कभी बहुत है कभी ध्यान तेरा कुछ कम है, कभी हवा है कभी आँधियों का मौसम है; अभी न तोड़ा गया मुझ से कै़द-ए-हस्ती को, अभी शराब-ए-जुनूँ का नशा भी मद्धम है; कि जैसे साथ तिरे ज़िंदगी गुज़रती हो, तिरा ख़याल मिरे साथ ऐसे पैहम है; तमाम फ़िक्र-ए-ज़मान-ओ-मकाँ से छूट गई, सियाह-कारी-ए-दिल मुझे को ऐसा मरहम है; मैं ख़ुद मुसाफ़िर-ए-दिल हूँ उसे न रोकुँगी, वो ख़ुद ठहर न सकेगा जो कै़दी-ए-ग़म है; वौ शौक़-ए-तेज़-रवी है कि देखता है जहाँ, ज़मीं पे आग लगी आसमान बरहम है। |
कुछ हिज्र के मौसम ने सताया नहीं इतना, कुछ हम ने तेरा सोग मनाया नहीं इतना; कुछ तेरी जुदाई की अज़िय्यत भी कड़ी थी, कुछ दिल ने भी ग़म तेरा मनाया नहीं इतना; क्यूँ सब की तरह भीग गई हैं तेरी पलकें, हम ने तो तुझे हाल सुनाया नहीं इतना; कुछ रोज़ से दिल ने तेरी राहें नहीं देखीं, क्या बात है तू याद भी आया नहीं इतना; क्या जानिए इस बे-सर-ओ-सामानी-ए-दिल ने, पहले तो कभी हम को रुलाया नहीं इतना। |
अब मेरा दिल कोई मज़हब न मसीहा माँगे, ये तो बस प्यार से जीने का सलीका माँगे; ऐसी फ़सलों को उगाने की ज़रूरत क्या है, जो पनपने के लिए ख़ून का दरिया माँगें; सिर्फ़ ख़ुशियों में ही शामिल है ज़माना सारा, कौन है वो जो मेरे दर्द का हिस्सा माँगे; ज़ुल्म है, ज़हर है, नफ़रत है, जुनूँ है हर सू, ज़िन्दगी मुझसे कोई प्यार का रिश्ता माँगे; ये तआलुक है कि सौदा है या क्या है आख़र, लोग हर जश्न पे मेहमान से पैसा माँगें; कितना लाज़म है मुहब्बत में सलीका ऐ'अज़ीज़', ये ग़ज़ल जैसा कोई नर्म-सा लहज़ा माँगे। |
और कुछ तेज़ चलीं अब के हवाएँ शायद, घर बनाने की मिलीं हम को सज़ाएँ शायद; भर गए ज़ख़्म मसीहाई के मरहम के बग़ैर, माँ ने की हैं मिरे जीने की दुआएँ शायद; मैं ने कल ख़्वाब में ख़ुद अपना लहू देखा है, टल गईं सर से मिरे सारी बलाएँ शायद; मैं ने कल जिन को अंधेरों से दिलाई थी नजात, अब वह लोग मिरे दिल को जलाएँ शायद; फिर वही सर है वहीं संग-ए-मलामत उस का, दर-गुज़र कर दीं मिरी उस ने ख़ताएँ शायद; इस भरोसे पे खिला है मिरा दरवाज़ा 'रईस', रूठने वाले कभी लौट के आएँ शायद। |
हम से भी गाहे गाहे मुलाक़ात चाहिए, इंसान हैं सभी तो मसावात चाहिए; अच्छा चलो ख़ुदा न सही उन को क्या हुआ , आख़िर कोई तो क़ाज़ी-ए-हाजात चाहिए; है आक़बत ख़राब तो दुनिया ही ठीक हो, कोई तो सूरत-ए-गुज़र-औक़ात चाहिए; जाने पलक झपकने में क्या गुल खिलाए वक़्त, हर दम नज़र ब-सूरत-ए-हालात चाहिए; आएगी हम को रास न यक-रंगी-ए-ख़ला, अहल-ए-ज़मीं हैं हम हमें दिन रात चाहिए; वा कर दिए हैं इल्म ने दरिया-ए-मारिफ़त, अँधों को अब भी कश्फ़ ओ करामात चाहिए; जब क़ैस की कहानी अब अंजुम की दास्ताँ, दुनिया को दिल लगी के लिए बात चाहिए। |
