अक्सर मिलना ऐसा हुआ बस; लब खोले और उसने कहा बस; तब से हालत ठीक नहीं है; मीठा मीठा दर्द उठा बस; सारी बातें खोल के रखो; मैं हूं तुम हो और खुदा बस; तुमने दुख में आंख भिगोई; मैने कोई शेर कहा बस; वाकिफ़ था मैं दर्द से उसके; मिल कर मुझसे फूट पड़ा बस; इस सहरा में इतना कर दे; मीठा चश्मा, पेड़, हवा बस। |
कुछ भी हो वो अब दिल से जुदा हो नहीं सकते; हम मुजरिम-ए-तौहीन-ए-वफ़ा हो नहीं सकते; ऐ मौज-ए-हवादिस तुझे मालूम नहीं क्या; हम अहल-ए-मोहब्बत हैं फ़ना हो नहीं सकते; इतना तो बता जाओ ख़फ़ा होने से पहले; वो क्या करें जो तुम से ख़फ़ा हो नहीं सकते; इक आप का दर है मेरी दुनिया-ए-अक़ीदत; ये सजदे कहीं और अदा हो नहीं सकते; अहबाब पे दीवाने 'असद' कैसा भरोसा; ये ज़हर भरे घूँट रवा हो नहीं सकते। |
वो खफा है तो कोई बात नहीं; इश्क मोहताज-ए-इल्त्फाक नहीं; दिल बुझा हो अगर तो दिन भी है रात नहीं; दिन हो रोशन तो रात रात नहीं; दिल-ए-साकी मैं तोड़ू-ए-वाइल; जा मुझे ख्वाइश-ए-नजात नहीं; ऐसी भूली है कायनात मुझे; जैसे मैं जिस्ब-ए-कायनात नहीं; पीर की बस्ती जा रही है मगर; सबको ये वहम है कि रात नहीं; मेरे लायक नहीं हयात "ख़ुमार"; और मैं लायक-ए-हयात नहीं। |
भूला हूँ मैं आलम को सर-शार इसे कहते हैं; मस्ती में नहीं ग़ाफ़िल हुश्यार इसे कहते हैं; गेसू इसे कहते हैं रुख़सार इसे कहते हैं; सुम्बुल इसे कहते हैं गुल-ज़ार इसे कहते हैं; इक रिश्ता-ए-उल्फ़त में गर्दन है हज़ारों की; तस्बीह इसे कहते हैं ज़ुन्नार इसे कहते हैं; महशर का किया वादा याँ शक्ल न दिखलाई; इक़रार इसे कहते हैं इंकार इसे कहते हैं; टकराता हूँ सर अपना क्या क्या दर-ए-जानाँ से; जुम्बिश भी नहीं करती दीवार इसे कहते हैं; ख़ामोश 'अमानत' है कुछ उफ़ भी नहीं करता; क्या क्या नहीं ऐ प्यारे अग़्यार इसे कहते हैं। |
अजब अपना हाल होता... अजब अपना हाल होता जो विसाल-ए-यार होता; कभी जान सदक़े होती कभी दिल निसार होता; न मज़ा है दुश्मनी में न है लुत्फ़ दोस्ती में; कोई ग़ैर ग़ैर होता कोई यार यार होता; ये मज़ा था दिल्लगी का कि बराबर आग लगती; न तुम्हें क़रार होता न हमें क़रार होता; तेरे वादे पर सितमगर अभी और सब्र करते; अगर अपनी जिन्दगी का हमें ऐतबार होता। |
तो मैं भी ख़ुश हूँ कोई उस से जा के कह देना; अगर वो ख़ुश है मुझे बे-क़रार करते हुए; तुम्हें ख़बर ही नहीं है कि कोई टूट गया; मोहब्बतों को बहुत पाएदार करते हुए; मैं मुस्कुराता हुआ आईने में उभरूँगा; वो रो पड़ेगी अचानक सिंघार करते हुए; मुझे ख़बर थी कि अब लौट कर न आऊँगा; सो तुझ को याद किया दिल पे वार करते हुए; ये कह रही थी समुंदर नहीं ये आँखें हैं; मैं इन में डूब गया ए'तिबार करते हुए; भँवर जो मुझ में पड़े हैं वो मैं ही जानता हूँ; तुम्हारे हिज्र के दरिया को पार करते हुए। |
हवा में फिरते हो क्या हिर्स और हवा के लिए; ग़ुरूर छोड़ दो ऐ ग़ाफ़िलो ख़ुदा के लिए; गिरा दिया है हमें किस ने चाह-ए-उल्फ़त में; हम आप डूबे किसी अपने आशना के लिए; जहाँ में चाहिए ऐवान ओ क़स्र शाहों को; ये एक गुम्बद-ए-गर्दूं है बस गदा के लिए; वो आईना है के जिस को है हाजत-ए-सीमाब; इक इज़्तिराब है काफ़ी दिल-ए-सफ़ा के लिए; तपिश से दिल का हो क्या जाने सीने में क्या हाल; जो तेरे तीर का रोज़न न हो हवा के लिए; जो हाथ आए 'ज़फ़र' ख़ाक-पा-ए-फ़ख़रूद्दीन; तो मैं रखूँ उसे आँखों के तूतया के लिए। |
तुम्हारे जैसे लोग जबसे मेहरबान नहीं रहे; तभी से ये मेरे जमीन-ओ-आसमान नहीं रहे; खंडहर का रूप धरने लगे है बाग शहर के; वो फूल-ओ-दरख्त, वो समर यहाँ नहीं रहे; सब अपनी अपनी सोच अपनी फिकर के असीर हैं; तुम्हारें शहर में मेरे मिजाज़ दा नहीं रहें; उसे ये गम है, शहर ने हमारी बात जान ली; हमें ये दुःख है उस के रंज भी निहां नहीं रहे; बोहत है यूँ तो मेरे इर्द-गिर्द मेरे आशना; तुम्हारे बाद धडकनों के राजदान नहीं रहे; असीर हो के रह गए हैं शहर की फिजाओं में; परिंदे वाकई चमन के तर्जुमान नहीं रहे। |
तुझे कौन जानता था मेरी दोस्ती से पहले; तेरा हुस्न कुछ नहीं था मेरी शायरी से पहले; इधर आ रक़ीब मेरे मैं तुझे गले लगा लूँ; मेरा इश्क़ बे-मज़ा था तेरी दुश्मनी से पहले; कई इंक़लाब आए कई ख़ुश-ख़िराब गुज़रे; न उठी मगर क़यामत तेरी कम-सिनी से पहले; मेरी सुबह के सितारे तुझे ढूँढती हैं आँखें; कहीं रात डस न जाए तेरी रौशनी से पहले। |
कुछ और दिन अभी इस जा क़याम करना था; यहाँ चराग़ वहाँ पर सितारा धरना था; वो रात नींद की दहलीज़ पर तमाम हुई; अभी तो ख़्वाब पे इक और ख़्वाब धरना था; अगर रसा में न था वो भरा भरा सा बदन; रंग-ए-ख़याल से उस को तुलू करना था; निगाह और चराग़ और ये असासा-ए-जाँ; तमाम होती हुई शब के नाम करना था; गुरेज़ होता चला जा रहा था मुझ से वो; और एक पल के सिरे पर मुझे ठहरना था। |