ग़ज़ल Hindi Shayari

  • अभी आँखें खुली हैं...

    अभी आँखें खुली हैं और क्या क्या देखने को;
    मुझे पागल किया उस ने तमाशा देखने को;

    वो सूरत देख ली हम ने तो फिर कुछ भी न देखा;
    अभी वर्ना पड़ी थी एक दुनिया देखने को;

    तमन्ना की किसे परवाह कि सोने जागने मे;
    मुयस्सर हैं बहुत ख़्वाब-ए-तमन्ना देखने को;

    ब-ज़ाहिर मुतमइन मैं भी रहा इस अंजुमन में;
    सभी मौजूद थे और वो भी ख़ुश था देखने को;

    अब उस को देख कर दिल हो गया है और बोझल;
    तरसता था यही देखो तो कितना देखने को;

    छुपाया हाथ से चेहरा भी उस ना-मेहरबाँ ने;
    हम आए थे 'ज़फ़र' जिस का सरापा देखने को।
    ~ Zafar Iqbal
  • उलझाव का मज़ा भी...

    उलझाव का मज़ा भी तेरी बात ही में था;
    तेरा जवाब तेरे सवालात ही में था;

    साया किसी यक़ीं का भी जिस पर न पड़ सका;
    वो घर भी शहर-ए-दिल के मुज़ाफ़ात ही में था;

    इलज़ाम क्या है ये भी न जाना तमाम उम्र;
    मुल्ज़िम तमाम उम्र हवालात ही में था;

    अब तो फ़क़त बदन की मुरव्वत है दरमियाँ;
    था रब्त जान-ओ-दिल का तो शुरूआत ही में था;

    मुझ को तो क़त्ल करके मनाता रहा है जश्न;
    वो ज़िलिहाज़ शख़्स मेरी ज़ात ही में था।
    ~ Aziz Qaizi
  • काँटा सा जो चुभा था...

    काँटा सा जो चुभा था वो लौ दे गया है क्या;
    घुलता हुआ लहू में ये ख़ुर्शीद सा है क्या;

    पलकों के बीच सारे उजाले सिमट गए;
    साया न साथ दे ये वही मरहला है क्या;

    मैं आँधियों के पास तलाश-ए-सबा में हूँ;
    तुम मुझ से पूछते हो मेरा हौसला है क्या;

    साग़र हूँ और मौज के हर दाएरे में हूँ;
    साहिल पे कोई नक़्श-ए-क़दम खो गया है क्या;

    सौ सौ तरह लिखा तो सही हर्फ़-ए-आरज़ू;
    इक हर्फ़-ए-आरज़ू ही मेरी इंतिहा है क्या;

    क्या फिर किसी ने क़र्ज़-ए-मुरव्वत अदा किया;
    क्यों आँख बे-सवाल है दिल फिर दुखा है क्या।
    ~ Ada Jafri
  • अपने चेहरे से जो...

    अपने चेहरे से जो ज़ाहिर है छुपायें कैसे;
    तेरी मर्ज़ी के मुताबिक नज़र आयें कैसे;

    घर सजाने का तस्सवुर तो बहुत बाद का है;
    पहले ये तय हो कि इस घर को बचायें कैसे;

    क़हक़हा आँख का बर्ताव बदल देता है;
    हँसने वाले तुझे आँसू नज़र आयें कैसे;

    कोई अपनी ही नज़र से तो हमें देखेगा;
    एक क़तरे को समंदर नज़र आयें कैसे।
    ~ Wasim Barelvi
  • अश्क आंखों में...

    अश्क आँखों में कब नहीं आता;
    लहू आता है जब नहीं आता;

    होश जाता नहीं रहा लेकिन;
    जब वो आता है तब नहीं आता;

    दिल से रुखसत हुई कोई ख्वाहिश;
    गिरिया कुछ बे-सबब नहीं आता;

    इश्क का हौसला है शर्त वरना;
    बात का किस को ढब नहीं आता;

    जी में क्या-क्या है अपने ऐ हमदम;
    हर सुखन ता बा-लब नहीं आता।
    ~ Mir Taqi Mir
  • न सियो होंठ...

