ग़ज़ल Hindi Shayari

  • ये जो है हुक़्म मेरे पास न आए कोई;
    इसलिए रूठ रहे हैं कि मनाए कोई;

    ये न पूछो कि ग़म-ए-हिज्र में कैसी गुज़री;
    दिल दिखाने का हो तो दिखाए कोई;

    हो चुका ऐश का जलसा तो मुझे ख़त पहुँचा;
    आपकी तरह से मेहमान बुलाए कोई;

    तर्क-ए-बेदाद की तुम दाद न पाओ मुझसे;
    करके एहसान, न एहसान जताए कोई;

    क्यों वो मय-दाख़िल-ए-दावत ही नहीं ऐ वाइज़;
    मेहरबानी से बुलाकर जो पिलाए कोई;

    सर्द-मेहरी से ज़माने के हुआ है दिल सर्द;
    रखकर इस चीज़ को क्या आग लगाए कोई;

    आपने 'दाग़' को मुँह भी न लगाया, अफ़सोस;
    उसको रखता था कलेजे से लगाए कोई।
    ~ Daagh Dehlvi
  • तुम न आये एक दिन...

    तुम न आये एक दिन का वादा कर दो दिन तलक;
    हम पड़े तड़पा किये दो-दो पहर दो दिन तलक;

    दर्द-ए-दिल अपना सुनाता हूँ कभी जो एक दिन;
    रहता है उस नाज़नीं को दर्द-ए-सर दो दिन तलक;

    देखते हैं ख़्वाब में जिस दिन किस की चश्म-ए-मस्त;
    रहते हैं हम दो जहाँ से बेख़बर दो दिन तलक;

    गर यक़ीं हो ये हमें आयेगा तू दो दिन के बाद;
    तो जियें हम और इस उम्मीद पर दो दिन तलक;

    क्या सबब क्या वास्ता क्या काम था बतलाइये;
    घर से जो निकले न अपने तुम "ज़फ़र" दो दिन तलक।
    ~ Bahadur Shah Zafar
  • मै यह नहीं कहता कि मेरा सर न मिलेगा;
    लेकिन मेरी आँखों में तुझे डर न मिलेगा;

    सर पर तो बिठाने को है तैयार जमाना;
    लेकिन तेरे रहने को यहाँ घर न मिलेगा;

    जाती है, चली जाये, ये मैखाने कि रौनक;
    कमज़र्फो के हाथो में तो सागर न मिलेगा;

    दुनिया की तलब है, कनाअत ही न करना
    कतरे ही से खुश हो, तो समन्दर न मिलेगा।
    ~ Wasim Barelvi
  • न आते हमें इसमें तकरार क्या थी;
    मगर वादा करते हुए आर क्या थी;

    तुम्हारे पयामी ने ख़ुद राज़ खोला;
    ख़ता इसमें बन्दे की सरकार क्या थी;

    भरी बज़्म में अपने आशिक़ को ताड़ा;
    तेरी आँख मस्ती में होशियार क्या थी;

    तअम्मुल तो था उनको आने में क़ासिद;
    मगर ये बता तर्ज़े-इन्कार क्या थी;

    खिंचे ख़ुद-ब-ख़ुद जानिबे-तूर मूसा;
    कशिश तेरी ऐ शौक़े-दीदाए क्या थी;

    कहीं ज़िक्र रहता है 'इक़बाल' तेरा;
    फ़ुसूँ था कोई तेरी गुफ़्तार क्या थी।
    ~ Allama Iqbal
  • तेरे कमाल की हद

    तेरे कमाल की हद कब कोई बशर समझा;
    उसी क़दर उसे हैरत है, जिस क़दर समझा;

    कभी न बन्दे-क़बा खोल कर किया आराम;
    ग़रीबख़ाने को तुमने न अपना घर समझा;

    पयामे-वस्ल का मज़मूँ बहुत है पेचीदा;
    कई तरह इसी मतलब को नामाबर समझा;

    न खुल सका तेरी बातों का एक से मतलब;
    मगर समझने को अपनी-सी हर बशर समझा।
    ~ Shad Azeembadi
  • एक क़तरा मलाल भी बोया नहीं गया;
    वो खौफ था के लोगों से रोया नहीं गया;

