आज किसी ने बातों बातों में... आज किसी ने बातों बातों में, जब उन का नाम लिया; दिल ने जैसे ठोकर खाई, दर्द ने बढ़कर थाम लिया; घर से दामन झाड़ के निकले, वहशत का सामान न पूछ; यानी गर्द-ए-राह से हमने, रख़्त-ए-सफ़र का काम लिया; दीवारों के साये-साये, उम्र बिताई दीवाने; मुफ़्त में तनासानि-ए-ग़म का अपने पर इल्ज़ाम लिया; राह-ए-तलब में चलते चलते, थक के जब हम चूर हुए; ज़ुल्फ़ की ठंडी छांव में बैठे, पल दो पल आराम लिया; होंठ जलें या सीना सुलगे, कोई तरस कब खाता है; जाम उसी का जिसने 'ताबाँ', जुर्रत से कुछ काम लिया। |
मेरे क़ाबू में न... मेरे क़ाबू में न पहरों दिल-ए-नाशाद आया; वो मेरा भूलने वाला जो मुझे याद आया; दी मुअज्जिन ने शब-ए-वस्ल अज़ान पिछली रात; हाए कम-बख्त के किस वक्त ख़ुदा याद आया; लीजिए सुनिए अब अफ़साना-ए-फुर्कत मुझ से; आप ने याद दिलाया तो मुझे याद आया; आप की महिफ़ल में सभी कुछ है मगर 'दाग़' नहीं' मुझ को वो ख़ाना-ख़राब आज बहुत याद आया। |
कुछ हिज्र के मौसम... कुछ हिज्र के मौसम ने सताया नहीं इतना; कुछ हम ने तेरा सोग मनाया नहीं इतना; कुछ तेरी जुदाई की अज़िय्यत भी कड़ी थी; कुछ दिल ने भी ग़म तेरा मनाया नहीं इतना; क्यों सब की तरह भीग गई हैं तेरी पलकें; हम ने तो तुझे हाल सुनाया नहीं इतना; कुछ रोज़ से दिल ने तेरी राहें नहीं देखीं; क्या बात है तू याद भी आया नहीं इतना; क्या जानिए इस बे-सर-ओ-सामानी-ए-दिल ने; पहले तो कभी हम को रुलाया नहीं इतना। |
खोलिए आँख तो... खोलिए आँख तो मंज़र है नया और बहुत; तू भी क्या कुछ है मगर तेरे सिवा और बहुत; जो खता की है जज़ा खूब ही पायी उसकी; जो अभी की ही नहीं, उसकी सज़ा और बहुत; खूब दीवार दिखाई है ये मज़बूरी की; यही काफी है बहाने न बना, और बहुत; सर सलामत है तो सज़दा भी कहीं कर लूँगा; ज़ुस्तज़ु चाहिए , बन्दों को खुदा और बहुत। |
तेरी उम्मीद तेरा इंतज़ार... तेरी उम्मीद तेरा इंतज़ार जब से है; न शब को दिन से शिकायत न दिन को शब से है; किसी का दर्द हो करते हैं तेरे नाम रक़म; गिला है जो भी किसी से तेरी सबब से है; हुआ है जब से दिल-ए-नासबूर बेक़ाबू; कलाम तुझसे नज़र को बड़ी अदब से है; अगर शरर है तो भड़के, जो फूल है तो खिले; तरह तरह की तलब तेरे रंग-ए-लब से है; कहाँ गये शब-ए-फ़ुरक़त के जागने वाले; सितारा-ए-सहर हम-कलाम कब से है। |
ये आरज़ू थी... ये आरज़ू थी तुझे गुल के रूबरू करते; हम और बुलबुल-ए-बेताब गुफ़्तगू करते; पयाम बर न मयस्सर हुआ तो ख़ूब हुआ; ज़बान-ए-ग़ैर से क्या शर की आरज़ू करते; मेरी तरह से माह-ओ-महर भी हैं आवारा; किसी हबीब को ये भी हैं जुस्तजू करते; जो देखते तेरी ज़ंजीर-ए-ज़ुल्फ़ का आलम; असीर होने के आज़ाद आरज़ू करते; न पूछ आलम-ए-बरगश्ता तालि-ए-'आतिश'; बरसती आग में जो बाराँ की आरज़ू करते। |
जागती रात अकेली-सी लगे; ज़िंदगी एक पहेली-सी लगे; रुप का रंग-महल, ये दुनिया; एक दिन सूनी हवेली-सी लगे; हम-कलामी तेरी ख़ुश आए उसे; शायरी तेरी सहेली-सी लगे; मेरी इक उम्र की साथी ये ग़ज़ल; मुझ को हर रात नवेली-सी लगे; रातरानी सी वो महके ख़ामोशी; मुस्कुरादे तो चमेली-सी लगे; फ़न की महकी हुई मेंहदी से रची; ये बयाज़ उस की हथेली-सी लगे। |
आँख से आँख... आँख से आँख मिलाता है कोई; दिल को खींचे लिए जाता है कोई; वा-ए-हैरत के भरी महफ़िल में; मुझ को तन्हा नज़र आता है कोई; चाहिए ख़ुद पे यक़ीन-ए-कामिल; हौंसला किस का बढ़ाता है कोई; सब करिश्मात-ए-तसव्वुर है 'शकील'; वरना आता है न जाता है कोई। |
उसके पहलू से... उसके पहलू से लग के चलते हैं; हम कहीं टालने से टलते हैं; मै उसी तरह तो बहलता हूँ; और सब जिस तरह बहलतें हैं; वो है जान अब हर एक महफ़िल की; हम भी अब घर से कम निकलते हैं; क्या तकल्लुफ्फ़ करें ये कहने में; जो भी खुश है हम उससे जलते हैं। |
कई बार इसका दामन भर दिया हुस्ने-दो-आलम से; मगर दिल है कि उसकी खाना-वीरानी नहीं जाती; कई बार इसकी खातिर ज़र्रे-ज़र्रे का जिगर चीरा; मगर ये चश्म-ए-हैरां, जिसकी हैरानी नहीं जाती; नहीं जाती मताए-लाला-ओ-गौहर की गरांयाबी; मताए-ग़ैरत-ओ-ईमां की अरज़ानी नहीं जाती; मेरी चश्म-ए-तन आसां को बसीरत मिल गयी जब से; बहुत जानी हुई सूरत भी पहचानी नहीं जाती; सरे-ख़ुसरव से नाज़-ए-कज़कुलाही छिन भी जाता है; कुलाह-ए-ख़ुसरवी से बू-ए-सुल्तानी नहीं जाती; ब-जुज़ दीवानगी वां और चारा ही कहो क्या है; जहां अक़्ल-ओ-खिरद की एक भी मानी नहीं जाती। |