तुझ से अब और मोहब्बत... तुझ से अब और मोहब्बत नहीं की जा सकती; ख़ुद को इतनी भी अज़िय्यत नहीं दी जा सकती; जानते हैं कि यक़ीं टूट रहा है दिल पर; फिर भी अब तर्क ये वहशत नहीं की जा सकती; हवस का शहर है और उस में किसी भी सूरत; साँस लेने की सहूलत नहीं दी जा सकती; रौशनी के लिए दरवाज़ा खुला रखना है; शब से अब कोई इजाज़त नहीं ली जा सकती; इश्क़ ने हिज्र का आज़ार तो दे रखा है; इस से बढ़ कर तो रिआयत नहीं दी जा सकती। |
तू भी तो एक लफ़्ज़ है इक दिन मिरे बयाँ में आ; मेरे यक़ीं में गश्त कर मेरी हद-ए-गुमाँ में आ; नींदों में दौड़ता हुआ तेरी तरफ़ निकल गया; तू भी तो एक दिन कभी मेरे हिसार-ए-जाँ में आ; इक शब हमारे साथ भी ख़ंजर की नोक पर कभी; लर्ज़ीदा चश्म-ए-नम में चल जलते हुए मकाँ में आ; नर्ग़े में दोस्तों के तू कब तक रहेगा सुर्ख़-रू; नेज़ा-ब-नेज़ा दू-ब-दू-सफ़्हा-ए-दुश्मनान में आ; इक रोज़ फ़िक्र-ए-आब-ओ-नाँ तुझ को भी हो जान-ए-जहाँ; क़ौस-ए-अबद को तोड़ कर इस अर्सा-ए-ज़ियाँ में आ। |
छेड़ने का तो मज़ा तब है कहो और सुनो; बात में तुम तो ख़फ़ा हो गये, लो और सुनो; तुम कहोगे जिसे कुछ, क्यूँ न कहेगा तुम को; छोड़ देवेगा भला, देख तो लो, और सुनो; यही इंसाफ़ है कुछ सोचो तो अपने दिल में; तुम तो सौ कह लो, मेरी एक न सुनो और सुनो; आफ़रीं तुम पे, यही चाहिए शाबाश तुम्हें; देख रोता मुझे यूँ हँसने लगो और सुनो; बात मेरी नहीं सुनते जो अकेले मिल कर; ऐसे ही ढँग से सुनाऊँ के सुनो और सुनो। |
अच्छा जो ख़फ़ा हम से हो तुम ऐ सनम अच्छा; लो हम भी न बोलेंगे ख़ुदा की क़सम अच्छा; मश्ग़ूल क्या चाहिए इस दिल को किसी तौर; ले लेंगे ढूँढ और कोई यार हम अच्छा; गर्मी ने कुछ आग और ही सीने में लगा दी; हर तौर घरज़ आप से मिलना है कम अच्छा; अग़ियार से करते हो मेरे सामने बातें; मुझ पर ये लगे करने नया तुम सितम अच्छा; कह कर गए आता हूँ, कोई दम में मैं तुम पास; फिर दे चले कल की सी तरह मुझको दम अच्छा; इस हस्ती-ए-मौहूम से मैं तंग हूँ 'इंशा'; वल्लाह के उस से दम अच्छा। |
पूछा किसी ने हाल... पूछा किसी ने हाल किसी का तो रो दिए; पानी के अक्स चाँद का देखा तो रो दिए; नग़्मा किसी ने साज़ पे छेड़ा तो रो दिए; ग़ुंचा किसी ने शाख़ से तोड़ा तो रो दिए; उड़ता हुए ग़ुबार सर-ए-राह देख कर; अंजाम हम ने इश्क़ का सोचा तो रो दिए; बादल फ़ज़ा में आप की तस्वीर बन गए; साया कोई ख़याल से गुज़रा तो रो दिए; रंग-ए-शफ़क़ से आग शगूफ़ों में लग गई; 'साग़र' हमारे हाथ से छलका तो रो दिए। |
पहले सौ बार... पहले सौ बार इधर और उधर देखा है; तब कहीं डर के तुम्हें एक नज़र देखा है; हम पे हँसती है जो दुनियाँ उसे देखा ही नहीं; हम ने उस शोख को अए दीदा-ए-तर देखा है; आज इस एक नज़र पर मुझे मर जाने दो; उस ने लोगों बड़ी मुश्किल से इधर देखा है; क्या ग़लत है जो मैं दीवाना हुआ, सच कहना; मेरे महबूब को तुम ने भी अगर देखा है। |
देखना भी तो उन्हें दूर से देखा करना; शेवा-ए-इश्क़ नहीं हुस्न को रुसवा करना; एक नज़र ही तेरी काफ़ी थी कि आई राहत-ए-जान; कुछ भी दुश्वार न था मुझ को शकेबा करना; उन को यहाँ वादे पे आ लेने दे ऐ अब्र-ए-बहार; जिस तरह चाहना फिर बाद में बरसा करना; शाम हो या कि सहर याद उन्हीं की रख ले; दिन हो या रात हमें ज़िक्र उन्हीं का करना; कुछ समझ में नहीं आता कि ये क्या है 'हसरत'; उन से मिलकर भी न इज़हार-ए-तमन्ना करना। |
रुस्वाइयाँ ग़ज़ब की हुईं... रुस्वाइयाँ ग़ज़ब की हुईं तेरी राह में; हद है कि ख़ुद ज़लील हूँ अपनी निगाह में; मैं भी कहूँगा देंगे जो आज़ा गवाहियाँ; या रब यह सब शरीक थे मेरे गुनाह में; थी जुज़वे-नातवाँ किसी ज़र्रे में मिल गई; हस्ती का क्या वजूद तेरी जलवागाह में; ऐ 'शाद' और कुछ न मिला जब बराये नज़्र; शर्मिंदगी को लेके चले बारगाह में। |
इस तरफ से गुज़रे थे काफ़िले बहारों के; आज तक सुलगते हैं ज़ख्म रहगुज़ारों के; खल्वतों के शैदाई खल्वतों में खुलते हैं; हम से पूछ कर देखो राज़ पर्दादारों के; पहले हँस के मिलते हैं फिर नज़र चुराते हैं; आश्ना-सिफ़त हैं लोग अजनबी दियारों के; तुमने सिर्फ चाहा है हमने छू के देखे हैं; पैरहन घटाओं के, जिस्म बर्क-पारों के; शगले-मयपरस्ती गो जश्ने-नामुरादी है; यूँ भी कट गए कुछ दिन तेरे सोगवारों के। |
कितने ऐश उड़ाते होंगे कितने इतराते होंगे; जाने कैसे लोग वो होंगे जो उस को भाते होंगे; उस की याद की बाद-ए-सबा में और तो क्या होता होगा; यूँ ही मेरे बाल हैं बिखरे और बिखर जाते होंगे; बंद रहे जिन का दरवाज़ा ऐसे घरों की मत पूछो; दीवारें गिर जाती होंगी आँगन रह जाते होंगे; मेरी साँस उखड़ते ही सब बैन करेंगे रोएंगे; यानी मेरे बाद भी यानी साँस लिये जाते होंगे; यारो कुछ तो बात बताओ उस की क़यामत बाहों की; वो जो सिमटते होंगे इन में वो तो मर जाते होंगे। |