इक खिलौना टूट जाएगा... इक खिलौना टूट जाएगा नया मिल जाएगा; मैं नहीं तो कोई तुझ को दूसरा मिल जाएगा; भागता हूँ हर तरफ़ ऐसे हवा के साथ साथ; जिस तरह सच मुच मुझे उस का पता मिल जाएगा; किस तरह रोकोगे अश्कों को पस-ए-दीवार-ए-चश्म; ये तो पानी है इसे तो रास्ता मिल जाएगा; एक दिन तो ख़त्म होगी लफ़्ज़ ओ मानी की तलाश; एक दिन तो मुझ को मेरा मुद्दा मिल जाएगा; छोड़ ख़ाली घर को आ बाहर चलें घर से 'अदीम'; कुछ नहीं तो कोई चेहरा चाँद सा मिल जाएगा। |
ये दिल में वसवसा क्या पल रहा है; तेरा मिलना भी मुझ को खल रहा है; जिसे मैंने किया था बे-ख़ुदी में; जबीं पर अब वो सजदा जल रहा है; मुझे मत दो मुबारक-बाद-ए-हस्ती; किसी का है ये साया चल रहा है; सर-ए-सहरा सदा दिल के शजर से; बरसता दूर एक बादल रहा है; फ़साद-ए-लग़्ज़िश-ए-तख़लीक़-ए-आदम; अभी तक हाथ यज़दाँ मल रहा है; दिलों की आग क्या काफ़ी नहीं है; जहन्नम बे-ज़रूरत जल रहा है। |
ख़ातिर से तेरी याद को टलने नहीं देते; सच है कि हम ही दिल को संभलने नहीं देते; आँखें मुझे तलवों से वो मलने नहीं देते; अरमान मेरे दिल का निकलने नहीं देते; किस नाज़ से कहते हैं वो झुंझला के शब-ए-वस्ल; तुम तो हमें करवट भी बदलने नहीं देते; परवानों ने फ़ानूस को देखा तो ये बोले; क्यों हम को जलाते हो कि जलने नहीं देते; हैरान हूँ किस तरह करूँ अर्ज़-ए-तमन्ना; दुश्मन को तो पहलू से वो टलने नहीं देते; दिल वो है कि फ़रियाद से लबरेज़ है हर वक़्त; हम वो हैं कि कुछ मुँह से निकलने नहीं देते। |
पूछा किसी ने हाल... पूछा किसी ने हाल किसी का तो रो दिए; पानी में अक्स चाँद का देखा तो रो दिए; नग़्मा किसी ने साज़ पे छेड़ा तो रो दिए; ग़ुंचा किसी ने शाख़ से तोड़ा तो रो दिए; उड़ता हुए ग़ुबार सर-ए-राह देख कर; अंजाम हम ने इश्क़ का सोचा तो रो दिए; बादल फ़ज़ा में आप की तस्वीर बन गए; साया कोई ख़याल से गुज़रा तो रो दिए; रंग-ए-शफ़क़ से आग शगूफ़ों में लग गई; 'साग़र' हमारे हाथ से छलका तो रो दिए। |
ऐसे हिज्र के मौसम... ऐसे हिज्र के मौसम अब कब आते हैं; तेरे अलावा याद हमें सब आते हैं; जज़्ब करे क्यों रेत हमारे अश्कों को; तेरा दामन तर करने अब आते हैं; अब वो सफ़र की ताब नहीं बाक़ी वरना; हम को बुलावे दश्त से जब-तब आते हैं; जागती आँखों से भी देखो दुनिया को; ख़्वाबों का क्या है वो हर शब आते हैं; काग़ज़ की कश्ती में दरिया पार किया; देखो हम को क्या-क्या करतब आते हैं। |
हर शाम जलते जिस्मों का गाढ़ा धुआँ है शहर; मरघट कहाँ है कोई बताओ कहाँ है यह शहर; फुटपाथ पर जो लाश पड़ी है उसी की है; जिस गाँव को यकीं था की रोज़ी-रसाँ है शहर; मर जाइए तो नाम-ओ-नसब पूछता नहीं; मुर्दों के सिलसिले में बहुत मेहरबाँ है शहर; रह-रह कर चीख़ उठते हैं सन्नाटे रात को; जंगल छुपे हुए हैं वहीं पर जहाँ है शहर; भूचाल आते रहते हैं और टूटता नहीं; हम जैसे मुफ़लिसों की तरह सख़्त जाँ है शहर; लटका हुआ ट्रेन के डिब्बों में सुबह-ओ-शाम; लगता है अपनी मौत के मुँह में रवाँ है शहर। |
कोई सूरत निकलती... कोई सूरत निकलती क्यों नहीं है; यहाँ हालत बदलती क्यों नहीं है; ये बुझता क्यों नहीं है उनका सूरज; हमारी शमा जलती क्यों नहीं है; अगर हम झेल ही बैठे हैं इसको; तो फिर ये रात ढलती क्यों नहीं है; मोहब्बत सिर को चढ़ जाती है, अक्सर; मेरे दिल में मचलती क्यों नहीं है। |
मिलकर जुदा हुए तो... मिलकर जुदा हुए तो न सोया करेंगे हम; एक दूसरे की याद में रोया करेंगे हम; आँसू छलक छलक के सतायेंगे रात भर; मोती पलक पलक में पिरोया करेंगे हम; जब दूरियों की आग दिलों को जलायेगी; जिस्मों को चाँदनी में भिगोया करेंगे हम; गर दे गया दग़ा हमें तूफ़ान भी "क़तील"; साहिल पे कश्तियों को डूबोया करेंगे हम। |
तुम्हारे जैसे लोग जबसे मेहरबान नहीं रहे; तभी से ये मेरे जमीन-ओ-आसमान नहीं रहे; खंडहर का रूप धरने लगे है बाग शहर के; वो फूल-ओ-दरख्त, वो समर यहाँ नहीं रहे; सब अपनी अपनी सोच अपनी फिकर के असीर हैं; तुम्हारे शहर में मेरे मिजाज़ दा नहीं रहे; उसे ये गम है, शहर ने हमारी बात जान ली; हमें ये दुःख है उस के रंज भी निहां नहीं रहे; बहुत है यूँ तो मेरे इर्द-गिर्द मेरे आशना; तुम्हारे बाद धडकनों के राजदान नहीं रहे; असीर हो के रह गए हैं शहर की फिजाओं में; परिंदे वाकई चमन के तर्जुमान नहीं रहे। |
आज भड़की रग-ए-वहशत तेरे दीवानों की; क़िस्मतें जागने वाली हैं बयाबानों की; फिर घटाओं में है नक़्क़ारा-ए-वहशत की सदा; टोलियाँ बंध के चलीं दश्त को दीवानों की; आज क्या सूझ रही है तेरे दीवानों को; धज्जियाँ ढूँढते फिरते हैं गरेबानों की; रूह-ए-मजनूँ अभी बेताब है सहराओं में; ख़ाक बे-वजह नहीं उड़ती बयाबानों की; उस ने 'एहसान' कुछ इस नाज़ से मुड़ कर देखा; दिल में तस्वीर उतर आई परी-ख़ानों की। |