ग़ज़ल Hindi Shayari

  • अक्सर मिलना ऐसा हुआ बस;
    लब खोले और उसने कहा बस;

    तब से हालत ठीक नहीं है;
    मीठा मीठा दर्द उठा बस;

    सारी बातें खोल के रखो;
    मैं हूं तुम हो और खुदा बस;

    तुमने दुख में आंख भिगोई;
    मैने कोई शेर कहा बस;

    वाकिफ़ था मैं दर्द से उसके;
    मिल कर मुझसे फूट पड़ा बस;

    इस सहरा में इतना कर दे;
    मीठा चश्मा, पेड़, हवा बस।
    ~ Ana Qasmi
  • कुछ भी हो वो अब दिल से जुदा हो नहीं सकते;
    हम मुजरिम-ए-तौहीन-ए-वफ़ा हो नहीं सकते;

    ऐ मौज-ए-हवादिस तुझे मालूम नहीं क्या;
    हम अहल-ए-मोहब्बत हैं फ़ना हो नहीं सकते;

    इतना तो बता जाओ ख़फ़ा होने से पहले;
    वो क्या करें जो तुम से ख़फ़ा हो नहीं सकते;

    इक आप का दर है मेरी दुनिया-ए-अक़ीदत;
    ये सजदे कहीं और अदा हो नहीं सकते;

    अहबाब पे दीवाने 'असद' कैसा भरोसा;
    ये ज़हर भरे घूँट रवा हो नहीं सकते।
    ~ Asad Bhopali
  • वो खफा है तो कोई बात नहीं;
    इश्क मोहताज-ए-इल्त्फाक नहीं;

    दिल बुझा हो अगर तो दिन भी है रात नहीं;
    दिन हो रोशन तो रात रात नहीं;

    दिल-ए-साकी मैं तोड़ू-ए-वाइल;
    जा मुझे ख्वाइश-ए-नजात नहीं;

    ऐसी भूली है कायनात मुझे;
    जैसे मैं जिस्ब-ए-कायनात नहीं;

    पीर की बस्ती जा रही है मगर;
    सबको ये वहम है कि रात नहीं;

    मेरे लायक नहीं हयात "ख़ुमार";
    और मैं लायक-ए-हयात नहीं।
    ~ Khumar Barabankvi
  • भूला हूँ मैं आलम को सर-शार इसे कहते हैं;
    मस्ती में नहीं ग़ाफ़िल हुश्यार इसे कहते हैं;

    गेसू इसे कहते हैं रुख़सार इसे कहते हैं;
    सुम्बुल इसे कहते हैं गुल-ज़ार इसे कहते हैं;

    इक रिश्ता-ए-उल्फ़त में गर्दन है हज़ारों की;
    तस्बीह इसे कहते हैं ज़ुन्नार इसे कहते हैं;

    महशर का किया वादा याँ शक्ल न दिखलाई;
    इक़रार इसे कहते हैं इंकार इसे कहते हैं;

    टकराता हूँ सर अपना क्या क्या दर-ए-जानाँ से;
    जुम्बिश भी नहीं करती दीवार इसे कहते हैं;

    ख़ामोश 'अमानत' है कुछ उफ़ भी नहीं करता;
    क्या क्या नहीं ऐ प्यारे अग़्यार इसे कहते हैं।
    ~ Amanat Lakhnavi
  • अजब अपना हाल होता...

    अजब अपना हाल होता जो विसाल-ए-यार होता;
    कभी जान सदक़े होती कभी दिल निसार होता;

    न मज़ा है दुश्मनी में न है लुत्फ़ दोस्ती में;
    कोई ग़ैर ग़ैर होता कोई यार यार होता;

    ये मज़ा था दिल्लगी का कि बराबर आग लगती;
    न तुम्हें क़रार होता न हमें क़रार होता;

    तेरे वादे पर सितमगर अभी और सब्र करते;
    अगर अपनी जिन्दगी का हमें ऐतबार होता।
    ~ Daagh Dehlvi
  • तो मैं भी ख़ुश हूँ कोई उस से जा के कह देना;
    अगर वो ख़ुश है मुझे बे-क़रार करते हुए;

