ग़ज़ल Hindi Shayari

  • जब भी कश्ती मेरी...

    जब भी कश्ती मेरी सैलाब में आ जाती है;
    माँ दुआ करती हुई ख़्वाब में आ जाती है;

    रोज़ मैं अपने लहू से उसे ख़त लिखता हूँ;
    रोज़ उँगली मेरी तेज़ाब में आ जाती है;

    दिल की गलियों से तेरी याद निकलती ही नहीं;
    सोहनी फिर इसी पंजाब में आ जाती है;

    रात भर जागते रहने का सिला है शायद;
    तेरी तस्वीर-सी महताब में आ जाती है;

    ज़िन्दगी तू भी भिखारिन की रिदा ओढ़े हुए;
    कूचा-ए-रेशम-ओ-कमख़्वाब में आ जाती है;

    दुख किसी का हो छलक उठती हैं मेरी आँखें;
    सारी मिट्टी मेरे तालाब में आ जाती है।
    ~ Munawwar Rana
  • झूठा निकला क़रार तेरा...

    झूठा निकला क़रार तेरा;
    अब किसको है ऐतबार तेरा;

    दिल में सौ लाख चुटकियाँ लीं;
    देखा बस हम ने प्यार तेरा;

    दम नाक में आ रहा था अपने;
    था रात से इंतज़ार तेरा;

    कर ज़बर जहाँ तलक़ तू चाहे;
    मेरा क्या, इख्तियार तेरा;

    लिपटूँ हूँ गले से आप अपने;
    समझूँ कि है किनार तेरा;

    'इंशा' से मत रूठ, खफा हो;
    है बंदा जानिसार तेरा।
    ~ Insha Allah Khan Insha
  • अब किस से कहें और कौन सुने...

    अब किस से कहें और कौन सुने जो हाल तुम्हारे बाद हुआ;
    इस दिल की झील सी आँखों में इक ख़्वाब बहुत बर्बाद हुआ;

    ये हिज्र-हवा भी दुश्मन है इस नाम के सारे रंगों की;
    वो नाम जो मेरे होंठों पे ख़ुशबू की तरह आबाद हुआ;

    उस शहर में कितने चेहरे थे कुछ याद नहीं सब भूल गए;
    इक शख़्स किताबों जैसा था वो शख़्स ज़ुबानी याद हुआ;

    वो अपने गाँव की गलियाँ थी दिल जिन में नाचता गाता था;
    अब इस से फ़र्क नहीं पड़ता नाशाद हुआ या शाद हुआ;

    बेनाम सताइश रहती थी इन गहरी साँवली आँखों में;
    ऐसा तो कभी सोचा भी न था अब जितना बेदाद हुआ।
    ~ Noshi Gilani
  • सोज़ में भी वही इक नग़्मा है...

    सोज़ में भी वही इक नग़्मा है जो साज़ में है;
    फ़र्क़ नज़दीक़ की और दूर की आवाज़ में है;

    ये सबब है कि तड़प सीना-ए-हर-साज़ में है;
    मेरी आवाज़ भी शामिल तेरी आवाज़ में है;

    जो न सूरत में न म'आनी में न आवाज़ में है;
    दिल की हस्ती भी उसी सिलसिला-ए-राज़ में है;

    आशिकों के दिले-मजरूह से कोई पूछे;
    वो जो इक लुत्फ़ निगाहे-ग़लत -अंदाज़ में है;

    गोशे-मुश्ताक़ की क्या बात है अल्लाह-अल्लाह;
    सुन रहा हूँ मैं जो नग़्मा जो अभी साज़ में है।
    ~ Jigar Moradabadi
  • कुछ दिन से इंतज़ारे...

    कुछ दिन से इंतज़ारे-सवाले-दिगर में है;
    वह मुज़्महिल हया जो किसी की नज़र में है;

    सीखी यहीं मिरे दिले-काफ़िर ने बंदगी;
    रब्बे-करीम है तो तेरी रहगुज़र में है;

    माज़ी में जो मज़ा मेरी शामो-सहर में था;
    अब वह फ़क़त तसव्वुरे-शामो-सहर में है;

    क्या जाने किसको किससे है अब दाद की तलब;
    वह ग़म जो मेरे दिल में है तेरी नज़र में है।
    ~ Faiz Ahmad Faiz
  • कहाँ क़ातिल बदलते हैं...

