सीने में जलन... सीने में जलन, आँखों में तूफ़ान-सा क्यों है; इस शहर में हर शख़्स परेशान-सा क्यों है; दिल है तो धड़कने का बहाना कोई ढूँढे; पत्थर की तरह बेहिस-ओ-बेजान-सा क्यों है; तन्हाई की ये कौन-सी मंज़िल है रफ़ीक़ो; ता-हद्द-ए-नज़र एक बियाबान-सा क्यों है; हमने तो कोई बात निकाली नहीं ग़म की; वो ज़ूद-ए-पशेमान, परेशान-सा क्यों है; क्या कोई नई बात नज़र आती है हममें; आईना हमें देख के हैरान-सा क्यों है। |
समझ रहे हैं मगर बोलने का यारा नहीं; जो हम से मिल के बिछड़ जाए वो हमारा नहीं; अभी से बर्फ़ उलझने लगी है बालों से; अभी तो क़र्ज़-ए-मह-ओ-साल भी उतारा नहीं; बस एक शाम उसे आवाज़ दी थी हिज्र की शाम; फिर उस के बाद उसे उम्र भर पुकारा नहीं; समंदरों को भी हैरत हुई के डूबते वक़्त; किसी को हम ने मदद के लिए पुकारा नहीं; वो हम नहीं थे तो फिर कौन था सर-ए-बाज़ार; जो कह रहा था के बिकना हमें गवारा नहीं; हम अहल-ए-दिल हैं मोहब्बत की निस्बतों के अमीन; हमारे पास ज़मीनों का गोशवारा नहीं। |
कभी मुझ को साथ लेकर, कभी मेरे साथ चल के; वो बदल गए अचानक, मेरी ज़िन्दगी बदल के; हुए जिस पे मेहरबाँ, तुम कोई ख़ुशनसीब होगा; मेरी हसरतें तो निकलीं, मेरे आँसूओं में ढल के; तेरी ज़ुल्फ़-ओ-रुख़ के, क़ुर्बाँ दिल-ए-ज़ार ढूँढता है; वही चम्पई उजाले, वही सुरमई धुंधल के; कोई फूल बन गया है, कोई चाँद कोई तारा; जो चिराग़ बुझ गए हैं, तेरी अंजुमन में जल के; मेरे दोस्तो ख़ुदारा, मेरे साथ तुम भी ढूँढो; वो यहीं कहीं छुपे हैं, मेरे ग़म का रुख़ बदल के; तेरी बेझिझक हँसी से, न किसी का दिल हो मैला; ये नगर है आईनों का, यहाँ साँस ले संभल के। |
नींद की ओस से... नींद की ओस से पलकों को भिगोये कैसे; जागना जिसका मुकद्दर हो वो सोये कैसे; रेत दामन में हो या दश्त में बस रेत ही है; रेत में फस्ल-ए-तमन्ना कोई बोये कैसे; ये तो अच्छा है कोई पूछने वाला न रहा; कैसे कुछ लोग मिले थे हमें खोये कैसे; रूह का बोझ तो उठता नहीं दीवाने से; जिस्म का बोझ मगर देखिये ढोये कैसे; वरना सैलाब बहा ले गया होगा सब कुछ; आँख की ज़ब्त की ताकीद है रोये कैसे। |
कब याद मे तेरा साथ नहीं, कब हाथ में तेरा हाथ नहीं; साद शुक्र की अपनी रातो में अब हिज्र की कोई रात नहीं; मुश्किल है अगर हालत वह, दिल बेच आए, जा दे आए; दिल वालो कूचा-ए-जाना में, क्या ऐसे भी हालात नहीं; जिस धज से कोई मकतल में गया, वो शान सलामत रहती है; ये जान तो आनी-जानी है, इस जान की तो कोई बात नहीं; मैदान-ए-वफ़ा दरबार नहीं, या नाम-ओ-नसब की पूछ कहाँ; आशिक तो किसी का नाम नहीं, कुछ इश्क किसी की जात नहीं; गर बाज़ी इश्क की बाज़ी है, ओ चाहो लगा दो दर कैसा; गर जीत गए तो क्या कहने, हारे भी तो बाज़ी मात नहीं। |
वक़्त का झोंका जो सब पत्ते उड़ा कर ले गया; क्यों न मुझ को भी तेरे दर से उठा कर ले गया; रात अपने चाहने वालों पे था वो मेहर-बाँ; मैं न जाता था मगर वो मुझ को आ कर ले गया; एक सैल-ए-बे-अमाँ जो आसियों को था सज़ा; नेक लोगों के घरों को भी बहा कर ले गया; मैं ने दरवाज़ा न रक्खा था के डरता था मगर; घर का सरमाया वो दीवारें गिरा कर ले गया; वो अयादत को तो आया था मगर जाते हुए; अपनी तस्वीरें भी कमरे से उठा कर ले गया; मेहर-बाँ कैसे कहूँ मैं 'अर्श' उस बे-दर्द को; नूर आँखों का जो इक जलवा दिखा कर ले गया। |
तेरी हर बात मोहब्बत में... तेरी हर बात मोहब्बत में गंवारा करके; दिल के बाज़ार में बैठे हैँ ख़सारा करके; एक चिंगारी नज़र आई थी बस्ती में उसे; वो अलग हट गया आँधी को इशारा करके; मुन्तज़िर हूँ कि सितारों की ज़रा आँख लगे; चाँद को छत पे बुला लूँगा इशारा करके; मैं वो दरिया हूँ कि हर बूँद भंवर है जिसकी; तुमने अच्छा ही किया मुझसे किनारा करके। |
और सब भूल गए... और सब भूल गए हर्फ-ए-सदाक़त लिखना; रह गया काम हमारा ही बगावत लिखना; न सिले की न सताइश की तमन्ना हमको; हक में लोगों के हमारी तो है आदत लिखना; हम ने तो भूलके भी शह का कसीदा न लिखा; शायद आया इसी खूबी की बदौलत लिखना; दह्र के ग़म से हुआ रब्त तो हम भूल गए; सर्व-क़ामत की जवानी को क़यामत लिखना; कुछ भी कहते हैं कहें शह के मुसाहिब 'जालिब'; रंग रखना यही अपना, इसी सूरत लिखना। |
न रवा कहिये न... न रवा कहिये न सज़ा कहिये; कहिये कहिये मुझे बुरा कहिये; दिल में रखने की बात है ग़म-ए-इश्क़; इस को हर्गिज़ न बर्मला कहिये; वो मुझे क़त्ल कर के कहते हैं; मानता ही न था ये क्या कहिये; आ गई आप को मसिहाई; मरने वालो को मर्हबा कहिये; होश उड़ने लगे रक़ीबों के; "दाग" को और बेवफ़ा कहिये। |
तू इस क़दर मुझे अपने क़रीब लगता है; तुझे अलग से जो सोचू अजीब लगता है; जिसे ना हुस्न से मतलब ना इश्क़ से सरोकार; वो शख्स मुझ को बहुत बदनसीब लगता है; हदूद-ए-जात से बाहर निकल के देख ज़रा; ना कोई गैर, ना कोई रक़ीब लगता है; ये दोस्ती, ये मरासिम, ये चाहते ये खुलूस; कभी कभी ये सब कुछ अजीब लगता है; उफक़ पे दूर चमकता हुआ कोई तारा; मुझे चिराग-ए-दयार-ए-हबीब लगता है; ना जाने कब कोई तूफान आयेगा यारो; बलंद मौज से साहिल क़रीब लगता है। |