    तुम्हें ख़बर ही नहीं है कि कोई टूट गया;
    मोहब्बतों को बहुत पाएदार करते हुए;

    मैं मुस्कुराता हुआ आईने में उभरूँगा;
    वो रो पड़ेगी अचानक सिंघार करते हुए;

    मुझे ख़बर थी कि अब लौट कर न आऊँगा;
    सो तुझ को याद किया दिल पे वार करते हुए;

    ये कह रही थी समुंदर नहीं ये आँखें हैं;
    मैं इन में डूब गया ए'तिबार करते हुए;

    भँवर जो मुझ में पड़े हैं वो मैं ही जानता हूँ;
    तुम्हारे हिज्र के दरिया को पार करते हुए।
    ~ Syed Wasi Shah
  • हवा में फिरते हो क्या हिर्स और हवा के लिए;
    ग़ुरूर छोड़ दो ऐ ग़ाफ़िलो ख़ुदा के लिए;

    गिरा दिया है हमें किस ने चाह-ए-उल्फ़त में;
    हम आप डूबे किसी अपने आशना के लिए;

    जहाँ में चाहिए ऐवान ओ क़स्र शाहों को;
    ये एक गुम्बद-ए-गर्दूं है बस गदा के लिए;

    वो आईना है के जिस को है हाजत-ए-सीमाब;
    इक इज़्तिराब है काफ़ी दिल-ए-सफ़ा के लिए;

    तपिश से दिल का हो क्या जाने सीने में क्या हाल;
    जो तेरे तीर का रोज़न न हो हवा के लिए;

    जो हाथ आए 'ज़फ़र' ख़ाक-पा-ए-फ़ख़रूद्दीन;
    तो मैं रखूँ उसे आँखों के तूतया के लिए।
    ~ Bahadur Shah Zafar
  • तुम्हारे जैसे लोग जबसे मेहरबान नहीं रहे;
    तभी से ये मेरे जमीन-ओ-आसमान नहीं रहे;

    खंडहर का रूप धरने लगे है बाग शहर के;
    वो फूल-ओ-दरख्त, वो समर यहाँ नहीं रहे;

    सब अपनी अपनी सोच अपनी फिकर के असीर हैं;
    तुम्हारें शहर में मेरे मिजाज़ दा नहीं रहें;

    उसे ये गम है, शहर ने हमारी बात जान ली;
    हमें ये दुःख है उस के रंज भी निहां नहीं रहे;

    बोहत है यूँ तो मेरे इर्द-गिर्द मेरे आशना;
    तुम्हारे बाद धडकनों के राजदान नहीं रहे;

    असीर हो के रह गए हैं शहर की फिजाओं में;
    परिंदे वाकई चमन के तर्जुमान नहीं रहे।
    ~ Aitbar Sajid
  • तुझे कौन जानता था मेरी दोस्ती से पहले;
    तेरा हुस्न कुछ नहीं था मेरी शायरी से पहले;

    इधर आ रक़ीब मेरे मैं तुझे गले लगा लूँ;
    मेरा इश्क़ बे-मज़ा था तेरी दुश्मनी से पहले;

    कई इंक़लाब आए कई ख़ुश-ख़िराब गुज़रे;
    न उठी मगर क़यामत तेरी कम-सिनी से पहले;

    मेरी सुबह के सितारे तुझे ढूँढती हैं आँखें;
    कहीं रात डस न जाए तेरी रौशनी से पहले।
    ~ Kaif Bhopali
  • कुछ और दिन अभी इस जा क़याम करना था;
    यहाँ चराग़ वहाँ पर सितारा धरना था;

    वो रात नींद की दहलीज़ पर तमाम हुई;
    अभी तो ख़्वाब पे इक और ख़्वाब धरना था;

    अगर रसा में न था वो भरा भरा सा बदन;
    रंग-ए-ख़याल से उस को तुलू करना था;

    निगाह और चराग़ और ये असासा-ए-जाँ;
    तमाम होती हुई शब के नाम करना था;

    गुरेज़ होता चला जा रहा था मुझ से वो;
    और एक पल के सिरे पर मुझे ठहरना था।
    ~ Atiqullah