जब भी कश्ती मेरी... जब भी कश्ती मेरी सैलाब में आ जाती है; माँ दुआ करती हुई ख़्वाब में आ जाती है; रोज़ मैं अपने लहू से उसे ख़त लिखता हूँ; रोज़ उँगली मेरी तेज़ाब में आ जाती है; दिल की गलियों से तेरी याद निकलती ही नहीं; सोहनी फिर इसी पंजाब में आ जाती है; रात भर जागते रहने का सिला है शायद; तेरी तस्वीर-सी महताब में आ जाती है; ज़िन्दगी तू भी भिखारिन की रिदा ओढ़े हुए; कूचा-ए-रेशम-ओ-कमख़्वाब में आ जाती है; दुख किसी का हो छलक उठती हैं मेरी आँखें; सारी मिट्टी मेरे तालाब में आ जाती है। |
झूठा निकला क़रार तेरा... झूठा निकला क़रार तेरा; अब किसको है ऐतबार तेरा; दिल में सौ लाख चुटकियाँ लीं; देखा बस हम ने प्यार तेरा; दम नाक में आ रहा था अपने; था रात से इंतज़ार तेरा; कर ज़बर जहाँ तलक़ तू चाहे; मेरा क्या, इख्तियार तेरा; लिपटूँ हूँ गले से आप अपने; समझूँ कि है किनार तेरा; 'इंशा' से मत रूठ, खफा हो; है बंदा जानिसार तेरा। |
अब किस से कहें और कौन सुने... अब किस से कहें और कौन सुने जो हाल तुम्हारे बाद हुआ; इस दिल की झील सी आँखों में इक ख़्वाब बहुत बर्बाद हुआ; ये हिज्र-हवा भी दुश्मन है इस नाम के सारे रंगों की; वो नाम जो मेरे होंठों पे ख़ुशबू की तरह आबाद हुआ; उस शहर में कितने चेहरे थे कुछ याद नहीं सब भूल गए; इक शख़्स किताबों जैसा था वो शख़्स ज़ुबानी याद हुआ; वो अपने गाँव की गलियाँ थी दिल जिन में नाचता गाता था; अब इस से फ़र्क नहीं पड़ता नाशाद हुआ या शाद हुआ; बेनाम सताइश रहती थी इन गहरी साँवली आँखों में; ऐसा तो कभी सोचा भी न था अब जितना बेदाद हुआ। |
सोज़ में भी वही इक नग़्मा है... सोज़ में भी वही इक नग़्मा है जो साज़ में है; फ़र्क़ नज़दीक़ की और दूर की आवाज़ में है; ये सबब है कि तड़प सीना-ए-हर-साज़ में है; मेरी आवाज़ भी शामिल तेरी आवाज़ में है; जो न सूरत में न म'आनी में न आवाज़ में है; दिल की हस्ती भी उसी सिलसिला-ए-राज़ में है; आशिकों के दिले-मजरूह से कोई पूछे; वो जो इक लुत्फ़ निगाहे-ग़लत -अंदाज़ में है; गोशे-मुश्ताक़ की क्या बात है अल्लाह-अल्लाह; सुन रहा हूँ मैं जो नग़्मा जो अभी साज़ में है। |
कुछ दिन से इंतज़ारे... कुछ दिन से इंतज़ारे-सवाले-दिगर में है; वह मुज़्महिल हया जो किसी की नज़र में है; सीखी यहीं मिरे दिले-काफ़िर ने बंदगी; रब्बे-करीम है तो तेरी रहगुज़र में है; माज़ी में जो मज़ा मेरी शामो-सहर में था; अब वह फ़क़त तसव्वुरे-शामो-सहर में है; क्या जाने किसको किससे है अब दाद की तलब; वह ग़म जो मेरे दिल में है तेरी नज़र में है। |