    यह सच है के तेरी भी नींदें उजड़ गयीं;
    तुझ से बिछड़ के हम से भी सोया नहीं गया;

    उस रात तू भी पहले सा अपना नहीं लगा;
    उस रात खुल के मुझसे भी रोया नहीं गया;

    दामन है ख़ुश्क आँख भी चुप चाप है बहुत;
    लड़ियों में आंसुओं को पिरोया नहीं गया;

    अलफ़ाज़ तल्ख़ बात का अंदाज़ सर्द है;
    पिछला मलाल आज भी गोया नहीं गया;

    अब भी कहीं कहीं पे है कालख लगी हुई;
    रंजिश का दाग़ ठीक से धोया नहीं गया।
    ~ Farhat Abbas Shah
  • मैं खुद भी सोचता हूँ...

    मैं खुद भी सोचता हूँ ये क्या मेरा हाल है;
    जिसका जवाब चाहिए, वो क्या सवाल है;

    घर से चला तो दिल के सिवा पास कुछ न था;
    क्या मुझसे खो गया है, मुझे क्या मलाल है;

    आसूदगी से दिल के सभी दाग धुल गए;
    लेकिन वो कैसे जाए, जो शीशे में बल है;

    बे-दस्तो-पा हू आज तो इल्जाम किसको दूँ;
    कल मैंने ही बुना था, ये मेरा ही जाल है;

    फिर कोई ख्वाब देखूं, कोई आरजू करूँ;
    अब ऐ दिल-ए-तबाह, तेरा क्या ख्याल है।
    ~ Javed Akhtar
  • मेरी रातों की राहत, दिन के इत्मिनान ले जाना;
    तुम्हारे काम आ जायेगा, यह सामान ले जाना;

    तुम्हारे बाद क्या रखना अना से वास्ता कोई;
    तुम अपने साथ मेरा उम्र भर का मान ले जाना;

    शिकस्ता के कुछ रेज़े पड़े हैं फर्श पर, चुन लो;
    अगर तुम जोड़ सको तो यह गुलदान ले जाना;

    तुम्हें ऐसे तो खाली हाथ रुखसत कर नहीं सकते;
    पुरानी दोस्ती है, की कुछ पहचान ले जाना;

    इरादा कर लिया है तुमने गर सचमुच बिछड़ने का;
    तो फिर अपने यह सारे वादा-ओ-पैमान ले जाना;

    अगर थोड़ी बहुत है, शायरी से उनको दिलचस्पी;
    तो उनके सामने मेरा यह दीवान ले जाना।
    ~ Aitbar Sajid
  • वो जो वह एक अक्स है सहमा हुआ डरा हुआ;
    देखा है उसने गौर से सूरज को डूबता हुआ;

    तकता हु कितनी देर से दरिया को मैं करीब से;
    रिश्ता हरेक ख़त्म क्या पानी से प्यास का हुआ;

    होठो से आगे का सफर बेहतर है मुल्तवी करे;
    वो भी है कुछ निढाल सा मैं भी हु कुछ थका हुआ;

    कल एक बरहना शाख से पागल हवा लिपट गयी;
    देखा था खुद ये सानिहा, लगता है जो सुना हुआ;

    पैरो के निचे से मेरे कब की जमीं निकल गयी;
    जीना है और या नहीं अब तक न फैसला हुआ।
    ~ Shahryar
  • ये क्या मक़ाम है वो नज़ारे कहाँ गए;
    वो फूल क्या हुए वो सितारे कहाँ गए;

    यारान-ए-बज़्म जुरअत-ए-रिंदाना क्या हुई;
    उन मस्त अँखड़ियों के इशारे कहाँ गए;

    एक और दौर का वो तक़ाज़ा किधर गया;
    उमड़े हुए वो होश के धारे कहाँ गए;

    दौरान-ए-ज़लज़ला जो पनाह-ए-निगाह थे;
    लेटे हुए थे पाँव पसारे कहाँ गए;

    बाँधा था क्या हवा पे वो उम्मीद का तिलिस्म;
    रंगीनी-ए-नज़र के ग़ुबारे कहाँ गए;

    बे-ताब तेरे दर्द से थे चाराग़र 'हफ़ीज';
    क्या जानिए वो दर्द के मारे कहाँ गए।
    ~ Hafeez Jalandhari