ऐ दिल वो आशिक़ी के फ़साने किधर गए, वो उम्र क्या हुई वो ज़माने किधर गए; वीराँ हैं सहन-ओ-बाग़ बहारों को क्या हुआ, वो बुलबुलें कहाँ वो तराने किधर गए; है नज्द में सुकूत हवाओं को क्या हुआ, लैलाएँ हैं ख़मोश दिवाने किधर गए; उजड़े पड़े हैं दश्त ग़ज़ालों पे क्या बनी, सूने हैं कोहसार दिवाने किधर गए; v वो हिज्र में विसाल की उम्मीद क्या हुई, वो रंज में ख़ुशी के बहाने किधर गए; दिन रात मैकदे में गुज़रती थी ज़िन्दगी, 'अख़्तर' वो बेख़ुदी के ज़माने किधर गए। |
आँखों ने हाल कह दिया होंठ न फिर हिला सके, दिल में हज़ार ज़ख्म थे जो न उन्हें दिखा सके; घर में जो एक चिराग था तुम ने उसे बुझा दिया, कोई कभी चिराग हम घर में न फिर जला सके; शिकवा नहीं है अर्ज़ है मुमकिन अगर हो आप से, दीजे मुझ को ग़म जरूर दिल जो मिरा उठा सके; वक़्त क़रीब आ गया हाल अजीब हो गया, ऐसे में तेरा नाम हम फिर भी न लब पे ला सके; उस ने भुला के आप को नजरों से भी गिरा दिया, 'नासिर'-ए-ख़स्ता-हाल फिर क्यों न उसे भुला सके। |
आँखों में धूप दिल में हरारत लहू की थी, आतिश जवान था तो क़यामत लहू की थी; ज़ख़्मी हुआ बदन तो वतन याद आ गया, अपनी गिरह में एक रिवायत लहू की थी; ख़ंजर चला के मुझ पे बहुत ग़म-ज़दा हुआ, भाई के हर सुलूक में शिद्दत लहू की थी; कोह-ए-गिराँ के सामने शीशे की क्या बिसात, अहद-ए-जुनूँ में सारी शरारत लहू की थी; रूख़्सार ओ चश्म ओ लब गुल ओ सहबा शफ़क़ हिना, दुनिया-ए-रंग-ओ-बू में तिजारत लहू की थी; 'ख़ालिद' हर एक ग़म में बराबर का शरीक था, सारे जहाँ के बीच रफ़ाकत लहू की थी। |
अपना घर छोड़ के हम लोग वहाँ तक पहुँचे, सुब्ह-ए-फ़र्दा की किरन भी न जहाँ तक पहुँचे; मैं ने आँखों में छुपा रक्खे हैं कुछ और चराग़, रौशनी सुब्ह की शायद न यहाँ तक पहुँचे; बे-कहे बात समझ लो तो मुनासिब होगा, इस से पहले के यही बात ज़बाँ तक पहुँचे; तुम ने हम जैसे मुसाफ़िर भी न देखे होंगे, जो बहारों से चले और ख़िज़ाँ तक पहुँचे; आज पिंदार-ए-तमन्ना का फ़ुसूँ टूट गया; चंद कम-ज़र्फ़ गिले नोक-ए-ज़बाँ तक पहुँचे। |
साफ़ ज़ाहिर है निगाहों से कि हम मरते हैं, मुँह से कहते हुए ये बात मगर डरते हैं; एक तस्वीर-ए-मोहब्बत है जवानी गोया, जिस में रंगो की एवज़ ख़ून-ए-जिगर भरते हैं; इशरत-ए-रफ़्ता ने जा कर न किया याद हमें, इशरत-ए-रफ़्ता को हम याद किया करते हैं; आसमां से कभी देखी न गई अपनी ख़ुशी, अब ये हालात हैं कि हम हँसते हुए डरते हैं; शेर कहते हो बहुत ख़ूब तुम "अख्तर" लेकिन, अच्छे शायर ये सुना है कि जवां मरते हैं। |