ये ज़ुल्फ़ अगर खुल के बिखर जाए तो अच्छा, इस रात की तक़दीर सँवर जाए तो अच्छा; जिस तरह से थोड़ी सी तेरे साथ कटी है, बाक़ी भी उसी तरह गुज़र जाए तो अच्छा! |
समझा लिया फ़रेब से मुझ को तो आप ने; दिल से तो पूछ लीजिए क्यों बे-क़रार है! |
अंगड़ाई भी वो लेने न पाए उठा के हाथ; देखा जो मुझ को छोड़ दिए मुस्कुरा के हाथ! |
वो पल कि जिस में मोहब्बत जवान होती है, उस एक पल का तुझे इंतज़ार है कि नहीं; तेरी उम्मीद पे ठुकरा रहा हूँ दुनिया को, तुझे भी अपने पे ये ऐतबार है कि नहीं! |
गाहे गाहे की मुलाक़ात ही अच्छी है 'अमीर'; क़द्र खो देता है हर रोज़ का आना जाना! *गाहे: कभी |
भीड़ तन्हाइयों का मेला है; आदमी आदमी अकेला है! |
किसी की शाम-ए-सादगी सहर का रंग पा गई, सबा के पाँव थक गए मगर बहार आ गई; चमन की जश्न-गाह में उदासियाँ भी कम न थीं, जली जो कोई शम-ए-गुल कली का दिल बुझा गई! |
मिट्टी ख़राब है तेरे कूचे में वर्ना हम; अब तक तो जिस ज़मीं पे रहे आसमाँ रहे! |
कल उस सनम के कूचे से निकला जो शैख़-ए-वक़्त; कहते थे सब इधर से अजब बरहमन गया! *शैख़-ए-वक़्त: अपने समय का सबसे बड़ा धर्मगुरु *बरहमन: ब्राह्मण |
दोनों तेरी जुस्तुजू में फिरते हैं दर दर तबाह; दैर हिन्दू छोड़ कर काबा मुसलमाँ छोड़ कर! |