ग़ज़ल Hindi Shayari

  • सीने में जलन...

    सीने में जलन, आँखों में तूफ़ान-सा क्यों है;
    इस शहर में हर शख़्स परेशान-सा क्यों है;

    दिल है तो धड़कने का बहाना कोई ढूँढे;
    पत्थर की तरह बेहिस-ओ-बेजान-सा क्यों है;

    तन्हाई की ये कौन-सी मंज़िल है रफ़ीक़ो;
    ता-हद्द-ए-नज़र एक बियाबान-सा क्यों है;

    हमने तो कोई बात निकाली नहीं ग़म की;
    वो ज़ूद-ए-पशेमान, परेशान-सा क्यों है;

    क्या कोई नई बात नज़र आती है हममें;
    आईना हमें देख के हैरान-सा क्यों है।
    ~ Aklakh Mohammad Khan
  • समझ रहे हैं मगर बोलने का यारा नहीं;
    जो हम से मिल के बिछड़ जाए वो हमारा नहीं;

    अभी से बर्फ़ उलझने लगी है बालों से;
    अभी तो क़र्ज़-ए-मह-ओ-साल भी उतारा नहीं;

    बस एक शाम उसे आवाज़ दी थी हिज्र की शाम;
    फिर उस के बाद उसे उम्र भर पुकारा नहीं;

    समंदरों को भी हैरत हुई के डूबते वक़्त;
    किसी को हम ने मदद के लिए पुकारा नहीं;

    वो हम नहीं थे तो फिर कौन था सर-ए-बाज़ार;
    जो कह रहा था के बिकना हमें गवारा नहीं;

    हम अहल-ए-दिल हैं मोहब्बत की निस्बतों के अमीन;
    हमारे पास ज़मीनों का गोशवारा नहीं।
    ~ Iftikhar Arif
  • कभी मुझ को साथ लेकर, कभी मेरे साथ चल के;
    वो बदल गए अचानक, मेरी ज़िन्दगी बदल के;

    हुए जिस पे मेहरबाँ, तुम कोई ख़ुशनसीब होगा;
    मेरी हसरतें तो निकलीं, मेरे आँसूओं में ढल के;

    तेरी ज़ुल्फ़-ओ-रुख़ के, क़ुर्बाँ दिल-ए-ज़ार ढूँढता है;
    वही चम्पई उजाले, वही सुरमई धुंधल के;

    कोई फूल बन गया है, कोई चाँद कोई तारा;
    जो चिराग़ बुझ गए हैं, तेरी अंजुमन में जल के;

    मेरे दोस्तो ख़ुदारा, मेरे साथ तुम भी ढूँढो;
    वो यहीं कहीं छुपे हैं, मेरे ग़म का रुख़ बदल के;

    तेरी बेझिझक हँसी से, न किसी का दिल हो मैला;
    ये नगर है आईनों का, यहाँ साँस ले संभल के।
    ~ Ahsaan Danish
  • नींद की ओस से...

    नींद की ओस से पलकों को भिगोये कैसे;
    जागना जिसका मुकद्दर हो वो सोये कैसे;

    रेत दामन में हो या दश्त में बस रेत ही है;
    रेत में फस्ल-ए-तमन्ना कोई बोये कैसे;

    ये तो अच्छा है कोई पूछने वाला न रहा;
    कैसे कुछ लोग मिले थे हमें खोये कैसे;

    रूह का बोझ तो उठता नहीं दीवाने से;
    जिस्म का बोझ मगर देखिये ढोये कैसे;

    वरना सैलाब बहा ले गया होगा सब कुछ;
    आँख की ज़ब्त की ताकीद है रोये कैसे।
    ~ Shahryar
  • कब याद मे तेरा साथ नहीं, कब हाथ में तेरा हाथ नहीं;
    साद शुक्र की अपनी रातो में अब हिज्र की कोई रात नहीं;

    मुश्किल है अगर हालत वह, दिल बेच आए, जा दे आए;
    दिल वालो कूचा-ए-जाना में, क्या ऐसे भी हालात नहीं;

    जिस धज से कोई मकतल में गया, वो शान सलामत रहती है;
    ये जान तो आनी-जानी है, इस जान की तो कोई बात नहीं;

