अपने हमराह जो आते हो इधर से पहले, दश्त पड़ता है मियां इश्क़ में घर से पहले; चल दिये उठके सू-ए-शहर-ए-वफ़ा कू-ए-हबीब, पूछ लेना था किसी ख़ाक बसर से पहले; इश्क़ पहले भी किया हिज्र का ग़म भी देखा, इतने तड़पे हैं न घबराये न तरसे पहले; जी बहलता ही नहीं अब कोई सअत कोई पल, रात ढलती ही नहीं चार पहर से पहले; हम किसी दर पे न ठिठके न कहीं दस्तक दी, सैकड़ों दर थे मेरी जां तेरे दर से पहले; चाँद से आँख मिली जी का उजाला जागा, हमको सौ बार हुई सुबह सहर से पहल। |
मैं इस उम्मीद पे डूबा के तू बचा लेगा; अब इसके बाद मेरा इम्तेहान क्या लेगा; ये एक मेला है वादा किसी से क्या लेगा; ढलेगा दिन तो हर एक अपना रास्ता लेगा; मैं बुझ गया तो हमेशा को बुझ ही जाऊँगा; कोई चराग़ नहीं हूँ जो फिर जला लेगा; कलेजा चाहिए दुश्मन से दुश्मनी के लिए; जो बे-अमल है वो बदला किसी से क्या लेगा; मैं उसका हो नहीं सकता बता न देना उसे; सुनेगा तो लकीरें हाथ की अपनी जला लेगा; हज़ार तोड़ के आ जाऊँ उस से रिश्ता वसीम; मैं जानता हूँ वो जब चाहेगा बुला लेगा। |
तेरे दर से उठकर... तेरे दर से उठकर जिधर जाऊं मैं; चलूँ दो कदम और ठहर जाऊं मैं; अगर तू ख़फा हो तो परवा नहीं; तेरा गम ख़फा हो तो मर जाऊं मैं; तब्बसुम ने इतना डसा है मुझे; कली मुस्कुराए तो डर जाऊं मैं; सम्भाले तो हूँ खुदको, तुझ बिन मगर; जो छू ले कोई तो बिखर जाऊं मैं। |
पहले तो अपने दिल की... पहले तो अपने दिल की रज़ा जान जाइये; फिर जो निगाह-ए-यार कहे मान जाइये; पहले मिज़ाज-ए-राहगुज़र जान जाइये; फिर गर्द-ए-राह जो भी कहे मान जाइये; कुछ कह रही है आपके सीने की धड़कने; मेरी सुनें तो दिल का कहा मान जाइये; इक धूप सी जमी है निगाहों के आस पास; ये आप हैं तो आप पे क़ुर्बान जाइये; शायद हुज़ूर से कोई निस्बत हमें भी हो; आँखों में झाँक कर हमें पहचान जाइये। |
आज भड़की रग-ए-वहशत तेरे दीवानों की; क़िस्मतें जागने वाली हैं बयाबानों की; फिर घटाओं में है नक़्क़ारा-ए-वहशत की सदा; टोलियाँ बंध के चलीं दश्त को दीवानों की; आज क्या सूझ रही है तिरे दीवानों को; धज्जियाँ ढूँढते फिरते हैं गरेबानों की; रूह-ए-मजनूँ अभी बेताब है सहराओं में; ख़ाक बे-वजह नहीं उड़ती बयाबानों की; उस ने 'एहसान' कुछ इस नाज़ से मुड़ कर देखा; दिल में तस्वीर उतर आई परी-ख़ानों की। |
मैं खिल नहीं सका कि मुझे नम नहीं मिला; साक़ी मिरे मिज़ाज का मौसम नहीं मिला; मुझ में बसी हुई थी किसी और की महक; दिल बुझ गया कि रात वो बरहम नहीं मिला; बस अपने सामने ज़रा आँखें झुकी रहीं; वर्ना मिरी अना में कहीं ख़म नहीं मिला; उस से तरह तरह की शिकायत रही मगर; मेरी तरफ़ से रंज उसे कम नहीं मिला; एक एक कर के लोग बिछड़ते चले गए; ये क्या हुआ कि वक़्फ़ा-ए-मातम नहीं मिला। |
अक्सर मिलना ऐसा हुआ बस; लब खोले और उसने कहा बस; तब से हालत ठीक नहीं है; मीठा मीठा दर्द उठा बस; सारी बातें खोल के रखो; मैं हूं तुम हो और खुदा बस; तुमने दुख में आंख भिगोई; मैने कोई शेर कहा बस; वाकिफ़ था मैं दर्द से उसके; मिल कर मुझसे फूट पड़ा बस; जाने भी तो बात हटाओ; तुम जीते मैं हार गया बस; इस सहरा में इतना कर दे; मीठा चश्मा,पेड़,हवा बस। |
तेरी सूरत जो दिलनशीं की है; आशना शक्ल हर हसीं की है; हुस्न से दिल लगा के हस्ती की; हर घड़ी हमने आतशीं की है; सुबह-ए-गुल हो की शाम-ए-मैख़ाना; मदह उस रू-ए-नाज़नीं की है; शैख़ से बे-हिरास मिलते हैं; हमने तौबा अभी नहीं की है; ज़िक्र-ए-दोज़ख़, बयान-ए-हूर-ओ-कुसूर; बात गोया यहीं कहीं की है; फ़ैज़ औज-ए-ख़याल से हमने; आसमां सिन्ध की ज़मीं की है। |
अब किस से कहें और कौन सुने जो हाल तुम्हारे बाद हुआ; इस दिल की झील सी आँखों में इक ख़्वाब बहुत बर्बाद हुआ; ये हिज्र-हवा भी दुश्मन है इस नाम के सारे रंगों की; वो नाम जो मेरे होंटों पे ख़ुशबू की तरह आबाद हुआ; उस शहर में कितने चेहरे थे कुछ याद नहीं सब भूल गए; इक शख़्स किताबों जैसा था वो शख़्स ज़बानी याद हुआ; वो अपने गाँव की गलियाँ थी दिल जिन में नाचता गाता था; अब इस से फ़र्क नहीं पड़ता नाशाद हुआ या शाद हुआ; बेनाम सताइश रहती थी इन गहरी साँवली आँखों में; ऐसा तो कभी सोचा भी न था अब जितना बेदाद हुआ। |
कुछ तो तन्हाई की रातों में सहारा होता; तुम न होते न सही ज़िक्र तुम्हारा होता; तर्क-ए-दुनिया का ये दावा है फ़ुज़ूल ऐ ज़ाहिद; बार-ए-हस्ती तो ज़रा सर से उतारा होता; वो अगर आ न सके मौत ही आई होती; हिज्र में कोई तो ग़म-ख़्वार हमारा होता; ज़िन्दगी कितनी मुसर्रत से गुज़रती या रब; ऐश की तरह अगर ग़म भी गवारा होता; अज़मत-ए-गिर्या को कोताह-नज़र क्या समझें; अश्क अगर अश्क न होता तो सितारा होता; कोई हम-दर्द ज़माने में न पाया 'अख़्तर'; दिल को हसरत ही रही कोई हमारा होता। |