कभी मुझ को साथ लेकर... कभी मुझ को साथ लेकर, कभी मेरे साथ चल के; वो बदल गये अचानक, मेरी ज़िन्दगी बदल के; हुए जिस पे मेहरबाँ, तुम कोई ख़ुशनसीब होगा; मेरी हसरतें तो निकलीं, मेरे आँसूओं में ढल के; तेरी ज़ुल्फ़-ओ-रुख़ के, क़ुर्बाँ दिल-ए-ज़ार ढूँढता है; वही चम्पई उजाले, वही सुरमई धुंधलके; कोई फूल बन गया है, कोई चाँद कोई तारा; जो चिराग़ बुझ गये हैं, तेरी अंजुमन में जल के; तेरी बेझिझक हँसी से, न किसी का दिल हो मैला; ये नगर है आईनों का, यहाँ साँस ले सम्भल के! |
ग़मों से यूँ वो फ़रार... ग़मों से यूँ वो फ़रार इख़्तियार करता था; फ़ज़ा में उड़ते परिंदे शुमार करता था; बयान करता था दरिया के पार के क़िस्से; ये और बात वो दरिया न पार करता था; बिछड़ के एक ही बस्ती में दोनों ज़िंदा हैं; मैं उस से इश्क़ तो वो मुझ से प्यार करता था; यूँ ही था शहर की शख़्सियतों को रंज उस से; कि वो ज़िदें भी बड़ी पुर-वक़ार करता था; कल अपनी जान को दिन में बचा नहीं पाया; वो आदमी के जो आहाट पे वार करता था; सदाक़तें थीं मेरी बंदगी में जब 'अज़हर'; हिफ़ाज़तें मेरी परवर-दिगार करता था। |
कौन कहता है कि... कौन कहता है कि मौत आयी तो मर जाऊँगा; मैं तो दरिया हूं, समंदर में उतर जाऊँगा; तेरा दर छोड़ के मैं और किधर जाऊँगा; घर में घिर जाऊँगा, सहरा में बिखर जाऊँगा; तेरे पहलू से जो उठूँगा तो मुश्किल ये है; सिर्फ़ इक शख्स को पाऊंगा, जिधर जाऊँगा; अब तेरे शहर में आऊँगा मुसाफ़िर की तरह; साया-ए-अब्र की मानिंद गुज़र जाऊँगा; तेरा पैमान-ए-वफ़ा राह की दीवार बना; वरना सोचा था कि जब चाहूँगा, मर जाऊँगा; ज़िन्दगी शमा की मानिंद जलाता हूं 'नदीम'; बुझ तो जाऊँगा मगर, सुबह तो कर जाऊँगा। |
आपको देख कर... आपको देख कर देखता रह गया; क्या कहूँ और कहने को क्या रह गया; आते-आते मेरा नाम-सा रह गया; उस के होंठों पे कुछ काँपता रह गया; वो मेरे सामने ही गया और मैं; रास्ते की तरह देखता रह गया; झूठ वाले कहीं से कहीं बढ़ गये; और मैं था कि सच बोलता रह गया; आँधियों के इरादे तो अच्छे न थे; ये दिया कैसे जलता हुआ रह गया। |
फ़ुरसत-ए-कार फ़क़त... फ़ुरसत-ए-कार फ़क़त चार घड़ी है यारो; ये न सोचो के अभी उम्र पड़ी है यारो; अपने तारीक मकानों से तो बाहर झाँको; ज़िन्दगी शमा लिए दर पे खड़ी है यारो; उनके बिन जी के दिखा देंगे चलो यूँ ही सही; बात इतनी सी है कि ज़िद आन पड़ी है यारो; फ़ासला चंद क़दम का है मना लें चल कर; सुबह आई है मगर दूर खड़ी है यारो; किस की दहलीज़ पे ले जाके सजाऊँ इस को; बीच रस्ते में कोई लाश पड़ी है यारो; जब भी चाहेंगे ज़माने को बदल डालेंगे; सिर्फ़ कहने के लिये बात बड़ी है यारो। |