    मैदान-ए-वफ़ा दरबार नहीं, या नाम-ओ-नसब की पूछ कहाँ;
    आशिक तो किसी का नाम नहीं, कुछ इश्क किसी की जात नहीं;

    गर बाज़ी इश्क की बाज़ी है, ओ चाहो लगा दो दर कैसा;
    गर जीत गए तो क्या कहने, हारे भी तो बाज़ी मात नहीं।
    ~ Faiz Ahmad Faiz
  • वक़्त का झोंका जो सब पत्ते उड़ा कर ले गया;
    क्यों न मुझ को भी तेरे दर से उठा कर ले गया;

    रात अपने चाहने वालों पे था वो मेहर-बाँ;
    मैं न जाता था मगर वो मुझ को आ कर ले गया;

    एक सैल-ए-बे-अमाँ जो आसियों को था सज़ा;
    नेक लोगों के घरों को भी बहा कर ले गया;

    मैं ने दरवाज़ा न रक्खा था के डरता था मगर;
    घर का सरमाया वो दीवारें गिरा कर ले गया;

    वो अयादत को तो आया था मगर जाते हुए;
    अपनी तस्वीरें भी कमरे से उठा कर ले गया;

    मेहर-बाँ कैसे कहूँ मैं 'अर्श' उस बे-दर्द को;
    नूर आँखों का जो इक जलवा दिखा कर ले गया।
    ~ Arsh Siddique
  • तेरी हर बात मोहब्बत में...

    तेरी हर बात मोहब्बत में गंवारा करके;
    दिल के बाज़ार में बैठे हैँ ख़सारा करके;

    एक चिंगारी नज़र आई थी बस्ती में उसे;
    वो अलग हट गया आँधी को इशारा करके;

    मुन्तज़िर हूँ कि सितारों की ज़रा आँख लगे;
    चाँद को छत पे बुला लूँगा इशारा करके;

    मैं वो दरिया हूँ कि हर बूँद भंवर है जिसकी;
    तुमने अच्छा ही किया मुझसे किनारा करके।
    ~ Rahat Indori
  • और सब भूल गए...

    और सब भूल गए हर्फ-ए-सदाक़त लिखना;
    रह गया काम हमारा ही बगावत लिखना;

    न सिले की न सताइश की तमन्ना हमको;
    हक में लोगों के हमारी तो है आदत लिखना;

    हम ने तो भूलके भी शह का कसीदा न लिखा;
    शायद आया इसी खूबी की बदौलत लिखना;

    दह्र के ग़म से हुआ रब्त तो हम भूल गए;
    सर्व-क़ामत की जवानी को क़यामत लिखना;

    कुछ भी कहते हैं कहें शह के मुसाहिब 'जालिब';
    रंग रखना यही अपना, इसी सूरत लिखना।
    ~ Habib Jalib
  • न रवा कहिये न...

    न रवा कहिये न सज़ा कहिये;
    कहिये कहिये मुझे बुरा कहिये;

    दिल में रखने की बात है ग़म-ए-इश्क़;
    इस को हर्गिज़ न बर्मला कहिये;

    वो मुझे क़त्ल कर के कहते हैं;
    मानता ही न था ये क्या कहिये;

    आ गई आप को मसिहाई;
    मरने वालो को मर्हबा कहिये;

    होश उड़ने लगे रक़ीबों के;
    "दाग" को और बेवफ़ा कहिये।
    ~ Daagh Dehlvi
  • तू इस क़दर मुझे अपने क़रीब लगता है;
    तुझे अलग से जो सोचू अजीब लगता है;

    जिसे ना हुस्न से मतलब ना इश्क़ से सरोकार;
    वो शख्स मुझ को बहुत बदनसीब लगता है;

    हदूद-ए-जात से बाहर निकल के देख ज़रा;
    ना कोई गैर, ना कोई रक़ीब लगता है;

    ये दोस्ती, ये मरासिम, ये चाहते ये खुलूस;
    कभी कभी ये सब कुछ अजीब लगता है;

    उफक़ पे दूर चमकता हुआ कोई तारा;
    मुझे चिराग-ए-दयार-ए-हबीब लगता है;

    ना जाने कब कोई तूफान आयेगा यारो;
    बलंद मौज से साहिल क़रीब लगता है।
    ~ Jaan Nisar Akhtar