ग़ज़ल Hindi Shayari

  • कभी मुझ को साथ लेकर...

    कभी मुझ को साथ लेकर, कभी मेरे साथ चल के;
    वो बदल गये अचानक, मेरी ज़िन्दगी बदल के;

    हुए जिस पे मेहरबाँ, तुम कोई ख़ुशनसीब होगा;
    मेरी हसरतें तो निकलीं, मेरे आँसूओं में ढल के;

    तेरी ज़ुल्फ़-ओ-रुख़ के, क़ुर्बाँ दिल-ए-ज़ार ढूँढता है;
    वही चम्पई उजाले, वही सुरमई धुंधलके;

    कोई फूल बन गया है, कोई चाँद कोई तारा;
    जो चिराग़ बुझ गये हैं, तेरी अंजुमन में जल के;

    तेरी बेझिझक हँसी से, न किसी का दिल हो मैला;
    ये नगर है आईनों का, यहाँ साँस ले सम्भल के!
    ~ Ehsaan Danish
  • ग़मों से यूँ वो फ़रार...

    ग़मों से यूँ वो फ़रार इख़्तियार करता था;
    फ़ज़ा में उड़ते परिंदे शुमार करता था;

    बयान करता था दरिया के पार के क़िस्से;
    ये और बात वो दरिया न पार करता था;

    बिछड़ के एक ही बस्ती में दोनों ज़िंदा हैं;
    मैं उस से इश्क़ तो वो मुझ से प्यार करता था;

    यूँ ही था शहर की शख़्सियतों को रंज उस से;
    कि वो ज़िदें भी बड़ी पुर-वक़ार करता था;

    कल अपनी जान को दिन में बचा नहीं पाया;
    वो आदमी के जो आहाट पे वार करता था;

    सदाक़तें थीं मेरी बंदगी में जब 'अज़हर';
    हिफ़ाज़तें मेरी परवर-दिगार करता था।
    ~ Azhar Inayati
  • कौन कहता है कि...

    कौन कहता है कि मौत आयी तो मर जाऊँगा;
    मैं तो दरिया हूं, समंदर में उतर जाऊँगा;

    तेरा दर छोड़ के मैं और किधर जाऊँगा;
    घर में घिर जाऊँगा, सहरा में बिखर जाऊँगा;

    तेरे पहलू से जो उठूँगा तो मुश्किल ये है;
    सिर्फ़ इक शख्स को पाऊंगा, जिधर जाऊँगा;

    अब तेरे शहर में आऊँगा मुसाफ़िर की तरह;
    साया-ए-अब्र की मानिंद गुज़र जाऊँगा;

    तेरा पैमान-ए-वफ़ा राह की दीवार बना;
    वरना सोचा था कि जब चाहूँगा, मर जाऊँगा;

    ज़िन्दगी शमा की मानिंद जलाता हूं 'नदीम';
    बुझ तो जाऊँगा मगर, सुबह तो कर जाऊँगा।
    ~ Ahmad Nadeem Qasmi
  • आपको देख कर...

    आपको देख कर देखता रह गया;
    क्या कहूँ और कहने को क्या रह गया;

    आते-आते मेरा नाम-सा रह गया;
    उस के होंठों पे कुछ काँपता रह गया;

    वो मेरे सामने ही गया और मैं;
    रास्ते की तरह देखता रह गया;

    झूठ वाले कहीं से कहीं बढ़ गये;
    और मैं था कि सच बोलता रह गया;

    आँधियों के इरादे तो अच्छे न थे;
    ये दिया कैसे जलता हुआ रह गया।
    ~ Wasim Barelvi
  • फ़ुरसत-ए-कार फ़क़त...

    फ़ुरसत-ए-कार फ़क़त चार घड़ी है यारो;
    ये न सोचो के अभी उम्र पड़ी है यारो;

    अपने तारीक मकानों से तो बाहर झाँको;
    ज़िन्दगी शमा लिए दर पे खड़ी है यारो;

    उनके बिन जी के दिखा देंगे चलो यूँ ही सही;
    बात इतनी सी है कि ज़िद आन पड़ी है यारो;

    फ़ासला चंद क़दम का है मना लें चल कर;
    सुबह आई है मगर दूर खड़ी है यारो;

    किस की दहलीज़ पे ले जाके सजाऊँ इस को;
    बीच रस्ते में कोई लाश पड़ी है यारो;

    जब भी चाहेंगे ज़माने को बदल डालेंगे;
    सिर्फ़ कहने के लिये बात बड़ी है यारो।
    ~ Jaan Nisar Akhtar
  • टूटी है मेरी नींद...

