ग़ज़ल Hindi Shayari

  • आज किसी ने बातों बातों में...

    आज किसी ने बातों बातों में, जब उन का नाम लिया;
    दिल ने जैसे ठोकर खाई, दर्द ने बढ़कर थाम लिया;

    घर से दामन झाड़ के निकले, वहशत का सामान न पूछ;
    यानी गर्द-ए-राह से हमने, रख़्त-ए-सफ़र का काम लिया;

    दीवारों के साये-साये, उम्र बिताई दीवाने;
    मुफ़्त में तनासानि-ए-ग़म का अपने पर इल्ज़ाम लिया;

    राह-ए-तलब में चलते चलते, थक के जब हम चूर हुए;
    ज़ुल्फ़ की ठंडी छांव में बैठे, पल दो पल आराम लिया;

    होंठ जलें या सीना सुलगे, कोई तरस कब खाता है;
    जाम उसी का जिसने 'ताबाँ', जुर्रत से कुछ काम लिया।
    ~ Ghulam Rabbani Taban
  • मेरे क़ाबू में न...

    मेरे क़ाबू में न पहरों दिल-ए-नाशाद आया;
    वो मेरा भूलने वाला जो मुझे याद आया;

    दी मुअज्जिन ने शब-ए-वस्ल अज़ान पिछली रात;
    हाए कम-बख्त के किस वक्त ख़ुदा याद आया;

    लीजिए सुनिए अब अफ़साना-ए-फुर्कत मुझ से;
    आप ने याद दिलाया तो मुझे याद आया;

    आप की महिफ़ल में सभी कुछ है मगर 'दाग़' नहीं'
    मुझ को वो ख़ाना-ख़राब आज बहुत याद आया।
    ~ Daagh Dehlvi
  • कुछ हिज्र के मौसम...

    कुछ हिज्र के मौसम ने सताया नहीं इतना;
    कुछ हम ने तेरा सोग मनाया नहीं इतना;

    कुछ तेरी जुदाई की अज़िय्यत भी कड़ी थी;
    कुछ दिल ने भी ग़म तेरा मनाया नहीं इतना;

    क्यों सब की तरह भीग गई हैं तेरी पलकें;
    हम ने तो तुझे हाल सुनाया नहीं इतना;

    कुछ रोज़ से दिल ने तेरी राहें नहीं देखीं;
    क्या बात है तू याद भी आया नहीं इतना;

    क्या जानिए इस बे-सर-ओ-सामानी-ए-दिल ने;
    पहले तो कभी हम को रुलाया नहीं इतना।
    ~ Adeem Hashmi
  • खोलिए आँख तो...

    खोलिए आँख तो मंज़र है नया और बहुत;
    तू भी क्या कुछ है मगर तेरे सिवा और बहुत;

    जो खता की है जज़ा खूब ही पायी उसकी;
    जो अभी की ही नहीं, उसकी सज़ा और बहुत;

    खूब दीवार दिखाई है ये मज़बूरी की;
    यही काफी है बहाने न बना, और बहुत;

    सर सलामत है तो सज़दा भी कहीं कर लूँगा;
    ज़ुस्तज़ु चाहिए , बन्दों को खुदा और बहुत।
    ~ Zafar Iqbal
  • तेरी उम्मीद तेरा इंतज़ार...

    तेरी उम्मीद तेरा इंतज़ार जब से है;
    न शब को दिन से शिकायत न दिन को शब से है;

    किसी का दर्द हो करते हैं तेरे नाम रक़म;
    गिला है जो भी किसी से तेरी सबब से है;

    हुआ है जब से दिल-ए-नासबूर बेक़ाबू;
    कलाम तुझसे नज़र को बड़ी अदब से है;

    अगर शरर है तो भड़के, जो फूल है तो खिले;
    तरह तरह की तलब तेरे रंग-ए-लब से है;

    कहाँ गये शब-ए-फ़ुरक़त के जागने वाले;
    सितारा-ए-सहर हम-कलाम कब से है।
    ~ Faiz Ahmad Faiz
  • ये आरज़ू थी...

    ये आरज़ू थी तुझे गुल के रूबरू करते;
    हम और बुलबुल-ए-बेताब गुफ़्तगू करते;

    पयाम बर न मयस्सर हुआ तो ख़ूब हुआ;
    ज़बान-ए-ग़ैर से क्या शर की आरज़ू करते;

    मेरी तरह से माह-ओ-महर भी हैं आवारा;
    किसी हबीब को ये भी हैं जुस्तजू करते;

    जो देखते तेरी ज़ंजीर-ए-ज़ुल्फ़ का आलम;
    असीर होने के आज़ाद आरज़ू करते;

    न पूछ आलम-ए-बरगश्ता तालि-ए-'आतिश';
    बरसती आग में जो बाराँ की आरज़ू करते।
    ~ Atish
  • जागती रात अकेली-सी लगे;
    ज़िंदगी एक पहेली-सी लगे;

    रुप का रंग-महल, ये दुनिया;
    एक दिन सूनी हवेली-सी लगे;

    हम-कलामी तेरी ख़ुश आए उसे;
    शायरी तेरी सहेली-सी लगे;

    मेरी इक उम्र की साथी ये ग़ज़ल;
    मुझ को हर रात नवेली-सी लगे;

    रातरानी सी वो महके ख़ामोशी;
    मुस्कुरादे तो चमेली-सी लगे;

    फ़न की महकी हुई मेंहदी से रची;
    ये बयाज़ उस की हथेली-सी लगे।
    ~ Abdul Ahad Saaz
  • आँख से आँख...

    आँख से आँख मिलाता है कोई;
    दिल को खींचे लिए जाता है कोई;

    वा-ए-हैरत के भरी महफ़िल में;
    मुझ को तन्हा नज़र आता है कोई;

    चाहिए ख़ुद पे यक़ीन-ए-कामिल;
    हौंसला किस का बढ़ाता है कोई;

    सब करिश्मात-ए-तसव्वुर है 'शकील';
    वरना आता है न जाता है कोई।
    ~ Shakeel Badayuni
  • उसके पहलू से...

    उसके पहलू से लग के चलते हैं;
    हम कहीं टालने से टलते हैं;

    मै उसी तरह तो बहलता हूँ;
    और सब जिस तरह बहलतें हैं;

    वो है जान अब हर एक महफ़िल की;
    हम भी अब घर से कम निकलते हैं;

    क्या तकल्लुफ्फ़ करें ये कहने में;
    जो भी खुश है हम उससे जलते हैं।
    ~ Jon Elia
  • कई बार इसका दामन भर दिया हुस्ने-दो-आलम से;
    मगर दिल है कि उसकी खाना-वीरानी नहीं जाती;

    कई बार इसकी खातिर ज़र्रे-ज़र्रे का जिगर चीरा;
    मगर ये चश्म-ए-हैरां, जिसकी हैरानी नहीं जाती;

    नहीं जाती मताए-लाला-ओ-गौहर की गरांयाबी;
    मताए-ग़ैरत-ओ-ईमां की अरज़ानी नहीं जाती;

    मेरी चश्म-ए-तन आसां को बसीरत मिल गयी जब से;
    बहुत जानी हुई सूरत भी पहचानी नहीं जाती;

    सरे-ख़ुसरव से नाज़-ए-कज़कुलाही छिन भी जाता है;
    कुलाह-ए-ख़ुसरवी से बू-ए-सुल्तानी नहीं जाती;

    ब-जुज़ दीवानगी वां और चारा ही कहो क्या है;
    जहां अक़्ल-ओ-खिरद की एक भी मानी नहीं जाती।
    ~ Faiz Ahmad Faiz