कहाँ क़ातिल बदलते हैं... कहाँ क़ातिल बदलते हैं फ़क़त चेहरे बदलते हैं; अजब अपना सफ़र है फ़ासले भी साथ चलते हैं; बहुत कमजर्फ़ था जो महफ़िलों को कर गया वीराँ; न पूछो हाले चाराँ शाम को जब साए ढलते हैं; वो जिसकी रोशनी कच्चे घरों तक भी पहुँचती है; न वो सूरज निकलता है, न अपने दिन बदलते हैं; कहाँ तक दोस्तों की बेदिली का हम करें मातम; चलो इस बार भी हम ही सरे मक़तल निकलते हैं; हम अहले दर्द ने ये राज़ आखिर पा लिया 'जालिब'; कि दीप ऊँचे मकानों में हमारे खून से जलते हैं। |
ऐ दिल वो आशिक़ी के फ़साने... ऐ दिल वो आशिक़ी के फ़साने किधर गए; वो उम्र क्या हुई वो ज़माने किधर गए; वीरान है सहन ओ बाग़ बहारों को क्या हुआ; वो बुलबुलें कहाँ वो तराने किधर गए; है नज्द में सुकूत हवाओं को क्या हुआ; लैलाएँ हैं ख़मोश दीवाने किधर गए; उजड़े पड़े हैं दश्त ग़ज़ालों पे क्या बनी; सूने हैं कोह-सार दीवाने किधर गए; वो हिज्र में विसल की उम्मीद क्या हुई; वो रंज में ख़ुशी के बहाने किधर गए; दिन रात मयकदे में गुज़रती थी ज़िन्दगी; 'अख़्तर' वो बे-ख़ुदी के ज़माने किधर गए। |
इन आँखों से दिन रात... इन आँखों से दिन रात बरसात होगी; अगर ज़िंदगी सर्फ-ए-जज़्बात होगी; मुसाफ़िर हो तुम भी मुसाफ़िर हैं हम भी; किसी मोड़ पर फिर मुलाकात होगी; सदाओं की अल्फ़ाज़ मिलने ना पायें; ना बादल घेरेंगे ना बरसात होगी; चिरागों को आँखों मे महफूज रखना; बड़ी दूर तक रात ही रात होगी; अजल-ता-अब्द तक सफर हीं सफर है; कहीं सुबह होगी कहीं रात होगी। |
ये आरज़ू थी तुझे गुल के... ये आरज़ू थी तुझे गुल के रूबरू करते; हम और बुलबुल-ए-बेताब गुफ़्तगू करते; पयाम बर न मयस्सर हुआ तो ख़ूब हुआ; ज़बान-ए-ग़ैर से क्या शर की आरज़ू करते; मेरी तरह से माह-ओ-महर भी हैं आवारा; किसी हबीब को ये भी हैं जुस्तजू करते; जो देखते तेरी ज़ंजीर-ए-ज़ुल्फ़ का आलम; असीर होने के आज़ाद आरज़ू करते; न पूछ आलम-ए-बरगश्ता तालि-ए-आतिश; बरसती आग में जो बाराँ की आरज़ू करते। |
मुझ से काफ़िर को तेरे इश्क़ ने... मुझ से काफ़िर को तेरे इश्क़ ने यूँ शरमाया; दिल तुझे देख के धड़का तो खुदा याद आया; मेरे दिल पे तो है अब तक तेरे ग़म का साया; लोग कहते हैं नया दौर नए दुख लाया; मेरा मियार-ए-वफ़ा ही मेरी मज़बूरी है; रुख बदल कर भी तुझे अपने मुक़ाबिल पाया; चारागर आज सितारों की क़सम खा के बता; किस ने इंसान को तबस्सुम के लिए तड़पाया; लोग हँसते तो इस सोच में खो जाता हूँ; मौज-ए-सैलाब ने फिर किसका घरौंदा ढाया; उसके अंदर कोई फनकार छुपा बैठा है; जानते-बुझते जिस शख्स ने धोखा खाया। |