    कहाँ क़ातिल बदलते हैं फ़क़त चेहरे बदलते हैं;
    अजब अपना सफ़र है फ़ासले भी साथ चलते हैं;

    बहुत कमजर्फ़ था जो महफ़िलों को कर गया वीराँ;
    न पूछो हाले चाराँ शाम को जब साए ढलते हैं;

    वो जिसकी रोशनी कच्चे घरों तक भी पहुँचती है;
    न वो सूरज निकलता है, न अपने दिन बदलते हैं;

    कहाँ तक दोस्तों की बेदिली का हम करें मातम;
    चलो इस बार भी हम ही सरे मक़तल निकलते हैं;

    हम अहले दर्द ने ये राज़ आखिर पा लिया 'जालिब';
    कि दीप ऊँचे मकानों में हमारे खून से जलते हैं।
    ~ Habib Jalib
  • ऐ दिल वो आशिक़ी के फ़साने...

    ऐ दिल वो आशिक़ी के फ़साने किधर गए;
    वो उम्र क्या हुई वो ज़माने किधर गए;

    वीरान है सहन ओ बाग़ बहारों को क्या हुआ;
    वो बुलबुलें कहाँ वो तराने किधर गए;

    है नज्द में सुकूत हवाओं को क्या हुआ;
    लैलाएँ हैं ख़मोश दीवाने किधर गए;

    उजड़े पड़े हैं दश्त ग़ज़ालों पे क्या बनी;
    सूने हैं कोह-सार दीवाने किधर गए;

    वो हिज्र में विसल की उम्मीद क्या हुई;
    वो रंज में ख़ुशी के बहाने किधर गए;

    दिन रात मयकदे में गुज़रती थी ज़िन्दगी;
    'अख़्तर' वो बे-ख़ुदी के ज़माने किधर गए।
    ~ Akhtar Sheerani
  • इन आँखों से दिन रात...

    इन आँखों से दिन रात बरसात होगी;
    अगर ज़िंदगी सर्फ-ए-जज़्बात होगी;

    मुसाफ़िर हो तुम भी मुसाफ़िर हैं हम भी;
    किसी मोड़ पर फिर मुलाकात होगी;

    सदाओं की अल्फ़ाज़ मिलने ना पायें;
    ना बादल घेरेंगे ना बरसात होगी;

    चिरागों को आँखों मे महफूज रखना;
    बड़ी दूर तक रात ही रात होगी;

    अजल-ता-अब्द तक सफर हीं सफर है;
    कहीं सुबह होगी कहीं रात होगी।
    ~ Bashir Badr
  • ये आरज़ू थी तुझे गुल के...

    ये आरज़ू थी तुझे गुल के रूबरू करते;
    हम और बुलबुल-ए-बेताब गुफ़्तगू करते;

    पयाम बर न मयस्सर हुआ तो ख़ूब हुआ;
    ज़बान-ए-ग़ैर से क्या शर की आरज़ू करते;

    मेरी तरह से माह-ओ-महर भी हैं आवारा;
    किसी हबीब को ये भी हैं जुस्तजू करते;

    जो देखते तेरी ज़ंजीर-ए-ज़ुल्फ़ का आलम;
    असीर होने के आज़ाद आरज़ू करते;

    न पूछ आलम-ए-बरगश्ता तालि-ए-आतिश;
    बरसती आग में जो बाराँ की आरज़ू करते।
    ~ Atish
  • मुझ से काफ़िर को तेरे इश्क़ ने...

    मुझ से काफ़िर को तेरे इश्क़ ने यूँ शरमाया;
    दिल तुझे देख के धड़का तो खुदा याद आया;

    मेरे दिल पे तो है अब तक तेरे ग़म का साया;
    लोग कहते हैं नया दौर नए दुख लाया;

    मेरा मियार-ए-वफ़ा ही मेरी मज़बूरी है;
    रुख बदल कर भी तुझे अपने मुक़ाबिल पाया;

    चारागर आज सितारों की क़सम खा के बता;
    किस ने इंसान को तबस्सुम के लिए तड़पाया;

    लोग हँसते तो इस सोच में खो जाता हूँ;
    मौज-ए-सैलाब ने फिर किसका घरौंदा ढाया;

    उसके अंदर कोई फनकार छुपा बैठा है;
    जानते-बुझते जिस शख्स ने धोखा खाया।
    ~ Ahmad Nadeem Qasmi