ग़ज़ल Hindi Shayari

  • आया हूँ संग ओ ख़िश्त के...

    आया हूँ संग ओ ख़िश्त के अम्बार देख कर;
    ख़ौफ़ आ रहा है साया-ए-दीवार देख कर;

    आँखें खुली रही हैं मेरी इंतज़ार में;
    आए न ख़्वाब दीद-ए-बे-दार देख कर;

    ग़म की दुकान खोल के बैठा हुआ था मैं;
    आँसू निकल पड़े हैं ख़रीददार देख कर;

    क्या इल्म था फिसलने लगेंगे मेरे क़दम;
    मैं तो चला था राह को हम-वार देख कर;

    हर कोई पार-साई की उम्दा मिसाल था;
    दिल ख़ुश हुआ है एक गुनह-गार देख कर।
    ~ Adeem Hashmi
  • मेरी ग़ज़ल की तरह...

    मेरी ग़ज़ल की तरह उसकी भी हुकूमत है;
    तमाम मुल्क में वो सबसे खूबसूरत है;

    कभी-कभी कोई इंसान ऐसा लगता है;
    पुराने शहर में जैसे नयी ईमारत है;

    बहुत दिनों से मेरे साथ थी मगर कल शाम;
    मुझे पता चला वो कितनी खूबसूरत है;

    ये ज़ाईरान-ए-अलीगढ़ का खास तोहफ़ा है;
    मेरी ग़ज़ल का तबर्रुक दिलों की बरकत है।
    ~ Bashir Badr
  • उस शाम वो रुखसत का...

    उस शाम वो रुखसत का समां याद रहेगा;
    वो शहर, वो कूचा, वो मकां याद रहेगा;

    वो टीस कि उभरी थी इधर याद रहेगा;
    वो दर्द कि उभरी थी उधर याद रहेगा;

    हाँ बज़्में-शबां में हमशौक जो उस दिन;
    हम थे तेरी जानिब निगरा याद रहेगा;

    कुछ मीर के अबियत थे, कुछ फैज़ के मिसरे;
    एक दर्द का था जिनमे बयाँ, याद रहेगा;

    हम भूल सके हैं न तुझे भूल सकेंगे;
    तू याद रहेगा हमें, हाँ याद रहेगा।
    ~ Ibn-e-Insha
  • वफ़ाएँ कर के...

    वफ़ाएँ कर के जफ़ाओं का ग़म उठाए जा;
    इसी तरह से ज़माने को आज़माए जा;

    किसी में अपनी सिफ़त के सिवा कमाल नहीं;
    जिधर इशारा-ए-फ़ितरत हो सिर झुकाए जा;

    वो लौ रबाब से निकली धुआँ उठा दिल से;
    वफ़ा का राग इसी धुन में गुनगुनाए जा;

    नज़र के साथ मोहब्बत बदल नहीं सकती;
    नज़र बदल के मोहब्बत को आज़माए जा;

    ख़ुदी-ए-इश्क़ ने जिस दिन से खोल दीं आँखें;
    है आँसुओं का तक़ाज़ा कि मुस्कुराए जा;

    थी इब्तिदा में ये तादीब-ए-मुफ़लिसी मुझ को;
    ग़ुलाम रह के गुलामी पे मुस्कुराए जा।
    ~ Ehsaan Danish
  • जब भी चूम लेता हूँ...

    जब भी चूम लेता हूँ उन हसीन आँखों को;
    सौ चिराग अँधेरे में जगमगाने लगते हैं;

    फूल क्या शगूफे क्या चाँद क्या सितारे क्या;
    सब रकीब कदमों पर सर झुकाने लगते हैं;

    रक्स करने लगतीं हैं मूरतें अजंता की;
    मुद्दतों के लब-बस्ता ग़ार गाने लगते हैं;

    फूल खिलने लगते हैं उजड़े-उजड़े गुलशन में;
    प्यासी-प्यासी धरती पर अब्र छाने लगते हैं;

    लम्हें भर को ये दुनिया ज़ुल्म छोड़ देती है;
    लम्हें भर को सब पत्थर मुस्कुराने लगते हैं।
    ~ Kaifi Azmi
  • बेखुदी ले गयी कहाँ...

