ख़्वाब की तरह बिखर जाने को जी चाहता है; ऐसी तन्हाई कि मर जाने को जी चाहता है! |
अज़ीज़ इतना ही रखो कि जी सँभल जाए; अब इस क़दर भी न चाहो कि दम निकल जाए! ~ उबैदुल्लाह अलीम 'अज़ीज़ *दोस्त, प्रिय, प्यारा, |
यहाँ हर किसी को दरारों में झाँकने की आदत है, दरवाजे खोल दो, कोई पूछने भी नहीं आएगा। |
सफ़र में धूप तो होगी जो चल सको तो चलो, सभी हैं भीड़ में तुम भी निकल सको तो चलो; किसी के वास्ते राहें कहाँ बदलती हैं, तुम अपने आप को ख़ुद ही बदल सको तो चलो! |
उम्र गुज़रेगी इम्तिहान में क्या, दाग़ ही देंगे मुझ को दान में क्या; मेरी हर बात बे-असर ही रही, नक़्स है कुछ मेरे बयान में क्या! |
तुम्हारे ख़त में नया एक सलाम किस का था, |
ख़बर-ए-तहय्युर-ए-इश्क़ सुन न जुनूँ रहा न परी रही, न तो तू रहा न तो मैं रहा जो रही सो बे-ख़बरी रही; शह-ए-बे-ख़ुदी ने अता किया मुझे अब लिबास-ए-बरहनगी, न ख़िरद की बख़िया-गरी रही न जुनूँ की पर्दा-दरी रही! |
कभी बैठे सब में जो रू-ब-रू तो इशारतों ही से गुफ़्तुगू; वो बयान शौक़ का बरमला तुम्हें याद हो कि न याद हो! |
सुना है लोग उसे आँख भर के देखते हैं, सो उस के शहर में कुछ दिन ठहर के देखते हैं; सुना है रब्त है उस को ख़राब-हालों से, सो अपने आप को बरबाद कर के देखते हैं! |
सुला कर तेज़ धारों को किनारो तुम न सो जाना; रवानी ज़िंदगानी है तो धारो तुम न सो जाना! |