    टूटी है मेरी नींद, मगर तुमको इससे क्या;
    बजते रहें हवाओं से दर, तुमको इससे क्या;

    तुम मौज-मौज मिस्ल-ए-सबा घूमते रहो;
    कट जाएँ मेरी सोच के पर तुमको इससे क्या;

    औरों का हाथ थामो, उन्हें रास्ता दिखाओ;
    मैं भूल जाऊँ अपना ही घर, तुमको इससे क्या;

    अब्र-ए-गुरेज़-पा को बरसने से क्या ग़रज़;
    सीपी में बन न पाए गुहर, तुमको इससे क्या;

    ले जाएँ मुझको माल-ए-ग़नीमत के साथ उदू;
    तुमने तो डाल दी है सिपर, तुमको इससे क्या;

    तुमने तो थक के दश्त में ख़ेमे लगा लिए;
    तन्हा कटे किसी का सफ़र, तुमको इससे क्या।
    ~ Parveen Shakir
  • नयी-नयी आँखें हों तो...

    नयी-नयी आँखें हों तो हर मंज़र अच्छा लगता है;
    कुछ दिन शहर में घूमे लेकिन, अब घर अच्छा लगता है;

    मिलने-जुलने वालों में तो सारे अपने जैसे हैं;
    जिससे अब तक मिले नहीं वो अक्सर अच्छा लगता है;

    मेरे आँगन में आये या तेरे सर पर चोट लगे;
    सन्नाटों में बोलने वाला पत्थर अच्छा लगता है;

    चाहत हो या पूजा सबके अपने-अपने साँचे हैं;
    जो मूरत में ढल जाये वो पैकर अच्छा लगता है;

    हमने भी सोकर देखा है नये-पुराने शहरों में;
    जैसा भी है अपने घर का बिस्तर अच्छा लगता है।
    ~ Nida Fazli
  • सख़्तियाँ करता हूँ दिल पर...

    सख़्तियाँ करता हूँ दिल पर ग़ैर से ग़ाफ़िल हूँ मैं;
    हाय क्या अच्छी कही ज़ालिम हूँ मैं जाहिल हूँ मैं;

    है मेरी ज़िल्लत ही कुछ मेरी शराफ़त की दलील;
    जिस की ग़फ़लत को मलक रोते हैं वो ग़ाफ़िल हूँ मैं;

    बज़्म-ए-हस्ती अपनी आराइश पे तू नाज़ाँ न हो;
    तू तो इक तस्वीर है महफ़िल की और महफ़िल हूँ मैं;

    ढूँढता फिरता हूँ ऐ 'इक़बाल' अपने आप को;
    आप ही गोया मुसाफ़िर आप ही मंज़िल हूँ मैं।
    ~ Allama Iqbal
  • कहाँ क़ातिल बदलते हैं...

    कहाँ क़ातिल बदलते हैं फ़क़त चेहरे बदलते हैं;
    अजब अपना सफ़र है फ़ासले भी साथ चलते हैं;

    बहुत कमजर्फ़ था जो महफ़िलों को कर गया वीराँ;
    न पूछो हाले चाराँ शाम को जब साए ढलते हैं;

    वो जिसकी रोशनी कच्चे घरों तक भी पहुँचती है;
    न वो सूरज निकलता है, न अपने दिन बदलते हैं;

    कहाँ तक दोस्तों की बेदिली का हम करें मातम;
    चलो इस बार भी हम ही सरे मक़तल निकलते हैं;

    हम अहले दर्द ने ये राज़ आखिर पा लिया 'जालिब';
    कि दीप ऊँचे मकानों में हमारे खून से जलते हैं।
    ~ Habib Jalib
  • हर इक लम्हे की रग में...

    हर इक लम्हे की रग में दर्द का रिश्ता धड़कता है;
    वहाँ तारा लरज़ता है जो याँ पत्ता खड़कता है;

    ढके रहते हैं गहरे अब्र में बातिन के सब मंज़र;
    कभी इक लहज़ा-ए-इदराक बिजली सा कड़कता है;

    मुझे दीवाना कर देती है अपनी मौत की शोख़ी;
    कोई मुझ में रग-ए-इज़हार की सूरत फड़कता है;

    फिर इक दिन आग लग जाती है जंगल में हक़ीक़त के;
    कहीं पहले-पहल इक ख़्वाब का शोला भड़कता है;

    मेरी नज़रें ही मेरे अक्स को मजरूह करती हैं;
    निगाहें मुर्तकिज़ होती हैं और शीशा तड़कता है।
    ~ Abdul Ahad Saaz