    बेखुदी ले गयी कहाँ हम को;
    देर से इंतज़ार है अपना;

    रोते फिरते हैं सारी-सारी रात;
    अब यही रोज़गार है अपना;

    दे के दिल हम जो हो गए मजबूर;
    इस में क्या इख्तियार है अपना;

    कुछ नही हम मिसाले-अनका लेक;
    शहर-शहर इश्तिहार है अपना;

    जिस को तुम आसमान कहते हो;
    सो दिलों का गुबार है अपना।
    ~ Mir Taqi Mir
  • जलाया आप हमने...

    जलाया आप हमने, जब्त कर-कर आहे-सोजां को;
    जिगर को, सीना को, पहलू को, दिल को, जिस्म को, जां को;

    हमेशा कुंजे-तन्हाई में मूनिस हम समझते है;
    अलम को, यास को, हसरत को, बेताबी को, हुरमां को;

    जगह किस-किस को दूं दिल में, तेरे हाथों से ऐ कातिल;
    कटारी को, छुरी को, बांक को, खंजर को, पैकां को;

    न हो जब तू ही ऐ साकी, भला फिर क्या करे कोई;
    हवा को, अब्र को, गुल को, चमन को, सहन-ए-बस्तां को;

    बनाया ऐ 'जफर' खालिक ने जब इंसान से बेहतर;
    मलक को, देव को, जिन को, परी को, हूरो-गिलमां को।
    ~ Bahadur Shah Zafar
  • यहाँ किसी को भी...

    यहाँ किसी को भी कुछ हस्ब-ए-आरज़ू न मिला;
    किसी को हम न मिले और हम को तू न मिला;

    ग़ज़ाल-ए-अश्क सर-ए-सुब्ह दूब-ए-मिज़गाँ पर;
    कब आँख अपनी खुली और लहू लहू न मिला;

    चमकते चाँद भी थे शहर-ए-शब के ऐवाँ में;
    निगार-ए-ग़म सा मगर कोई शम्मा-रू न मिला;

    उन्ही की रम्ज़ चली है गली गली में यहाँ;
    जिन्हें उधर से कभी इज़्न-ए-गुफ़्तुगू न मिला;

    फिर आज मय-कदा-ए-दिल से लौट आए हैं;
    फिर आज हम को ठिकाने का हम-सबू न मिला।
    ~ Zafar Iqbal
  • उक़ाबी शान से झपटे थे जो...

    उक़ाबी शान से झपटे थे जो बे-बालो-पर निकले;
    सितारे शाम को ख़ून-ए-फ़लक़ में डूबकर निकले;

    हुए मदफ़ून-ए-दरिया ज़ेरे-दरिया तैरने वाले;
    तमाचे मौज के खाते थे जो बनकर गुहर निकले;

    गुब्बार-ए-रहगुज़र हैं कीमिया पर नाज़ था जिनको;
    जबीनें ख़ाक पर रखते थे जो अक्सीरगर निकले;

    हमारा नर्म-रौ क़ासिद पयामे-ज़िन्दगी लाया;
    ख़बर देतीं थीं जिनको बिजलियाँ वो बेख़बर निकले;

    जहाँ में अहले-ईमाँ सूरत-ए-ख़ुर्शीद जीते हैं;
    इधर डूबे उधर निकले, उधर डूबे इधर निकले।
    ~ Allama Iqbal
  • बुलंदी देर तक...

    बुलंदी देर तक किस शख़्स के हिस्से में रहती है;
    बहुत ऊँची इमारत हर घड़ी ख़तरे में रहती है;

    बहुत जी चाहता है क़ैद-ए-जाँ से हम निकल जाएँ;
    तुम्हारी याद भी लेकिन इसी मलबे में रहती है;

    यह ऐसा क़र्ज़ है जो मैं अदा कर ही नहीं सकता;
    मैं जब तक घर न लौटूँ मेरी माँ सजदे में रहती है;

    मोहब्बत में परखने जाँचने से फ़ायदा क्या है;
    कमी थोड़ी-बहुत हर एक के शजरे में रहती है;

    ये अपने आप को तक़्सीम कर लेता है सूबों में;
    ख़राबी बस यही हर मुल्क के नक़्शे में रहती है।
    ~ Munawwar Rana