    न सियो होंठ, न ख़्वाबों में सदा दो हम को;
    मस्लेहत का ये तकाज़ा है, भुला दो हम को;

    हम हक़ीक़त हैं, तो तसलीम न करने का सबब;
    हां अगर हर्फ़-ए-ग़लत हैं, तो मिटा दो हम को;

    शोरिश-ए-इश्क़ में है, हुस्न बराबर का शरीक;
    सोच कर ज़ुर्म-ए-मोहब्बत की, सज़ा दो हम को;

    मक़सद-जीस्त ग़म-ए-इश्क़ है, सहरा हो कि शहर;
    बैठ जाएंगे जहां चाहे, बिठा दो हम को।
    ~ Ehsaan Danish
  • घर की दहलीज़ से...

    घर की दहलीज़ से बाज़ार में मत आ जाना;
    तुम किसी चश्म-ए-ख़रीदार में मत आ जाना;

    ख़ाक उड़ाना इन्हीं गलियों में भला लगता है;
    चलते फिरते किसी दरबार में मत आ जाना;

    यूँ ही ख़ुशबू की तरह फैलते रहना हर सू;
    तुम किसी दाम-ए-तलब-गार में मत आ जाना;

    दूर साहिल पे खड़े रह के तमाशा करना;
    किसी उम्मीद के मझदार में मत आ जाना;

    अच्छे लगते हो के ख़ुद-सर नहीं ख़ुद्दार हो तुम;
    हाँ सिमट के बुत-ए-पिंदार में मत आ जाना;

    चाँद कहता हूँ तो मतलब न ग़लत लेना तुम;
    रात को रोज़न-ए-दीवार में मत आ जाना।
    ~ Aitbar Sajid
  • नसीब आज़माने के दिन...

    नसीब आज़माने के दिन आ रहे हैं;
    क़रीब उन के आने के दिन आ रहे हैं;

    जो दिल से कहा है जो दिल से सुना है;
    सब उनको सुनाने के दिन आ रहे हैं;

    अभी से दिल-ओ-जाँ सर-ए-राह रख दो;
    कि लुटने-लुटाने के दिन आ रहे हैं;

    टपकने लगी उन निगाहों से मस्ती;
    निगाहें चुराने के दिन आ रहे हैं;

    सबा फिर हमें पूछती फिर रही है;
    चमन को सजाने के दिन आ रहे हैं;

    चलो 'फ़ैज़' फिर से कहीं दिल लगायें;
    सुना है ठिकाने के दिन आ रहे हैं।
    ~ Faiz Ahmad Faiz
  • दर्द अपनाता है...

    दर्द अपनाता है पराए कौन;
    कौन सुनता है और सुनाए कौन;

    कौन दोहराए वो पुरानी बात;
    ग़म अभी सोया है जगाए कौन;

    वो जो अपने हैं क्या वो अपने हैं;
    कौन दुख झेले आज़माए कौन;

    अब सुकूँ है तो भूलने में है;
    लेकिन उस शख़्स को भुलाए कौन;

    आज फिर दिल है कुछ उदास उदास;
    देखिये आज याद आए कौन।
    ~ Javed Akhtar
  • वफ़ाएँ कर के जफ़ाओं का ग़म...

    वफ़ाएँ कर के जफ़ाओं का ग़म उठाए जा;
    इसी तरह से ज़माने को आज़माए जा;

    किसी में अपनी सिफ़त के सिवा कमाल नहीं;
    जिधर इशारा-ए-फ़ितरत हो सर झुकाए जा;

    वो लौ रबाब से निकली धुआँ उठा दिल से;
    वफ़ा का राग इसी धुन में गुनगुनाए जा;

    नज़र के साथ मोहब्बत बदल नहीं सकती;
    नज़र बदल के मोहब्बत को आज़माए जा;

    ख़ुदी-ए-इश्क़ ने जिस दिन से खोल दीं आँखें;
    है आँसुओं का तक़ाज़ा कि मुस्कुराए जा;

    वफ़ा का ख़्वाब है 'एहसान' ख़्वाब-ए-बे-ताबीर;
    वफ़ाएँ कर के मुक़द्दर को आज़माए जा।
    ~ Ehsaan Danish