुराए जा; वफ़ा का ख़्वाब है 'एहसान' ख़्वाब-ए-बे-ताबीर; वफ़ाएँ कर के मुक़द्दर को आज़माए जा। |