टूटी है मेरी नींद... टूटी है मेरी नींद, मगर तुमको इससे क्या; बजते रहें हवाओं से दर, तुमको इससे क्या; तुम मौज-मौज मिस्ल-ए-सबा घूमते रहो; कट जाएँ मेरी सोच के पर तुमको इससे क्या; औरों का हाथ थामो, उन्हें रास्ता दिखाओ; मैं भूल जाऊँ अपना ही घर, तुमको इससे क्या; अब्र-ए-गुरेज़-पा को बरसने से क्या ग़रज़; सीपी में बन न पाए गुहर, तुमको इससे क्या; ले जाएँ मुझको माल-ए-ग़नीमत के साथ उदू; तुमने तो डाल दी है सिपर, तुमको इससे क्या; तुमने तो थक के दश्त में ख़ेमे लगा लिए; तन्हा कटे किसी का सफ़र, तुमको इससे क्या। |
नयी-नयी आँखें हों तो... नयी-नयी आँखें हों तो हर मंज़र अच्छा लगता है; कुछ दिन शहर में घूमे लेकिन, अब घर अच्छा लगता है; मिलने-जुलने वालों में तो सारे अपने जैसे हैं; जिससे अब तक मिले नहीं वो अक्सर अच्छा लगता है; मेरे आँगन में आये या तेरे सर पर चोट लगे; सन्नाटों में बोलने वाला पत्थर अच्छा लगता है; चाहत हो या पूजा सबके अपने-अपने साँचे हैं; जो मूरत में ढल जाये वो पैकर अच्छा लगता है; हमने भी सोकर देखा है नये-पुराने शहरों में; जैसा भी है अपने घर का बिस्तर अच्छा लगता है। |
सख़्तियाँ करता हूँ दिल पर... सख़्तियाँ करता हूँ दिल पर ग़ैर से ग़ाफ़िल हूँ मैं; हाय क्या अच्छी कही ज़ालिम हूँ मैं जाहिल हूँ मैं; है मेरी ज़िल्लत ही कुछ मेरी शराफ़त की दलील; जिस की ग़फ़लत को मलक रोते हैं वो ग़ाफ़िल हूँ मैं; बज़्म-ए-हस्ती अपनी आराइश पे तू नाज़ाँ न हो; तू तो इक तस्वीर है महफ़िल की और महफ़िल हूँ मैं; ढूँढता फिरता हूँ ऐ 'इक़बाल' अपने आप को; आप ही गोया मुसाफ़िर आप ही मंज़िल हूँ मैं। |
कहाँ क़ातिल बदलते हैं... कहाँ क़ातिल बदलते हैं फ़क़त चेहरे बदलते हैं; अजब अपना सफ़र है फ़ासले भी साथ चलते हैं; बहुत कमजर्फ़ था जो महफ़िलों को कर गया वीराँ; न पूछो हाले चाराँ शाम को जब साए ढलते हैं; वो जिसकी रोशनी कच्चे घरों तक भी पहुँचती है; न वो सूरज निकलता है, न अपने दिन बदलते हैं; कहाँ तक दोस्तों की बेदिली का हम करें मातम; चलो इस बार भी हम ही सरे मक़तल निकलते हैं; हम अहले दर्द ने ये राज़ आखिर पा लिया 'जालिब'; कि दीप ऊँचे मकानों में हमारे खून से जलते हैं। |
हर इक लम्हे की रग में... हर इक लम्हे की रग में दर्द का रिश्ता धड़कता है; वहाँ तारा लरज़ता है जो याँ पत्ता खड़कता है; ढके रहते हैं गहरे अब्र में बातिन के सब मंज़र; कभी इक लहज़ा-ए-इदराक बिजली सा कड़कता है; मुझे दीवाना कर देती है अपनी मौत की शोख़ी; कोई मुझ में रग-ए-इज़हार की सूरत फड़कता है; फिर इक दिन आग लग जाती है जंगल में हक़ीक़त के; कहीं पहले-पहल इक ख़्वाब का शोला भड़कता है; मेरी नज़रें ही मेरे अक्स को मजरूह करती हैं; निगाहें मुर्तकिज़ होती हैं और शीशा तड़कता है। |